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बड़ा आर्टिकल  |  
Updated: 06 जून, 2016 04:16 PM
ऋचा साकल्ले
ऋचा साकल्ले
  @richa.sakalley
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सोशल मीडिया पर नागराज मंज़ुले की मराठी फिल्म 'सैराट' की इतनी चर्चा है कि देखने के लिए मन मचल गया. यू-ट्यूब पर जो मिली उसकी क्वालिटी मन मुताबिक़ नहीं थी, फिल्म नोएडा के पीवीआर से हट चुकी थी. सोचा क्या करुं. मित्र मयंक सक्सेना से मुंबई बात हुई उसने कहा डीवीडी का इंतज़ाम करेगा. लेकिन सबर नहीं था मेरे भीतर इतना. फिर क्या, गूगल पर ढूंढी और देख डाली सैराट.

मैं मराठी नहीं जानती. थोड़ी-थोड़ी कॉमन सेंस से समझ लेती हूं. सैराट का मतलब जानने के लिए मुंबई में नृत्यांगना और मेरी बचपन की दोस्त आरती (पाठक) जोशी को फ़ोन किया. मैंने पूछा क्या सैराट का मायना पलायन होता है, उसने कहा नहीं, सैराट का मतलब पलायन क़तई नहीं. सैराट है एक दौड़ जहां बस दौड़े जा रहे हैं. इस मायने ने मेरे विचारों को एक आधार दिया और सचमुच, क्या हम सब दौड़ नहीं रहे हैं. हम सब एक दिशाहीन दौड़ का हिस्सा ही तो हैं.

फिल्म 'सैराट' में मछुआरे (नीची जाति) का लड़का परश्या, पाटिल (ऊंची जाति) की लड़की आर्ची को दिल दे बैठता है. हाँ, उसने सोच समझकर प्यार नहीं किया, उसने नहीं सोचा कि वो मछुआरे का बेटा और वो पाटिल की लड़की. उसे तो बस प्यार हो गया. वैसे भी जो सोच समझकर किया जाता है वो प्रेम कहां होता, वो तो कैल्क्यूलेशन होता है प्लस-माइनस, गुणा भाग का. गणित की नींव पर शुरू हुए संबंधों में ही ज़्यादा होती है समझौतों की सैराट.

आर्ची की एक झलक पाने को बेचैन परश्या चूंकि नीची जाति का है, जो सदियों से सताई हुई है तो उसमें वो साहस तत्व पनप ही नहीं पाया- जो आमतौर पर फिल्म के नायक में दिखाया जाता है. जैसे वो फट से जाए और दोनों बाहें फैलाकर प्रेमिका से प्रेम का इज़हार कर दे. वो तो ख़त देने के लिए भी बच्चे को चुनता है. क्योंकि, एक कारण तो ये कि वो आर्ची से न नहीं सुन सकता और दूसरा-पाटिल की लड़की से कहने का साहस कहां से लाए. एक विरोधाभास की दौड़ चल रही है उसके मन में जिस पर यौवन भी हावी है. परश्या अपने प्यार को पाने का जुनून पाले है . उसका प्यार भी ज़िद्दी अहंकारी है वो भले नीची जाति का है पर स्त्री-पुरुष संबंध में वो पुरूष है. इसलिए वो आर्ची से सिर्फ़ हाँ चाहता है.

