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Updated: 05 अक्टूबर, 2022 06:21 PM
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राक्षसी प्रवृत्तियों का संहार ही सनातन प्रक्रिया है. और ऐसा नहीं है कि राक्षसी प्रवृत्तियों का कोई निश्चित भूगोल, देशकाल और पेशा होता है. यह हर जगह संभव है. जहां सही चीजें रहती हैं, वहां तमाम निजी स्वार्थ गलत चीजों की गुंजाइश बना देते हैं. गलत चीजें हैं तो उसके अधिपति या स्वामी भी होंगे निश्चिततौर पर हर तरह के अन्याय अधर्म और शोषण का अधिपति ही 'रावण' है. रावण, दशानन है. ना तो उसका कोई एक चेहरा है ना ही रूप रंग. सवाल बस इतना है कि गलत चीजों का निरंतर संहार हो रहा है या नहीं. गलत चीजों के खिलाफ साधारण लोगों की वानर सेना मुकाबले में डटी है कि नहीं. बॉलीवुड बहुत व्यापक, ताकतवर और क्षमतावान है. उसमें कई खूबियां हैं, लेकिन उसी के कारण बुराइयों ने भी घर बना लिया है. राक्षसी प्रवित्तियां के अधिपति अनेकों दशानन हो सकते हैं.

स्वाभाविक है कि बॉलीवुड के दशानन बेशुमार ताकत रखते हैं. और बायकॉट बॉलीवुड के तमाम अभियान में रावणों की राक्षसी प्रवृत्तियों के संहार की कोशिश करने वाले साधनहीन, बेहद साधारण लोग हैं. राम और उनकी वानरी सेना भी तो साधनहीन और साधारण थी. अच्छी बात है कि बॉलीवुड के अधर्म और बुराई का नाश करने वाली राम की सेना अपने महाभियान से एक अंगुल भी पीछे नजर नहीं आ रही. बॉलीवुड के रावण झुक रहे हैं. टूट रहे हैं. बिलख रहे हैं. उनके झूठ, माया, अहंकार, नशाखोरी, चोरी, जबरदस्ती, अन्याय, उत्पीडन के महापाप का घड़ा भर चुका है. बायाकॉट ही ऐसे रावणों का संहार है.

adipurushआदिपुरुष में रावण का किरदार.

बॉलीवुड ने 'झूठ' का सहारा लेकर तमाम चीजें गढ़ी. भारत-पाकिस्तान के प्रेम पर बनी बॉलीवुड की दर्जनों फ़िल्में उठा लीजिए. इन फिल्मों को देखकर लगता है कि भारत के कुछ नेता नहीं चाहते कि संबंध सामान्य बना रहे. पाकिस्तान में भी कुछ नेता और आतंकी चीजों को सामान्य नहीं रहने देना चाहते. ऐसी फिल्मों में दिखाया गया कि दोनों देशों की अवाम उलटा सोचती है और खुद को एक-दूसरे के नजदीक पाती है. शाहरुख खान की 'मैं हूं ना' और अमिताभ बच्चन की 'हिंदुस्तान की कसम' में तो दोनों देशों की सेनाओं के आला अफसर दोनों देशों के संबंध को मधुर बनाना चाहते हैं. बजरंगी भाईजान की मदद के लिए समूचा पाकिस्तान एकजुट हो जाता है. कभी ऐसी चीजें दिखीं क्या? फिर ऐसे झूठ के महिमागान की भला क्या जरूरत.

झूठ की बुनियाद पर टिके बॉलीवुड की मसाला फ़िल्में उस दौर में बनाई जा रही हैं जब ऐसा कोई महीना नहीं निकल रहा होता, जिसमें कश्मीर से कन्याकुमारी तक पाकिस्तान पोषित आतंकी हमले ना हो रहे हों. बेगुनाह ना मारे जा रहे हों. देश के अलग-अलग हिस्सों में घाटी से शहीदों के शव ना पहुंच रहे हों. लेकिन बॉलीवुड की फिल्मों का रावण पता नहीं किस मकसद से देश का जनमत बदलने के लिए चीजों पर मानवता का फ़िल्मी चादर डालता नजर आता है. बिना थके, बिना रुके और लगातार.

