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Updated: 31 जुलाई, 2015 01:36 PM
मृगांक शेखर
मृगांक शेखर
  @msTalkiesHindi
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छोटे सपने देखना अपराध है. पूर्व राष्ट्रपति डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम हमेशा सपने देखने की बात करते थे. सपना देखो. सपना जरूर देखो. मगर, 'बड़ा सपना देखो'.

असल में कलाम सपने देखते थे. फिर उसे हकीकत में बदलते थे. फिर वो शायद नए सपने देखते और उसके पीछे लग जाते. ये सिलसिला आखिरी दम तक चलता रहा.

तेरे सपने, मेरे सपने

क्या सपनों पर भी हमारा कोई वश होता है? सपने दिख जाते हैं या देखने होते हैं? वे कौन लोग होते हैं जिन्हें सपने दिखते हैं? और वे जो सपने देखते हैं?

आखिर अमिताभ बच्चन ने भी तो सपने देखे होंगे. और नवाजुद्दीन सिद्दीकी? IAS टॉपर इरा सिंघल ने भी सपने देखे होंगे. और भी न जाने कितने?

निश्चित रूप से इन सभी ने सपने देखे होंगे. क्या इन सबके सपने एक जैसे रहे होंगे? या सभी ने अलग अलग सपने देखे होंगे?

क्या कलाम भी इन्हीं की तरह सपने देखे होंगे? या कलाम के सपने बाकियों से बिलकुल अलग होते होंगे?

फिल्म गाइड में शैलेंद्र के बोल को मोहम्मद रफी आवाज देते हैं, "तेरे मेरे सपने अब एक रंग हैं..."

नवाजुद्दीन के लिए तो अमिताभ बच्चन से मिलना ही एक बड़ा सपना था. वैसे नवाजुद्दीन अकेले नहीं हैं.

बिग बी, एक सपना

क्या सपनों का भी आपस में कोई रिश्ता होता है? क्या सपने और सोच में कोई संबंध होता है?

जरूर होता होगा. तभी तो सपने हमारी सोच के हिसाब से आते हैं. अगर सोच टिकाऊ हुई तो सपने बने रहते हैं. सोच संकुचित रही तो सपने भी संक्षिप्त हो सकते हैं.

जैसा हम सोचते हैं वैसे ही सपने भी देखते हैं. आम राय तो यही बनती है.

फिर कुछ सपने ऐसे क्यों होते हैं कि नींद खुलने के बाद हैंगओवर जितना भी नहीं टिकते. जबकि, कुछ ऐसे भी होते हैं जो भूलने के बावजूद नहीं भूलते. इस कदर हावी हो जाते हैं कि उनके बारे में सोच कर भी मन सिहर उठता है.

कलाम ने सपने देखे भी - और दिखाए भी. वैसे जिस सपने की बात कलाम करते रहे वो होता कैसा होगा? क्या विजन 2020 जैसा या कुछ अलग?

सपने को लेकर कलाम बस यहीं नहीं रुकते. कलाम की नजर में - सपना वो नहीं जो सो कर देखा जाए, सपना वो है जो सोने ही न दे.

क्या ऊपरवाला भी सपने देखता है? या सिर्फ वो दूसरों के सपने हैक करके चेक करता रहता है? क्या दूसरों का सपना देखने के लिए उसने इंटरसेप्टर लगा रखे होंगे?

लगता तो ऐसा ही है. नवाजुद्दीन को ही देखिए. कहां वो अमिताभ बच्चन से मिलने भर का सपना देखते रहे. कहां अमिताभ बच्चन ने खुद नवाजुद्दीन के साथ काम करने की इच्छा जता दी.

नवाजुद्दीन बताते हैं, "उनके साथ काम करना बड़ी बात है. खुशकिस्मत हूं कि बच्चन साहब ने मेरे साथ काम करने की इच्छा जताई." फिल्म का नाम 'केरला' बताया गया है जिसकी स्क्रिप्ट पर 'कहानी' वाले निर्देशक सुजॉय घोष साल 2012 से काम कर रहे हैं.

सपने और संघर्ष

सपनों का संघर्ष से भी कोई वास्ता होता है क्या? क्या नवाजुद्दीन सिद्दीकी और दशरथ मांझी के संघर्षों में कोई साम्य नजर आता है? क्या सिद्दीकी और मांझी के सपनों में भी कोई समानता रही होगी.

जो भी हो. पर ये तो मानना ही पड़ेगा कि दोनों ने अपने सपनों को पूरा करने के लिए जो संघर्ष किए वो बराबर ही थे. जितना वक्त मांझी को पहाड़ काटकर सड़क बनाने में लगा, नवाजुद्दीन को भी अमिताभ बच्चन के साथ काम करने में लगभग उतने ही साल लग गए.

दशरथ मांझी की जिंदगी पर बनी फिल्म मांझी - द माउंटेनमैन इसी साल अगस्त में रिलीज होने जा रही है. इस फिल्म में नवाजुद्दीन ने मांझी की भूमिका निभाई है.

फिल्म में एक जबरदस्त डायलॉग है, "भगवान के भरोसे मत बैठिए. का पता भगवान हमरे भरोसे बैठा हो."

ऐसा डायलॉग मांझी जैसे किरदार के मुंह से ही शोभा देता है. और नवाजुद्दीन जैसा अदाकार ही इसमें पूरी तरह फिट बैठता है.

हालांकि, ये बातें तभी शोभा देती हैं जब सपने और संघर्ष में सोने में सुगंध जैसा संगम हो.

सपने और समस्याएं

सपने को पूरा करने में समस्याएं भी आती हैं. कई बार तो कदम कदम पर समस्याएं खड़ी हो जाती हैं.

शायद सपने और समस्याओं में भी कोई खास रिश्ता है.

इरा सिंघल एक इंटरव्यू में कहती हैं, "समस्याएं तो सभी के साथ होती हैं. किसी की समस्या दिखती है, किसी की नहीं दिखती."

बात फिर देखने पर आ जाती है. सपने को आप कैसे देखते हैं? समस्याओं को कैसे देखते हैं?

सपने आएंगे. वही सपने समस्याएं भी साथ लाएंगे. सपने संघर्ष का जज्बा भी देंगे. सपने डराएंगे भी. सपने ही राह भी दिखाएंगे. आखिरकार सपने ही सफलता भी दिलाएंगे.

सपने सभी देखते हैं. जो उन्हें पूरा करते हैं, उनके सपने देखने का नजरिया भी अलग होता है.

कलाम भी ऐसे ही सपने देखने के पक्षधर रहे. कलाम की तरह सपने देखना ही उनके सपनों को पूरा करना होगा.

लेखक

मृगांक शेखर मृगांक शेखर @mstalkieshindi

जीने के लिए खुशी - और जीने देने के लिए पत्रकारिता बेमिसाल लगे, सो - अपना लिया - एक रोटी तो दूसरा रोजी बन गया. तभी से शब्दों को महसूस कर सकूं और सही मायने में तरतीबवार रख पाऊं - बस, इतनी सी कोशिश रहती है.

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