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Updated: 23 मई, 2021 06:32 PM
मुकेश कुमार गजेंद्र
मुकेश कुमार गजेंद्र
  @mukesh.k.gajendra
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साउथ के सुपरस्टार धनुष की तमिल फिल्म 'कर्णन' ओटीटी प्लेटफॉर्म अमेजन प्राइम वीडियो पर रिलीज हुई है. इससे पहले इस फिल्म को सिनेमाघरों में रिलीज किया गया था. कोरोना के कहर के बीच रिलीज हुई इस फिल्म को दर्शकों से जबरदस्त रिस्पॉन्स मिल रहा है. सबसे दिलचस्प बात ये है कि ये फिल्म भाषाई दीवार तोड़कर साउथ से लेकर नॉर्थ तक पसंद की जा रही है. सोशल मीडिया पर चर्चा का विषय बनी हुई है. एक तमिल फिल्म का हिन्दी पट्टी में इस तरह लोकप्रिय होना सिनेमा के सुखद भविष्य की ओर इशारा करता है. उसमें भी तब जब लोगों को फिल्म की भाषा बिल्कुल भी समझ नहीं आती, लेकिन सबटाइटल्स के सहारे लोग देख रहे हैं.

फिल्म 'कर्णन' को तमिल निर्देशक मारी सेल्वराज ने निर्देशित किया है. फिल्म में धनुष के साथ ही लाल पॉल, योगी बाबू, नटराजन सुब्रमण्यम, राजिशा विजयन, गौरी जी किशन और लक्ष्मी प्रिया चंद्रामौली जैसे दमदार कलाकार मौजूद हैं. कर्णन, सिर्फ एक मूवी नहीं है. यह एक मूवमेंट है. उन लोगों के लिए एक वेक-अप कॉल है, जो सोचते हैं कि सभी इंसान समान पैदा होते हैं. लेकिन क्या ये सच है? फिलहाल तो ऐसा बिल्कुल भी नहीं लगता. हमारे समाज में जाति व्यवस्था अभी भी विभिन्न रूपों में मौजूद है. असमानताएं हमारे डीएनए में है. फिल्म मेकर अनुभव सिन्हा ने फिल्म 'आर्टिकल 15' में जाति-व्यवस्था पर कड़ा प्रहार किया था, लेकिन वो इतना काफी नहीं है.

untitled-1-650_052321025301.jpgसुपरस्टार धनुष की तमिल फिल्म 'कर्णन' का निर्देशन मारी सेल्वराज ने किया है.

जाति प्रथा के खिलाफ एक आंदोलन है

धर्म और जाति आधारित व्यवस्थाओं के खिलाफ निर्देशक मारी सेल्वराज के गुस्से की मुहर फिल्म के हर फ्रेम पर छपी हुई देखी जा सकती है. कहानी के केंद्र में एक गांव है, जहां समाज से उपेक्षित, वंचित और बहिष्कृत निम्न जाति के लोग रहते हैं. वहां के लोगों की सबसे बड़ी पीड़ा उनके गांव में बस के न रुकने की है. इसकी वजह से उनके गांव का विकास रुका हुआ है. बस पकड़ने के लिए उनको पास के गांव के स्टॉप पर जाना पड़ता है, जहां उच्च जाति के दबंगों का शिकार होना पड़ता है. यहां तक कि मेडिकल सुविधाओं के अभाव में बच्चों की मौत हो जाती है. इतना ही नहीं जातीय अहंकार में गांव के बुजुर्गों को थाने में बांधकर पूरी रात पीटा जाता है.

इस गांव की कहानी तो बानगी भर है

ग्रामीण ऐसी जिंदगी को अपना भाग्य मानकर इसी तरह रहना स्वीकार कर चुके हैं, लेकिन गांव का एक युवक इन अन्यायों और अव्यवस्थाओं के खिलाफ मुखरता से सोचता है. क्या यह सामाजिक रूप से स्वीकार्य व्यवहार है? दलितों के लिए जमीन पर रहना, अपमान सहना और अधीनता स्वीकार कर लेना एक सामान्य घटना है. लोगों की आत्मा को झकझोर देना का मादा रखने वाली ये फिल्म उन सभी के लिए चेतावनी है, जो धर्म और जाति का लबादा ओढ़े बैठे हैं. आज भी जाति व्यवस्था के खिलाफ देश असंतोष से उबल रहा है. हम बारूद के उस ढेर पर बैठे हैं, जो कभी विस्फोट हो सकता है. फिल्म में दिखाए गए गांव की कहानी तो बानगी भर है.