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 फिल्म का एक दृश्य 

इसलिए ख़त तब तक आर्ची तक जाता रहता है जब तक वो प्रेम स्वीकार नहीं लेती. आर्ची सवर्ण परिवार में पली बढ़ी है तो उसके बोल चाल तौर तरीकों पर तो पाटिलत्व दिखता है पर अंदर से वो पाटिल नहीं बन पाई है. उसका मन अभी जातिवादी प्रपंच और ढकोसलों की दौड़ में फंसा नहीं है. उसका यौवन अभी कल्पनाओं की सैराट पर है. पाटिल की ये बेटी पाटिलों की तरह हड़काती तो है पर उसमें अपनत्व का भाव है, प्रेम है. उसने प्रेम को ही जाना है. उसे तो घर में पिता ने सब कुछ दिया. हर इच्छा पूरी की. मकान पर पाटिल पिता ने अपनी लाड़ली बेटी का नाम लिखवाया, अर्चना. वही नाम लाड़ में आर्ची हो गया. उसकी दुनिया में बस उसकी सहेलियां हैं और उसका परिवार जहां उसकी नज़र में है बस प्यार ही प्यार.

वो निडर है, वो बुलट चलाती है, ट्रैक्टर चलाती है. वो परश्या को उसके अपने दोस्त प्रदीप को लंगड़ा कहने पर डांट सकती है. वो क्लास में आए अपने भाई को टीचर लोखंडे को चांटा जड़ने पर फटकार सकती है. वो परश्या के घर जाकर पानी पी सकती है. जबकि ऐसा करना सच में भी पाटिलों के लिए अभिशाप है. इसीलिए परश्या के मुक़ाबले आर्ची का साहस तत्व प्रबल है वो एक नायक की तरह उसे बेझिझक कह देती है आई लव यू. लेकिन प्रेम के इज़हार के बाद जब वो पिता रूपी आदर्श को टूटते और अपना और अपने प्यार का दुश्मन बनते देखती है तब वो फैंट्सी से निकलती है. एक झटके में उसके सामने दुनिया का यथार्थ आता है. भ्रम का संसार जब टूटता हैं तो कमज़ोर आत्महत्या की ओर जाते हैं. लेकिन मज़बूत फिर अगली सैराट का हिस्सा बन जाते हैं.

आर्ची कमज़ोर नहीं वो परश्या के साथ भागने की भी हिम्मत रखती है. पिता को जी जान से चाहने वाली आर्ची उनके और पुलिस के सामने थाने में हंगामा कर सकती है, रिवाल्वर चला सकती है, डरा सकती है. आर्ची-परश्या भाग गए लेकिन कहानी अभी बाक़ी है. जातिवादी समाज का रंग भी तो है.

सवर्णों के ख़ौफ़ में सांस लेने वाले दलितों को अपना अस्तित्व बचाना है सो इधर परश्या के मछुआरे पिता को उनकी जाति से निकाल दिया जाता है. कोई उस लड़के की बहन को अपनाना नहीं चाहता, जिसके भाई ने पाटिल की लड़की से प्यार कर उसे भगाया. आख़िरकार, उन्हें अपना गाँव अपना घर छोड़ना पड़ता है. ये उनकी जाति है जिसने उन्हें सवाल करना सिखाया ही नहीं. सिखाया है तो सिर्फ़ गिड़गिड़ाना, पिटना और झुकना.

लेकिन विरोधाभास यहां भी देखिए मछुआरे समाज में दलित हैं, अस्तित्वविहीन है, ग़ुलाम हैं लेकिन अंदरखाने में उनके अपने समाज के भीतर उनके पुरुष भी पुरुष हैं. स्त्री उनके लिए कोई अस्तित्व नहीं रखती. वो ग़ुलाम ही है. उसकी कोई इज़्ज़त नहीं. चाहे वो पाटिल स्त्री ही क्यों ना हो. देखिए ना उस वक़्त जब चांटा खाने वाला लोखंडे आर्ची से मिलने को परेशान परश्या से कहता है कि तू उसके साथ सो लिया न, अब उसे छोड़ दे. लेकिन परश्या का मन प्रेम सैराट पर है, वो नहीं सुनने वाला. वो तो आर्ची के बिना नहीं रह सकता. इसीलिए भाग गया उसके साथ वरना डरपोक तो पलायन कर जाते हैं. ऐसे रिश्तों से और अपना प्यार तक त्याग देते हैं.