90 के दौर में कुछ बड़े प्रोडक्शन हाउसेस ने तो कमाल ही कर दिया था. रावण जैसे 'माया' में माहिर था बॉलीवुड में भी मायावी चीजें दिखती हैं. अमेरिका में ट्विन टावर्स पर हमलों के बाद वहां की जेलों में एक समुदाय विशेष भर गया. उनका कथित उत्पीडन भी किया गया. भारत पर तो ऐसे हमले सालों से आम थे. लेकिन शाहरुख खान एक फिल्म लेकर आते हैं और भारत के मुसलमानों की पीड़ित छवि पेश करते दिखते हैं- 'माई नेम इज खान एंड आई एम नॉट अ टेररिस्ट.'

जॉन अब्राहम की न्यूयॉर्क भी देख लीजिए. वह फिल्म अमेरिकी मुसलमान को संदेश दे रही है या फिर भारतीय मुसलमानों को. इस दौर की तमाम अन्य बड़ी फिल्मों को ही उठा लीजिए. बेशुमार माया दिखेगी. उन्हें देखने पर लगेगा कि भारत में हर तरफ संपन्नता की गंगा बह रही है. नायक-नायिका विश्व नागरिक नजर आते हैं. जबकि वह दौर ऐसा है कि देश में गरीबी, महंगाई और राजनीतिक भ्रष्टाचार से जनता लाचार है. मगर बॉलीवुड की माया ने ऐसा मकड़जाल बुना कि लोग अपनी फिल्मों में वक्त की हकीकत का साक्षात्कार ही नहीं कर पाए.

एक तरफ कश्मीर में धार्मिक वजहों से नरसंहार किया जा रहा है और बॉलीवुड 'हिना' (ऋषि कपूर) और फ़ना (आमिर खान) बना रहा है. एक फिल्म में भारत पाकिस्तान में महान प्रेम कहानी दिखाई जा रही है और दूसरी फिल्म में एक आतंकी को रूमानी बनाकर पेश किया जा रहा है. क्या इसे बॉलीवुड में मायावी ताकत का जोर नहीं कह सकते जो माया के जरिए चीजों को बदलने की कोशिश में दिखती है.

उस पर भी राक्षसी दंभ में चूर 'अहंकार' ऐसा कि सवाल उठाने वालों को कहा जाता है क्या कर लोगे? इंडस्ट्री में सवाल उठाने वाले भुखमरी की कगार पर आ गए. ना जाने कितने लोगों के करियर ख़त्म हो गए और ना जाने कितने लोगों को गले में गुलामी का पट्टा डालना पड़ा. हमारी फ़िल्में पसंद ना आए तो मत देखो. निर्माता-निर्देशक से लेकर एक्टर्स तक काम हिंदी में कर रहे हैं मगर उनकी जुबान से हिंदी के शब्द निकलना मुश्किल है. सरेआम एक आबादी विशेष का सार्वजनिक मजाक उड़ाया जा रहा है. उन्हें डीफेम किया जा रहा है. साउथ के किसी भी सितारे को देख लीजिए. रजनीकांत जैसा स्टार भी तमिलनाडु में तबतक तमिल बोलता नजर आता है जबतक कि उससे दूसरी भाषा में प्रतिक्रिया ना मांगी जाए. हिंदी की रोटी खाने वाले बॉलीवुड के सितारों को हिंदी भी बोलने में शर्म आती है.

और उनके अहंकार का आधार रावण की तरह कितना खोखला है? चोरी और घटिया नक़ल. यह अपहरण नहीं तो और क्या है. कलात्मकता के नाम पर हॉलीवुड की दर्जनों फिल्मों की चोरी की गई. गाने चुराए जा रहे हैं. संगीत चुराया जा रहा है. मनमानी की जा रही है. बॉलीवुड में ही एक दूसरे पर चोरी के आरोप लगाए जा रहे हैं. तुर्रा ये कि उसे कला के नाम पर महान बताकर बेंचा भी जा रहा है. सांठगांठ से राष्ट्रीय पुरस्कारों तक की मुहर चोरी के कामों पर लग रही है. रावण की ऐसी लंका जहां उसे कोई चुनौती देने वाला नहीं है कोई सवाल उठाने वाला नहीं है. मंदोदरी, मेघनाद, कुम्भकर्ण- असहमत हैं लेकिन रावण पर आश्रित हैं तो उसका साथ कैसे छोड़ें. बॉलीवुड में खाली बैठकर पेट तो भरेगा नहीं. कुम्भकर्णों को अपना भी अंजाम मालूम है मगर बॉलीवुड के रावण को बचाते नजर आते हैं.

