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Updated: 01 मई, 2022 08:14 PM
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हीरोपंती 2 में नवाजुद्दीन सिद्दीकी की तरफ से निभाई गई लैला की भूमिका सबका ध्यान आकर्षित कर रही है. नवाज की भूमिका उनके मूड और मिजाज के मुताबिक़ है और असल में इसे ही हीरोपंती 2 की यूएसपी बता रहे हैं लोग. यह अलग बात है कि लैला की उनकी भूमिका में बहुत लोगों को ताजापन नहीं लग रहा. मगर यह भी कम बड़ी बात नहीं कि उसमें आकर्षण खूब है. खैर, यहां बात करने का मकसद लैला के लिए नवाज का काम नहीं बल्कि उनका वह बयान है जिसमें एक तरह से उन्होंने कहना चाहा कि दक्षिण की फिल्मों (पुष्पा, आरआरआर  और केजीएफ 2) की सफलता को लेकर जिस तरह की वाहवाही की जा रही है, असल में फ़िल्में उतना डिजर्व बिल्कुल नहीं करती हैं.

अच्छा है कि नवाज ने दक्षिण की किसी फिल्म का नाम नहीं लिया. और भले ही उन्होंने कोई नाम ना लिया लिया लेकिन द कश्मीर फाइल्स पर भी इसे लागू मान सकते हैं. अच्छा ही हुआ कि जो उन्होंने नाम नहीं लिया, वर्ना बहस का विषय दूसरा होने की गुंजाइश बन जाती. हिंदी बॉक्स ऑफिस पर दक्षिण की फिल्मों का बॉलीवुड फिल्मों पर भारी पड़ने के सवाल पर नवाजुद्दीन ने हाल ही में कहा- टिकट खिड़की पर किसी फिल्म के अच्छा करने पर हर कोई उसकी इतनी तारीफ करने लगता है, असलियत में जितना वो डिजर्व भी नहीं करती. नवाज के मुताबिक़ इसका उल्टा भी होता है. यानी यदि कोई फिल्म फ्लॉप हो जाए तब लोग इतनी बुराई करने लगते हैं, फिल्म जिसकी हकदार नहीं होती. नवाज के बयान को उनकी निजी राय ना भी माना जाए तो एक हद तक यह सही नजर आता है. क्योंकि किसी फिल्म के अच्छे और बुरे होने का कोई "पैमाना" नहीं है. हर फिल्म की अपनी अलग जमीन होती है. और दर्शकों की पसंद भी भिन्न-भिन्न.

heropanti 2लैला के किरदार में नवाजुद्दीन सिद्दीकी.

फिल्मों का अच्छा बुरा होने का पैमाना भी है कोई?

यह कल्पना करना असंभव है कि कोई एक फिल्म सभी को पसंद आ जाए. लोकतंत्र में अच्छे और बुरे का फैसला जैसे बहुमत से होता है वैसे ही बॉक्स ऑफिस पर यह बहुमत किसी फिल्म के बॉक्स ऑफिस कलेक्शन से निकलकर आता है. यानी किसी फिल्म ने ज्यादा कमाए तो स्वाभाविक मान लिया जाता है कि उसने दर्शकों का बेहतर मनोरंजन किया और वह अच्छी फिल्म ही होगी. फिल्म के बिजनेस नहीं करने पर इसका ठीक उलटा समझ लिया जाता है. कारोबार खराब होने का मतलब फिल्म का खराब होना मान लिया जाता है. लेकिन ध्यान रहे- गलत चीजों के लिए भी कई मर्तबा बहुमत नजर आता है. ये तो रही सिनेमा की सफलता असफलता को लेकर औसत समझ की बातें.

नवाज के बयान की मजेदार और बहसतलब चीज तो बयान को उनकी निजी राय मानने और उसके विश्लेषण में नजर आती है. दक्षिण बनाम बॉलीवुड की डिबेट में नवाज के इसी बयान को समझने की कोशिश करें तो एक्टर की अपनी चिंताओं के बड़े सूत्र हाथ लगते हैं. तब बहस का दायरा दक्षिण बनाम बॉलीवुड की बजाय महानायक बनाम नायक की बहस में उलझता दिखता है. और उसके लोकतांत्रिक ढांचे पर प्रहार के संकेत देने लगता है. दक्षिण से आने वाली फिल्मों की एक पर एक सफलता के बाद कई निष्कर्ष सामने आ रहे हैं. इसमें एक और सबसे बड़ा निष्कर्ष तो यही है कि भारतीय सिनेमा में महानायकों की वापसी का दौर फिर शुरू हो चुका है.

किसी जमाने में भारतीय सिनेमा अपने लार्जर दैन लाइफ नायकों के कंधे पर ही सवार होकर विकास की दिशा में तेज गति से आगे बढ़ा था. और जगह सिलसिला जारी रहा- मगर बॉलीवुड में एक नए सिनेमा के उदय ने उसे लगभग ख़त्म ही कर दिया था. एक नया सिनेमा जन्म लेता गया जिसका नायक बहुत साधारण नजर आने लगा. वह रोजमर्रा की जिंदगी जीने वाला ही था. हद से ज्यादा समझौतावादी हो चुका था और उसके कार्य व्यवहार बिल्कुल सामान्य थे. महामानव वाले तो नहीं ही कहे जा सकते हैं.