'बस स्टॉप' नहीं व्यवस्था का प्रतीक है

कुछ लोग ये सोच रहे होंगे कि किसी गांव के लिए बस स्टॉप नहीं होना कौन सी बड़ी बात है? ऐसे लोगों के लिए फिल्म की शुरूआत में ही एक सीन दिखाया गया है. एक छोटी बच्ची सड़क पर तड़प-तड़प कर मर जाती है, लेकिन घरवाले उसे अस्पताल नहीं ले जा पाते. गांव की एक युवा लड़की, जो कॉलेज में पढ़ना चाहती है, वहां जाने के लिए अपने पिता के साथ दूसरे गांव के बस स्टॉप पर जाती है, लेकिन दबंग लोग उसके साथ छेड़खानी करते हैं. उसके पिता के साथ मारपीट करते हैं. यहां तक बस रोकने के लिए दलित गांव के लोग तोड़फोड़ और विरोध प्रदर्शन करते हैं, तो पुलिस -प्रशासन उनके खिलाफ हो जाता है. एक आईपीएस अफसर उनके गांव जाता है.

अपमान, विरोध, विद्रोह की दास्तान है

निम्न जाति के लोगों के गांव में जब उस पुलिस अफसर को उसकी ऊंची जाति के मानक के अनुसार उचित सत्कार नहीं मिलता है, तो उसे बहुत बुरा लगता है. उसके जातिगत अहंकार पर चोट लग जाती है. उसे लगता है कि नीची जाति के लोगों की उसके सामने सिर उठाने की हिम्मत कैसे हुई. इसके बाद वो पुलिस बल के साथ गांव वालों पर धावा बोल देता है. उनकी बुरी तरह पिटाई करता है. इधर, नायक सरकार नौकरी छोड़कर अपने गांव वालों को बचाने के लिए हथियार उठा लेता है. उस अहंकारी पुलिस अफसर को मार देता है. उसे जेल की सजा होती है, लेकिन उसके गांव में बस स्टॉप बनवा दिया जाता है. गांव के लोग खुशहाल जिंदगी जीने लगते हैं.

ये फिल्म का सबसे मजबूत पक्ष है

इस फिल्म का सबसे मजबूत पक्ष है इसका विषय और कहानी. पटकथा लेखक ने इसे ऐसे बुना है कि दर्शक एक सेकेंड के लिए स्क्रीन से नजर नहीं हटा पाएंगे. ऐसे विषयों से लोग जल्दी कनेक्ट कर लेते हैं. क्योंकि ऐसा हमारे आस-पास समाज में अक्सर देखने को मिलता है. उपर से यदि कलाकारों ने दिल खोलकर दमदार एक्टिंग की है, तो फिल्म में चार चांद लग जाता है. कर्णन से पहले मलयालम एक्टर मोहनलाल की फिल्म दृश्यम 2 के साथ भी ऐसा ही हुआ था. इस फिल्म को भी भाषाई कठिनाई होने के बावजूद हिन्दी पट्टी वालों ने खूब देखा, इसकी सराहना की थी. हालांकि, इस फिल्म की पहली कड़ी हिन्दी में रिलीज हो चुकी है.

रिलीज से पहले ही विवाद हुआ था

फिल्म कर्णन रिलीज से पहले एक कॉन्ट्रोवर्सी का शिकार हो गई थी. इस फिल्म का गाना पंडार्थी पुराणम जब रिलीज हुआ, तो विवाद खड़ा हो गया. तमिलनाडु के मदुरै में रहने वाले एक शख्स ने मेकर्स के खिलाफ केस दर्ज करा दिया. उसका आरोप था कि इस गीत के बोल तमिलनाडु के एक जाति विशेष के लोगों को अपमानित कर रहे हैं. इसके बाद मामला कोर्ट पहुंचा. अपील में कहा गया कि गाने को नहीं बदला जाता तब तक फिल्म कर्णन की रिलीज पर ही पाबंदी लगा दी जाए. इसके बाद कोर्ट ने फिल्म के निर्माता-निर्देशकों को नोटिस भेजा. मामला तूल पकड़ा तो मेकर्स ने इस गाने के बोल पंडार्थी पुराणम को बदलकर मंजनति पुराणम रख दिया था.

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लेखक

मुकेश कुमार गजेंद्र मुकेश कुमार गजेंद्र @mukesh.k.gajendra

लेखक इंडिया टुडे ग्रुप में सीनियर असिस्टेंट एडिटर हैं.

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