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Updated: 22 अप्रिल, 2022 05:04 PM
आईचौक
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बॉलीवुड के सामने दक्षिण भारतीय फिल्मों की सफलता कई दिनों से बहस में और उसे लेकर तमाम तरह के विश्लेषण भी लगातार देखने पढ़ने को मिल रहे हैं. आईचौक ने भी अपने ऐसे ही एक हालिया विश्लेषण में बताने की कोशिश की थी कि केजीएफ़ 2 समेत कई फिल्मों की सफलता से यह साबित किया जा सकता है कि बॉलीवुड की असफलता के पीछे हिंदी पट्टी में उसके प्रति घृणा ही एकमात्र वजह नहीं है. आईचौक के विश्लेषण से कुछ लोग इत्तेफाक रखते हैं जबकि कई लोगों ने अलग प्रतिक्रियाएं दीं और बताया कि क्यों बॉलीवुड से लोग नफ़रत से भरे नजर आते हैं.

इसमें कोई शक नहीं कि सुशांत सिंह राजपूत आत्महत्या मामले के बाद बॉलीवुड के प्रति घृणा एक बड़ी वजह के रूप में दिखती है. लेकिन दूसरी चीजें ज्यादा अहम हैं. कंटेंट, उसका प्रस्तुतिकरण, और रोज बदल रही दुनिया में राजनीति से निकलने वाले संवाद. गौर करें तो बॉलीवुड फिल्मों का फैमिली एंटरटेनर ना हो पाना और भारत के ख़ास केन्द्रों पर फोकस होना भी बड़ी वजह के रूप में नजर आ रहा है. इसे ज्यादा सैद्धांतिक रूप से देखने की जरूरत है.

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इसमें बॉलीवुड के मुकाबले दक्षिण के फिल्मों की सफलता का मंत्र भी नजर आता है. दक्षिण की फिल्मों ने मास ऑडियंस वाले इलाकों और टियर 2 टियर 3 शहरों में जोरदार प्रदर्शन किया है. महानगरों में भी इन फिल्मों को टियर 2 और टियर 3 की विस्थापित ऑडियंस ने ही हाथों हाथ लिया है. पुष्पा, आरआरआर हो या केजीएफ 2. दिल्ली मुंबई जैसे महानगरों में इसे उसी ऑडियंस ने पसंद किया है जो देश के छोटे छोटे शहरों, कस्बों या ग्रामीण इलाकों से आती हैं. मसलन पटना, इलाहाबाद, पानीपत, भोपाल या ऐसे ही शहरों से महानगर पहुंचे लोग. साउथ ने ऑडियंस के इसी बेस को ज्यादा फोकस किया हुआ है जो उनकी अधिकांश फिल्मों में नजर भी आता है. वैसे दक्षिण में भी उनके अपने महानगरीय ऑडियंस के लिए गंभीर विषयों पर फ़िल्में बन रही हैं लेकिन उनकी संख्या बहुत मामूली है.

बॉलीवुड में दक्षिण से उलटा क्या चल रहा है?

बॉलीवुड में यह ठीक उलटा नजर आता है. बॉलीवुड के कंटेंट में टियर 2 और टियर 3 ऑडियंस को फोकस करने वाली फ़िल्में कम बन रही हैं. बड़े स्केल पर तो लगभग नहीं ही बनाई जा रही हैं. अब एक दो साल से सिलसिला बढ़ता दिखता है. लेकिन जब बनती हैं तो सिंघम, सूर्यवंशी या केसरी के रूप में उनका बेहतर रिजल्ट सामने होता है. टियर 2 और टियर 3 ऑडियंस की शिकायत है कि बॉलीवुड फ़िल्में "फैमिली एंटरटेनर" नहीं हैं. यानी इन फिल्मों को परिवार के साथ बैठकर नहीं देखा जा सकता. उसमें अश्लीलता या ऐसे दृश्य नजर आते हैं जिसे लेकर हिंदी का परंपरागत दर्शक सामजिक-आर्थिक रूप से तैयार नहीं है.

उदाहरण के लिए यहां बॉलीवुड की हालिया पिछली दो तीन फिल्मों को लिया जा सकता है. राजकुमार राव और भूमि पेडणेकर की बधाई दो, आयुष्मान खुराना की चंडीगढ़ करे आशिकी, दीपिका पादुकोण की गहराइयां और नेटफ्लिक्स की कोबाल्ट बल्लू. सभी फ़िल्में पिछले दो तीन महीनों के दौरान आई हैं. इन फिल्मों में गे, लेस्बियन संबंधों की बेहतरीन कहानियां हैं. अपने दौर की सच्चाई समेटे हुए. मगर दुर्भाग्य यह है कि समाज के अंदर एक परिपक्व दर्शक वर्ग ही इन्हें मनोरंजन के रूप में लेने को तैयार है. महानगरीय समाज में भी दो समूह है. एक समूह तो इसे सामान्य फिल्मों की तरह ही लेता है और फैमिली के साथ देखने में भी संकोच, शर्म या झिझक नहीं महसूस करता.

हिंदी दर्शकों की हिचक को दक्षिण ने जमकर भुनाया

लेकिन महानगर के इसी वर्ग में एक दूसरा समूह भी है जो इसे अकले या अपनी फ्रेंडलॉबी के साथ देखने में सहज महसूस करता है. फैमिली के साथ देखने को लेकर संकोच बरतता है. बॉलीवुड निर्माताओं को लगा कि विक्की डोनर और बधाई हो जैसी फिल्मों की सफलता के बाद वे कॉमेडी में रची बसी फ्रेश कहानियों को बेच लेंगे. देखादेखी अंधी रेस शुरू हुई और नतीजे में इस तरह की पिछली तमाम फिल्मों का बॉक्स ऑफिस देखा जा सकता है जिन्हें ख़ास वर्ग और शहरों में देखा गया.

बॉलीवुड फिल्मों में इसका एक और बुरा असर दिखा. ऊपर टैबू टॉपिक्स पर बनी जिन फिल्मों का उदाहरण दिया गया उनका तो पूरा-पूरा विषय ही अलग था. लेकिन दो दशक में बॉलीवुड की सामान्य फिल्मों को देखें तो गे-लेस्बियन, लिव इन के टॉपिक्स को उन फिल्मों में भी छोटे छोटे दृश्यों के जरिए दिखाने की परंपरा नजर आती है जहां उनका औचित्य ही नहीं था. इनका इस्तेमाल कॉमेडी या दूसरे मसालों के रूप में किया गया. पिछले दो दशक की फ़िल्में देखेंगे तो जबरदस्ती कॉमिक सीन्स बनाने के चक्कर में ऐसी चीजों का गैर जरूरी फिल्मांकन देखने को मिल जाएगा. वो भी भरपूर. या तो दो किरदारों में भ्रम के रूप में गे संबंध गढ़े गए या ऐसे सपोर्टिंग गे किरदार ही रख दिए गए.

समय के साथ इन्हीं फिल्मों ने फैमिली ऑडियंस को बॉलीवुड फिल्मों से दूर किया. और दक्षिण ने पिछले पांच छह सालों में बॉलीवुड की इसी कमी को भुना लिया. फैमिली एंटरटेनर के लिए मशहूर फिल्मों के अलग अलग टीवी चैनल पर तो दक्षिण की डब फिल्मों का पूरी तरह से कब्जा हो चुका है. संभवत: इसी तथ्य को भांपकर राजमौली और दूसरे निर्माताओं ने अपनी फिल्मों को हिंदी के व्यापक क्षेत्र में रिलीज किया और आज उसके नतीजे साफ़ दिख रहे हैं.

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