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Updated: 08 मार्च, 2021 09:58 AM
मुकेश कुमार गजेंद्र
मुकेश कुमार गजेंद्र
  @mukesh.k.gajendra
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सिनेमा समाज का दर्पण का होता है. समय के साथ जैसे-जैसे समाज बदलता है, उस दौर का सिनेमा भी बदल जाता है. एक वक्त था जब फिल्मों में महिलाएं केवल शो पीस हुआ करती थीं. नायक की प्रेमिका, मां और बहन के रूप में उनकी पहचान थी. सिनेमा के पहले 10 वर्षों में बनी सारी फिल्में धार्मिक विषयों पर आधारित थीं. उनमें महिलाएं देवियों की तरह व्यवहार करती थीं. कैकेयी और मंथरा जैसे पात्र बुरी महिलाओं की पहचान बन गए.

महात्मा गांधी, राजा राम मोहन रॉय और दयानंद सरस्वती जैसे समाज सुधारकों की वजह से समाज बदला, तो सिनेमा भी बदलने लगा. साल 1937 में फिल्ममेकर शांताराम ने 'दुनिया ना माने' बनाई. इसमें बुजुर्ग विधुर से शादी करके आई 17 साल की लड़की उसे अपने शरीर को हाथ लगाने नहीं देती. इस बेमेल शादी को नाजायज़ मानती है. उसका विरोध उस दौर में हो रहे बेमेल शादी के खिलाफ कड़ा संदेश था. सिनेमा का समाज पर गहरा प्रभाव होता है.

shridevi_650_030721093032.jpgसाल 2012 में आई फिल्म 'इंग्लिश विंग्लिश' में एक गृहणी की इन्हीं समस्याओं को बहुत बारीकी से दिखाया गया है.

स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान देशप्रेम जोरो पर था. आजादी की लड़ाई में महिलाओं ने भी बढ़-चढ़कर अपनी भूमिका निभाई. साल 1947 में देश आजाद हुआ. उसके बाद प्रोड्यूसर-डायरेक्टर महबूब खान ने साल 1956 में फिल्म 'मदर इंडिया' बनाई. इसमें एक्ट्रेस नरगिस राधा नामक महिला का लीड रोल किया था. फिल्म में राधा अपने सबसे लाडले विद्रोही बेटे को गोली मार देती है, क्योंकिं वह गांव की लाज को विवाह मंडप से उठाकर भाग रहा था.

नरगिस द्वारा अभिनीत इस पात्र का प्रभाव हम फिल्म दीवार में निरूपा रॉय अभिनीत मां की भूमिका में देख सकते हैं. दरअसल युवा नायिका की तुलना में मां के पात्र को फिल्मों में ज़्यादा सशक्त बनाया गया. लेकिन समय के साथ एक बार फिर महिलाओं की स्थिति बदली और हमारे सामने दामिनी, लज्जा, डोर, वाटर, क्वीन, पिंक, इंग्लिश विंग्लिश और लिपस्टिक अंडर माई बुर्का जैसी फिल्में आईं, जिन्होंने महिलाओं को एक अलग अंदाज में पेश किया.

International Women Day पर आइए बॉलीवुड की टॉप 5 ऐसी फिल्मों के बारे जानते हैं, जो महिला सशक्तिकरण का सशक्त संदेश देती हैं...

1. फिल्म- क्‍वीन (Queen)

हिन्दी सिनेमा में पहले पुरुषों के नजरिए से ही फिल्मों में महिलाओं के पात्र गढ़े जाते थे. हीरोइनों की भूमिकाओं में अक्सर पुरुष के मिथ्या अहंकार का असर स्पष्ट नजर आता था. साल 2014 में आई फिल्म 'क्‍वीन' ने तमाम मान्यताओं को धाराशाई कर दिया. फिल्म में मॉडर्न जमाने की एक सीधी-सादी लड़की की एक खूबसूरत कहानी रोचक है, जो माता-पिता की मर्जी से शादी करना, पति की मर्जी से अपने जीवन के फैसले लेने को ही अपना धर्म मानती है. फिल्म में मजेदार ट्वीस्ट तब आता है, जब लड़का शादी करने के लिए मना कर देता है. वो लड़की अकेले हनीमून पर निकल जाती है.