उधर पाटिल की सत्ता को अपनी बेटी से चुनौती मिलती है. वो बेटी जिसे वो ग़ुलामी की ज़ंजीरों में जीने का आदी बना रहा था, पौरुषीय हुकूमत के भीतर रहना सिखा रहा था. लेकिन लड़की ने उस सत्ता को लात मार दी. वो बेटी को बुलट देगा, ट्रैक्टर देगा , गहने देगा पर बदले में बेटी से उसके खुदके जीवन पर खुदके हक़ को गिरवी रखना चाहता है.

सदियों से उसने यही जाना है समझा है कि बेटी पर उसका हक़ है. वो बेटी का मालिक है, बेटी उसकी संपत्ति है वो जहां चाहे वहां उसे ब्याहेगा लेकिन बेटी की मर्ज़ी नहीं चलेगी और तिस पर नीची जाति का लड़का यानि बेटी ने तो जीते जी ही मार दिया. बेटी की इंडिविजुएलिटी को अपनी इज़्ज़त से जोड़कर देखने वाला बाप क्या करेगा. सम्मान घटने का ये ख़ौफ़ उसकी बढ़ी हुई दाढ़ी और दयनीय चेहरा साफ़ दिखाता है. वो घर से बेटी की तस्वीरें हटा देता है. घर पर लिखा बेटी का नाम मिटा देता है. क्योंकि बेटी से मिली चुनौती उसे बर्दाश्त नहीं.

बेटी ने समाज में उसकी पोज़ीशन कम कर दी है. जात-बिरादरी में नीचा दिखा दिया है. अब आप दर्शक पूछिए खुद से कि इसमें पिता का प्यार कहां गुम है. वो पाटिल पहले है या पिता पहले, ये दौड़ अब उसे ही तय करना है. भावनाओं में डूबते-उतराते, भागे हुए आर्ची और परश्या ने अब ऐसे माहौल में गुज़र बसर शुरू की है जो परश्या के लिए नया नही लेकिन आर्ची को यहां रहने की आदत डालनी है. इसीलिए गंदे टॉयलेट में जाने का वो सीन बार बार दिखाया गया ताकि ये बात स्थापित हो जाए कि खेत खलिहानों में मिलकर प्यार भरी बातें करना और हाथों में हाथ डाल कर घंटों घूमना, बाँहों में जकड़े रहना ही प्यार नहीं. प्यार करना एक आदत होनी चाहिए. वो एक बार गंदे टॉयलेट में जाने से कतराती है लेकिन फिर वो जाती ही है क्योंकि प्यार की ये दौड़ उसने ही चुनी है.

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 एक प्रेम कहानी यथार्त की जमीन पर...

वो परश्या का हाथ बंटाने के लिए नौकरी भी कर लेती है. मगर अभी तो आर्ची को और भी सच देखने हैं जिस परश्या के लिए वो अपनी अपर कास्ट सुविधाभोगी, कंफर्ट लाइफ़ छोड़कर आई है उसे अभी परश्या की मर्दानगी भी तो देखनी है. जैसा मैने पहले बताया हर जाति में पुरुष-पुरुष ही है और स्त्री सेकेंड सेक्स. स्त्री की कोई जाति नहीं होती.

सवर्णों से शोषित दलित-पिछड़ी जाति के पुरुष अपनी स्त्री के शोषण करने और उस पर हिंसा बरपाने से भी नहीं चूकते. परश्या इससे अलग नही वो इसी समाज का हिस्सा है, इसी दौड़ का हिस्सा है जो एक शक के चलते आर्ची पर हाथ उठा देता है. आर्ची को ये तमाचा बर्दाश्त नहीं होता और वो परश्या को छोड़कर निकल जाती है किसी राह पर लेकिन ट्रेन में एक साथ भीख मांगते एक भिखारी जोड़े को देख उसका कोमल मन परश्या को माफ कर देता है.

