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Updated: 26 मार्च, 2023 04:42 PM
मुकेश कुमार गजेंद्र
मुकेश कुमार गजेंद्र
  @mukesh.k.gajendra
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फिल्म- कंजूस मक्खीचूस

डायरेक्टर- विपुल मेहता

स्टार कास्ट- कुनाल खेमू, श्वेता त्रिपाठी, राजू श्रीवास्तव, पियूष पांडे, अलका पांडे

ओटीटी- जी5

रेटिंग- 2.5

मिडिल क्लास सिनेमा का अहम विषय रहा है. इस पर बनी फिल्मों की सफलता की संभावना ज्यादा रहती है. 'दो दूनी चार', 'द लंच बॉक्स', 'पिकू', 'क्वीन', 'बरेली की बर्फी', 'इंग्लिश विंग्लिश' और 'दम लगा के हईशा' जैसी फिल्मों की बॉक्स ऑफिस पर सफलता इस बात की गवाह है. इसी कड़ी में मिडिल क्लास की जिंदगी पर आधारित एक फिल्म 'कंजूस मक्खीचूस' ओटीटी प्लेटफॉर्म जी5 पर स्ट्रीम की जा रही है. ये दिवंगत कॉमेडियन-एक्टर राजू श्रीवास्तव की आखिरी फिल्म भी है, जिसमें वो अहम भूमिका में हैं. इस फिल्म को कॉमेडी कैटेगरी का बताकर प्रमोट किया गया था, लेकिन इसमें कॉमेडी से ज्यादा ट्रेजेडी नजर आती है. इसके साथ ही भ्रष्टाचार जैसे सामाजिक मुद्दे को भी प्रमुखता से उठाया गया है. लेकिन इन सबके बीच फिल्म की कहानी लगातार ट्रैक बदलती रहती है. दर्शकों को कंफ्यूज करती है.

650x400_032523051114.jpgराजू श्रीवास्तव की आखिरी फिल्म 'कंजूस मक्खीचूस' ओटीटी प्लेटफॉर्म जी5 पर स्ट्रीम हो रही है.

'कंजूस मक्खीचूस' का निर्देशन विपुल मेहता ने किया है. उनको गुजराती फिल्म इंडस्ट्री में बेहतरीन काम के लिए जाना जाता है. इससे पहले उन्होंने 'जलसा करो जयंतीलाल', 'कैरी ऑन केसर', 'बेस्ट ऑफ लक लालू' जैसी गुजराती फिल्मों का निर्देशन किया है. लेकिन अपनी डेब्यू हिंदी फिल्म में वो कहानी के बीच संतुलन बनाने में असफल रहे हैं. उन्होंने फिल्म को कॉमेडी ट्रैक पर शुरू किया, लेकिन अचानक ट्रेजेडी ट्रैक पर चले गए. अंत में एक सामाजिक मुद्दे को आधार बनाकर फिल्म जस्टिफाई करने की कोशिश करते हैं. इस तरह न तो लोगों को हंसा पाते हैं, न ही भावुक कर पाते हैं. यहां निर्देशक पूरी तरह कंफ्यूजन के शिकार नजर आते हैं. फिल्म की सबसे बड़ी कमी यही है कि यह मुद्दे पर पहुंचने में बहुत ज्यादा समय लेती है. फिल्म को दिलचस्प बनाने वाला ट्विस्ट 2 घंटे के रनटाइम में 55 मिनट बाद आता है.

फिल्म की कहानी जमुना प्रसाद पांडे (कुणाल खेमू) के ईर्द-गिर्द घूमती है, जो बहुत ज्यादा कंजूस है. वो अपने पिता गंगा प्रसाद (पीयूष मिश्रा), माता सरस्वती पांडे (अलका अमीन), पत्नी (श्वेता त्रिपाठी) और बेटे कृष के साथ लखनऊ में रहता है. वहां एक अंतिम संस्कार से जुड़े सामानों की दुकान चलाता है. उसकी कंजूसी का आलम ये है कि वो खत्म हो चुके टूथपेस्ट के ट्यूब को बेलन से रगड़कर पेस्ट निकालने की कोशिश करता है. पैसे बचाने के लिए बच्चे को हिंदी मीडियम स्कूल में पढ़ाता है. भंडारे में ले जाकर परिवार को खाना खिलाता है. यहां तक कि अगरबत्ती भी जलाकर बुझा देता है, ताकि वो कई दिनों तक चल सके. इस तरह जमुना कंजूसी की पराकाष्ठा पार कर चुका है. इससे उसका पूरा परिवार परेशान रहता है. लेकिन एक दिन जमुना के बारे एक खुलासा होता है, जो सबकी राय उसके प्रति बदल देता है.