इस फिल्म में कंगना रनौत और राजकुमार राव मुख्य भूमिका थे. रानी (कंगना रनौत) 24 साल की पंजाबी लड़की है, जो दिल्‍ली में रहती है. उसका परिवार रूढिवादी विचारों का पोषक है. हर वक्त पिता और भाई उस पर नजर रखते हैं. रानी की जिंदगी में तब तूफान आ जाता है, जब उसका मंगेतर (राजकुमार राव) उससे अपनी सगाई तोड़ देता है. वह परेशान हो जाती है, लेकिन इन परिस्‍थितियों में विलाप करने की बजाए जिंदगी में आगे बढ़ने का निर्णय लेती है. एम्स्टर्डम से पेरिस तक हनीमून यात्रा के दौरान उसे जिंदगी की कई नई सीख मिलती है, जो एक महिला के जीवन के मायने बदल देती है.

2. इंग्लिश विंग्लिश (English Vinglish)

आजाद भारत में गुलामी के कुछ अंश आज भी मौजूद हैं. जैसे कि अंग्रेजी भाषा का ज्ञान. यदि आपको अंग्रेजी नहीं आती है, तो आपका सर्वाइवल मुश्किल है. खासकर उस दौर में जब आपको बच्चे इंग्लिश कॉन्वेंट स्कूल में पढ़ते हों. एक हाउस वाइफ के लिए तो और भी मुश्किल है. साल 2012 में आई फिल्म 'इंग्लिश विंग्लिश' में एक गृहणी की इन्हीं समस्याओं को बहुत बारीकी से दिखाया गया है. इसमें हाउस वाइफ शशि गोडबोले की भूमिका श्रीदेवी ने निभाई थी. इसमें दिखाया गया है कि एक अच्छी पत्नी और मां होने के बाद भी बच्चे और पति अच्छी अंग्रेजी नहीं बोल पाने के चलते उसे नीचा दिखाते हैं.

इसी बीच शशि अपनी बहन की बेटी की शादी के लिए न्यूयॉर्क जाती है. वहां उसका परिचय ऐसे कई लोगों से होता है जिनको अंग्रेजी नहीं आती. इसको लेकर न उनमें शर्मिंदगी है, न ही उनका मजाक बनाया जाता है. भारत, स्पेन, चीन, फ्रांस से आए लोग अमेरिका में रहने के लिए अंग्रेजी सीखते हैं. शशि भी अंग्रेजी सीखने का फैसला करती है. एक कोचिंग सेंटर में दाखिला लेती है. धारा प्रवाह अंग्रेजी सीखकर सबको चकित कर देती है. इस फिल्म में एक महिला के उस सशक्त पक्ष को दिखाया गया है, जो अपनी हर भूमिका मजबूती से निभाती है. अपने पर आती है, तो कुछ भी कर सकती है.

3. दामिनी (Damini)

तारीख पे तारीख...तारीख पे तारीख…तारीख पे तारीख और तारीख पे तारीख मिलती रही है…लेकिन इंसाफ़ नही मिला माई लॉर्ड इंसाफ़ नही मिला…मिली है तो सिर्फ ये तारीख...साल 1993 में आई फिल्म दामिनी का ये डायलॉग आज भी लोगों की जुबान पर है. इसमें ऋषि कपूर, सनी देओल और मीनाक्षी शेषाद्री मुख्य भूमिका में थे. फिल्म दामिनी एक ऐसी महिला की कहानी है, जो सच और इंसाफ की लड़ाई में अपने प्यार, पति और परिवार सबकुछ दांव पर लगा देती है. दामिनी की शादी एक अमीर परिवार में होती है, यहां वह अपने जेठ के खिलाफ खड़ी हो जाती है, जो घर की नौकरानी का रेप कर देता है.

दामिनी के इस फैसले का उसका पूरा परिवार विरोध करता है. पति साथ तो देता है, लेकिन परिवार के खिलाफ नहीं जा पाता. इधर दामिनी लगातार रेप पीड़िता की मदद करती है. उसे न्याय दिलाने के लिए अपने ससुराल तक को छोड़ देती है. एक तरफ पैसा और पॉवर, दूसरी तरफ एक पीड़ित महिला के लिए दूसरी महिला की जंग. आखिरकार जीत दामिनी की होती है. इस फिल्म ने हर किसी को झकझोर दिया था. लंबे समय तक लोगों के जेहन में बनी रही थी. आपको याद होगी 16 दिसंबर, 2012 में दिल्ली में हुई दरिंदगी, उस पीड़िता को भी दामिनी नाम दिया गया था. दामिनी इंसाफ की प्रतीक है.