सिनेमा के बदलाव ने कई अच्छी चीजें भी दी हैं, उन्हें बचाना चुनौती

सिनेमा में नई शुरुआत की सबसे बड़ी उपलब्धि यह रही कि इसने सफलता, मनोरंजन और नायक होने के स्थापित मानकों को बुरी तरह से चोट पहुंचाया. इस धारा में मास और क्लास दोनों सिनेमा एक-दूसरे में घुलते नजर आने लगे. नई धारा बनी तो नई संभावनाओं का जन्म हुआ. सिनेमा का स्केल छोटा होता गया, लेकिन कहानियों का कैनवास ज्यादा बड़ा नजर आने लगा. नए-नए एक्टर के साथ दूसरे प्रोफेशनल भी निकलने लगे. दो तीन करोड़ में भी फ़िल्में बनने लगी. ऐसा नहीं था कि ये अव्यावसायिक फ़िल्में थीं. इनमें कई ने कमाई के उल्लेखनीय रिकॉर्ड बनाए.

सबसे बड़ी बात तो यह रही कि इस धारा ने संभावनाशील अभिनेताओं, निर्देशकों और लेखकों के लिए सिनेमा के बंद दरवाजों को खोल दिया और सकरी गलियों को बहुत हद तक चौड़ा कर दिया. इसी धारा ने बॉलीवुड को मेथड एक्टर्स की फ़ौज दी. स्वर्गीय इरफान से लेकर राजकुमार राव और नवाज तक ना जाने कितने अभिनेता इसमें शुमार हैं. आज की तारीख में नवाज का मुकाम साफ़ नजर आता है. पिछले दो दशक में नई धारा की सैकड़ों बॉलीवुड फिल्मों को उठाकर देखिए और उन्हें किसी बाहुबली, पुष्पा, आरआरआर या केजीएफ 2 से तुलना करके देखिए.

बॉलीवुड में भी केजीएफ 2 जैसी फ़िल्में बनने लगे तो क्या होगा?

बॉलीवुड की नई धारा में बना सिनेमा उनके स्केल के लिहाज से बहुत छोटा नजर आएगा. नवाजुद्दीन की चिंता निजी है. उन्हें मालूम है कि जिस तरह से दक्षिण के सिनेमा को महिमामंडित किया जा रहा है उसके असल परिणाम क्या होने वाले हैं. निर्माता तो फायदे के लिए फ़िल्में बनाता है. भारी मुनाफे और चकाचौंध में वह उसी तरह की "महामानवीय" कहानियों की तरफ भागेगा. बड़े बड़े बैनर, बड़े बड़े निर्देशक, बड़े बड़े लेखक और उसमें एक बहुत बड़ा सितारा जिसके अकले कंधे पर पूरी फिल्मों का बोझ होगा. हीरोइन शो पीस और खलनायक पिटने भर के लिए. बाकी तमाम एक्टर सिर्फ फिलर नजर आएंगे. कल्पना करिए कि अगर हर दूसरी फिल्म आरआरआर और केजीएफ 2 जैसी बनने लगे तब उसमें नवाजुद्दीन जैसे नए नवेले अभिनेताओं के लिए कौन सी जगह देख रहे हैं आप?  

आरआरआर और केजीएफ 2 जैसी फिल्मों में  रामचरण, जूनियर एनटीआर, आलिया भट्ट, अजय देवगन, एसएस राजमौली, यश, संजय दत्त, रवीना टंडन और प्रशांत नील के अलावा काम करने वाले कितने चेहरे लोगों को याद रह जाते हैं- दक्षिण की फिल्मों को देखने वालों से पूछना चाहिए. क्या यह कल्पना भी की जा सकती है कि दक्षिण की धारा में 50 साल से ज्यादा उम्र का कोई संजय मिश्रा, चार सेकेंड की रील में दिखने वाला कोई नवाजुद्दीन या पंकज त्रिपाठी भी हीरो बनने का सपना पाल सकता है.

जब हम इस आधार पर देखते हैं तो नवाज की बात जायज लगती है और किसी फिल्म की सफलता के मायने उसके भारी भरकम कारोबारी आंकड़े से कहीं अलग नजर आने लगते हैं. यह मानने में कभी संकोच नहीं करना चाहिए कि बॉलीवुड ने एक फिल्म से हजार करोड़ कमाने की बजाय सिनेमा को आगे बढ़ाने, उसे गहाराई देने और उसके मायने बदलने के लिए अब तक शानदार काम किया है. वो फ़िल्में जो भारतीय सिनेमा में 100-200 या 1000 करोड़ नहीं कमा पातीं उनकी खूबियां भी तलाशते रहना चाहिए.

भला इसे नवाज से अच्छा कौन समझ सकता है कि आरआरआर और केजीएफ़ 2 के नशे में फिल्म उद्योगों के आ जाने के बाद भविष्य में उनकी तरह के अभिनेताओं के लिए रास्ते किस तंग हो जाएंगे.

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