दरअसल, जमुना हर रात घर से बाहर जाता है. एक दिन उसके घरवाले उसका पीछा करते हैं. तब उनको पता चलता है कि वो थाने में एक जगह कुछ पैसे ले जाकर छुपाता है. घरवाले उससे पैसों से भरा बॉक्स ले लेते हैं. उसमें से 80 हजार रुपए निकलते हैं. उसे देखकर सभी जमुना पर बरस पड़ते हैं. तब जाकर जमुना बताता है कि वो ये पैसे अपने माता-पिता को चारों धाम की यात्रा में भेजने के लिए एकत्र कर रहा था. ये सुनकर सबकी आंखें भीग जाती हैं. यही से कहानी का ट्रैक कॉमेडी से ट्रेजेडी की ओर चल पड़ता है. जमुना अपने माता-पिता को चारों धाम की यात्रा के लिए भेज देता है. लेकिन कुछ दिन बाद पता चलता है कि केदारनाथ धाम में आई प्राकृतिक आपदा में कई लोग मारे गए हैं. इसमें गंगा और सरस्वती भी लापता हो जाते हैं. सरकार उनको मृतक मानकर मुआवजा देने का ऐलान कर देती है.

हर एक लापता व्यक्ति के लिए 7 लाख रुपये दिए जाने होते हैं. ऐसे में जमुना को उसके माता-पिता के लापता होने पर 14 लाख रुपए मिलने होते हैं. लेकिन सरकारी अधिकारियों की घपलेबाजी की वजह से उसे मजबूरन 10 लाख रुपए ही लेने पड़ते हैं. इन पैसों से वो अपने माता-पिता की सारी अधूरी इच्छाएं पूरी करता है. लेकिन एक दिन उसके माता-पिता अचानक घर पहुंच जाते हैं. उन्हें देखकर जमुना और उसकी पत्नी हैरान रह जाते हैं. अब सवाल खड़ा होता है कि मुआवजे की रकम का क्या होगा? यदि गंगा और सरस्वती के जीवित होने की बात बाहर आ गई तो सरकार क्या करेगी? जमुना को मुआवजे के महज 10 लाख मिले हैं, यदि इन पैसों को लौटाना पड़े तो वो कितना लौटाएगा, क्योंकि 4 लाख तो सरकारी घपलेबाज खा चुके हैं? इन सभी सवालों के जवाब के लिए फिल्म देखनी चाहिए.

सरकारी तंत्र में भ्रष्टाचार नीचे से ऊपर तक दीमक की तरह व्यवस्था को खोखला कर रहा है. लेकिन इतना अंदर तक अपनी पैठ बना चुका है कि कोई कुछ भी कर ले, इसके खिलाफ लड़ाई बहुत मुश्किल है. भ्रष्टाचार जैसा सामाजिक मुद्दा गरीबी और महंगाई तरह सतत बना रहता है. ऐसे में इस विषय को उठाकर फिल्म के मेकर ने अच्छा काम किया है, लेकिन इसका निष्पादन वैसा नहीं हो पाया, जैसा कि अपेक्षित था. दरअसल, फिल्म के लेखक ये तय ही नहीं कर पाते हैं कि उन्होंने लिखना क्या है. ऐसा लगता है कि उन पर एक कॉमेडी फिल्म लिखने का दबाव रहा होगा, लेकिन उनके अंदर एक सामाजिक फिल्म बनाने का कीड़ा होगा. ऐसी परिस्थिति में कई बार अच्छे व्यंग्य लिखे जाते हैं, लेकिन फिल्म 'कंजूस मक्खीचूस' की कहानी में व्यंग्य कहीं नजर नहीं आता, न पटकथा के स्तर पर न ही संवाद के.

फिल्म 'कंजूस मक्खीचूस' के कलाकारों के अभिनय प्रदर्शन की जहां तक बात है तो हर किसी ने अपने किरदार को अच्छे निभाया है. एक कंजूस लेकिन माता-पिता के भक्त बेटे के किरदार में कुणाल खेमू अच्छे लगे हैं, लेकिन उन्होंने इतनी ज्यादा कॉमेडी फिल्में और वेब सीरीज कर ली हैं कि उनको किसी गंभीर किरदार में पचा पाना मुश्किल होता है. 'मिर्जापुर' जैसी क्राइम थ्रिलर वेब सीरीज में दबंग लड़की के किरदार में नजर आ चुकी श्वेता त्रिपाठी इस फिल्म में एक घरेलू महिला के रोल में हैं. दोनों भूमिकाएं अपने नेचर में एक-दूसरे के अपोजिट हैं. ऐसे में पिस्तौल चलाती लड़की के हाथ में बेलन देखना गंवारा नहीं होता. पीयूष मिश्रा और अलका अमीन को उनके नेचर के हिसाब से सही किरदार मिला है और उन्होंने उसे दमदारी से निभाया भी है. दिवंगत कॉमेडियन और एक्टर राजू श्रीवास्तव एक बाबू की भूमिका में हैं. उनके जैसे बेहतरीन कलाकार को इससे अच्छे रोल दिए जाने चाहिए थे. कम से कम भ्रष्ट अफसर का रोल भी दे दिया जाता तो ठीक था. कुल मिलाकर, 'कंजूस मक्खीचूस' एक औसत दर्जे की फिल्म है. लेकिन यदि आप राजू श्रीवास्तव जी के फैन हैं. उनकी आखिरी फिल्म में उन्हें एक्टिंग करते हुए देखना चाहते हैं, तो आप इस फिल्म को एक बार देख सकते हैं.

  

लेखक

मुकेश कुमार गजेंद्र मुकेश कुमार गजेंद्र @mukesh.k.gajendra

लेखक इंडिया टुडे ग्रुप में सीनियर असिस्टेंट एडिटर हैं.

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