अंडरवर्ल्ड के पैसों से फिल्म बन रही है. अंडरवर्ल्ड की 'जबरदस्ती' रावण की जबरदस्ती ही थी. टीसीरीज के संस्थापक गुलशन कुमार की हत्या क्यों हुई? उनकी गलती क्या थी. बस उन्होंने देश के कोने-कोने से प्रतिभाओं को तराश कर निकाल दिया. कचरे के डिब्बे में पड़ी दर्जनों भाषाओं जिसे घृणा का विषय बना दिया गया, लोग सार्वजनिक व्यवहार से बचते थे- उसे कला और व्यावसायिक रूप देकर हीरा बना दिया. एक धर्म के लिए गीत संगीत भजन जनता के बीच आंदोलन का रूप धर लिया. गीत संगीत फिल्मों को ना तो अभिजात्य का साधन रहने दिया और अभिजात्य के नियंत्रण को भी एक झटके में ध्वस्त कर दिया. गुलशन कुमार की हत्या बॉलीवुड में मामूली घटना नहीं है.

भाई भतीजावाद को अन्याय के रूप में नहीं देखा जा सकता क्या? रावण ने भी तो बहन की जिद में अंधा होकर अधर्म के रास्ते पर बढ़ा था. ना जाने कितने क्षमतावान कलाकारों के रास्ते बॉलीवुड में बंद कर दिए गए. सिर्फ इसलिए कि मनोरंजन के कारोबार पर कुछ परिवारों और समुदायों का दबदबा बना रहे. उसमें नए लोग ना आए. आएं भी तो मठाधीशों की शर्तों पर. गुलामों की तरह. वह जैसे और जितनी जगह दे उसमें गुजारा करें. उससे आगे की ना सोचे भले ही उनमें कितनी ही काबिलियित क्यों ना हो?  उलटे अपने बेटे बेटियों को एक पर एक असफलता के बावजूद मौके दिए जा रहे हैं. यह अधर्म नभी रावणी ही है.   क्या यह राक्षसी प्रवृत्तियों का उत्पीड़न नहीं है कि काम देने के बदले बॉलीवुड में यौन शोषणों का अंतहीन सिलसिला चलता रहा. अभी कुछ ही साल पहले तनुश्री दत्ता ने जब अपना दुखड़ा रोया, समूचे बॉलीवुड का मवाद फूट-फूटकर बाहर रिसने लगा. ऐसे चेहरे भी दागदार होकर सामने आए कि यकीन ही नहीं हुआ- यू टू ब्रूट्स टाइप. तमाम चेहरों को लोग संत समझते थे. संतों के कुकर्मों ने समूचे देश को घिन से भर दिया. नशाखोरी पर क्या ही कहा जाए. सुशांत सिंह राजपूत की मौत के बाद लोगों ने क्या क्या नहीं देखा.

और जब बॉलीवुड की अंतहीन राक्षसी प्रवृत्तियों को देखते हैं- तो लगता है कि यह ठीक ही है कि बॉलीवुड के रावण पर राम की सेना के रूप में दर्शकों का बहुत बड़ा धड़ा पाप के हद तक जाने के बाद उसके संहार के लिए खड़ा हो ही जाता है और बायकॉट बॉलीवुड का नारा देता है. राम की साधारण वानर सेना का लोकतांत्रिक स्ट्राइक देखिए- बॉलीवुड के रावणों का अमृत सूख चुका है. लेकिन वे मरे नहीं हैं. नजर रखिए. जब भी राक्षसी प्रव्रित्तियां सिर उठाए उन्हें बार बार हर बार कुचलना होगा.

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