4. लज्जा (Lajja)

रामायण में सीता के किरदार को एक आदर्श महिला, पत्नी, पुत्री और मां के रूप में दिखाया गया है. मैथिली, जानकी, रामदुलारी और वैदेही, सीता के ही पर्याय हैं. साल 2001 में आई फिल्म लज्जा में मुख्य चार महिला किरदारों के नाम यही होते हैं. राजकुमार संतोषी द्वारा निर्देशित इस फिल्म में भारतीय महिलाओं की दुर्दशा को दिखाया गया है. मनीषा कोइराला मुख्य भूमिका में हैं, अन्य प्रमुख भूमिकाओं में माधुरी दीक्षित, रेखा, महिमा चौधरी, अनिल कपूर और अजय देवगन शामिल हैं. अलग-अलग परिवेश, परिस्थिति और हैसियत की चारों महिलाओं की कहानी इस फिल्म के जरिए दिखाया गया है.

वैदेही (मनीषा कोइराला) और रघु (जैकी श्रॉफ) पति पत्नी हैं. रघु वैदेही के साथ अभद्र व्यवहार करके उसे घर से बाहर निकाल देता है. रघु बाप नहीं बन सकता, लेकिन वैदेही गर्भवती है. मैथली (महिमा चौधरी) दहेज़ के लोभी अपने ससुराल वालों को अपनी शादी से भगा देती है. इसके बाद खुद घर छोड़कर चली जाती है. जानकी (माधुरी दीक्षित) एक अविवाहित मां है. उसका प्रेमी शादी से मना कर देता है. वह अकेले हो जाती है. रामदुलारी (रेखा) गांव की दाई होती हैं. गांव के गुंडों वीरेंद्र (गुलशन ग्रोवर) और गजेंद्र (डैनी डेन्ज़ोंपा) का विरोध करती है, जो निर्दोष महिलाओं, युवा और बूढ़े लोगों का शोषण करते हैं. ये फिल्म भारतीय समाज में महिलाओं के प्रति किए जा रहे गलत व्यवहार को उजागर करती है. लोगों की आंखें खोल देती है.

5- मदर इंडिया (Mother India)

'पति नहीं है तो क्या मैं तो हूं, बच्चों के सिर पर पिता का साया नहीं है तो क्या मां तो है, हालात साथ नहीं हैं तो क्या हौसला तो है'...साल 1957 में आई फिल्म मदर इंडिया का ये डायलॉग उस दौर में महिला सशक्तिकरण का सशक्त संदेश देता है. एक महिला अपने पिता के बिना भी अपने बच्चों की परवरिश कर सकती है, पहले भारतीय समाज में ऐसी सोच नहीं थी. पितृसत्तात्मक समाज में पुरुष ही परिवार की परवरिश करता था. लेकिन मदर इंडिया ने इस मिथक को तोड़ा. महिलाओं को एक नए रूप में समाज के सामने पेश किया. यही वजह है कि ये फिल्म सबसे ज्यादा चर्चित रही है.

फिल्म 'मदर इंडिया' कहानी राधा (नरगिस) की है, जो नवविवाहिता के रूप में गांव आती है. घर-गृहस्थी की जिम्मेदारियां उठाने में पति के साथ कंधे से कंधा मिलाकर चलती है. सुखी लाला (कन्हैयालाल) से लिए गए कर्ज के जाल में परिवार फंस जाता है. खेती मौसम के रहमो-करम पर निर्भर है. गरीबी साया बनकर पीछे पड़ी हुई है. ऐसे में दुर्घटना में अपने दोनों हाथ गंवाने के बाद स्वयं को बोझ मानकर शर्मिंदा पति श्यामू (राज कुमार) भी साथ छोड़ जाता है. अकेली राधा सारी विपरीत परिस्थितियों से लड़ती है. उसकी खूबियों को देखकर उसे गांव वाले न्याय का प्रतीक और भगवान की तरह मानते हैं. अपने सिद्धांतों के प्रति सच्ची रहते हुए, वह इंसाफ के लिए गलत रास्ते पर जा रहे अपने बेटे की जान लेने से भी पीछे नहीं हटती है.

International Women Day पर देखिए खास पेशकश, हमसे है जमाना...

लेखक

मुकेश कुमार गजेंद्र मुकेश कुमार गजेंद्र @mukesh.k.gajendra

लेखक इंडिया टुडे ग्रुप में सीनियर असिस्टेंट एडिटर हैं.

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