आर्ची समझ जाती है कि हर परिस्थिति में उसे परश्या के साथ ही रहना है. क्योंकि उसने भी तो पैदा होते ही अपने घर में अपनी मां को अपनी सहेलियों की मां को अपने आस पास की औरतों को अपने पतियों का हर परिस्थिति में साथ निभाते ही देखा है. क्या पिता की कठोरता के सामने आर्ची की मां ने कभी मुंह खोला है. चाहे पति मारे, कूटे, पीटे, मार डाले पत्नी को साथ निभाना है. यही घुट्टी में पिलाया जाता रहा है सदियों से औरतों को. अब आर्ची क्या करे. इधर परश्या को भी अपनी गलती का अहसास होता है वो आत्महत्या का प्रयास करता है लेकिन आर्ची लौट आती है परश्या के पास. उसे लौटना ही था वो आर्ची की वापसी नहीं उस औरत की वापसी थी जिसे उसके अंदर ढाला गया था.

दोनों शादी कर लेते हैं. बच्चा हो जाता है. नाम दिया जाता है आकाश. एक सामान्य जिंदगी ढर्रे पर चलने लगती है. सवाल आया अब क्या, दरअसल मैं एक डर और व्याकुलता के साथ फिल्म देख रही थी. इतना तो पता चल ही गया था कि जातिवादी धरातल पर बुनी इस फिल्म में कुछ तो गड़बड़ होगी, लेकिन क्या. मेरे सामने पर्दे पर चल रही थी सैराट और मेरे मन में भी चल रही थी एक सैराट.

सामान्य जिंदगी के बीच अचानक आर्ची के मन ने उसे भ्रम दिया कि शायद मां बाप उसे भी वैसे ही मिस कर रहे होंगे जैसे वो याद करती रहती है. वो मां को फोन करती है…उन्हें उनके नाती की आवाज सुनाती है.....और फिर भाई आता है आर्ची के घर मिठाइयों, कपड़ों के साथ. मायके से आई सौगात फिर भ्रम देती है आर्ची को कि सब कुछ तो सामान्य है…फिर आखिरी सीन…आर्ची और परश्या का नन्हा आकाश दौड़ रहा है...रक्त से सने उसके पैरों की छाप निशां छोड़ रही थी उस सैराट के जिसमें ना चाहते हुए भी वो शामिल हो गया था.

जो लोग ये मानते हैं कि फिल्म यथार्थ के धरातल पर नही तो वो ग़लत हैं. फिल्म अपनी शुरूआत से लेकर अंत तक यथार्थ की धुरी पर है. इस फिल्म में एक ही नायक है और एक ही नायिका है और वो है जाति. इस जाति ने ही खड़ी की है विराट सैराट. सैराट महत्वपूर्ण है…जो आपके बाहर भी है और आपके भीतर भी. जिसे आपको पहचानना है. ये फिल्म आपको भ्रम से यथार्थ के बीच दौड़ा रही है ठीक वैसे, जैसे आप जीवन में भ्रम और यथार्थ के बीच बस दौड़ते जा रहे हैं. सवाल ये है कि आप क्या कर रहे हैं …क्या ऐसी घटनाएं…कहानियां…फिल्में आपके लिए नई हैं…नहीं.

इस फिल्म ने आपको जो झटका दिया है. उस झटके को याद रखिए. इस दुखद अंत पर आंसू पोंछिए. उठिए..खड़े होइए…विलाप का नाटक बहुत हुआ…जाति को नायक बनने से रोकिए…शुरु करिए एक नई सैराट जहां जात-पात, ऊंच-नीच, स्त्री पुरुष का कोई भ्रम ना हो और जो एक सुंदर यथार्थ का लक्ष्य बने.

लेखक

ऋचा साकल्ले ऋचा साकल्ले @richa.sakalley

लेेखिका टीवीटुडे में प्रोड्यूसर हैं.

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