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Updated: 22 मार्च, 2023 09:25 PM
मुकेश कुमार गजेंद्र
मुकेश कुमार गजेंद्र
  @mukesh.k.gajendra
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फिल्म 'आरआरआर' के गाने 'नाटू-नाटू' को ऑस्कर अवॉर्ड मिलने के बाद एक तरफ लोग खुशी मना रहे हैं, तो वहीं दूसरी तरफ कुछ लोग सवाल भी खड़े कर रहे हैं. तेलुगू सिनेमा के एक मशहूर निर्माता-निर्देशक ताम्मा रेड्डी भारद्वाज ने यह कहकर सनसनी फैला दी है कि फिल्म को ऑस्कर दिलाने के लिए 80 करोड़ रुपए खर्च किए गए हैं. उनका कहना है कि जितने पैसे ऑस्कर पाने के लिए खर्च किए गए हैं, उतने पैसों में तो 8 से 10 फिल्में बनाई जा सकती हैं.

'आरआरआर' के प्रोड्यूसर डी. वी. वी. दनय्या ने भी इतने पैसे खर्च करने पर नाराजगी जाहिर की है. उनका कहना है कि कोई भी किसी अवॉर्ड इवेंट के लिए इतने पैसे खर्च करना नहीं चाहेगा. उन्होंने इस बात से भी इंकार किया है कि उनकी तरफ से कोई पैसा खर्च किया गया है. ऐसे में लोग हैरानी जता रहे हैं कि आखिर एसएस राजामौली ने ये पैसे कहां से खर्च किए हैं. क्या सच में किसी फिल्म के ऑस्कर नॉमिनेशन और प्रमोशन के लिए करोड़ों रुपए पैसे खर्च करने पड़ते हैं?

इस सवाल का जवाब यही है कि 'हां' ऑस्कर पाने के लिए पानी की तरह पैसा बहाना पड़ता है. तब जाकर दुनिया का सबसे बड़ा सिनेमा सम्मान हासिल होता है. एक रिपोर्ट के अनुसार, एकेडमी अवॉर्ड इवेंट के दौरान हर साल 100 से लेकर 500 मिलियन डॉलर (करीब 42 अरब रुपए अधिकतम) तक खर्च किए जाते हैं. इसमें ऑस्कर के लिए नॉमिनेट हुई हर एक फिल्म के मेकर को कम से कम 5 से 8 मिलियन डॉलर (67 करोड़ रुपए अधिकतम) प्रमोशन में खर्च करना पड़ता है.

650x400_032223061446.jpgफिल्म 'आरआरआर' को ऑस्कर दिलाने के लिए 80 करोड़ रुपए खर्च किए गए हैं.

सही मायने में कहे तो ऑस्कर अवॉर्ड की यात्रा की शुरूआत ही खर्च के साथ होती है. किसी फिल्म को ऑस्कर के लिए दो तरह से भेजा सकता है. पहला रास्ता सरकारी होता है, दूसरा खुद निजी नॉमिनेशन भी कराया जा सकता है. फिल्म को सरकारी रास्ते से भेजने के लिए पहले फिल्म फेडरेशन ऑफ इंडिया की शरण में जाना होता है. इसके लिए 82 हजार रुपए की फीस ली जाती है. ये पैसे वापस नहीं मिलते. यदि फेडरेशन को फिल्म पसंद आई तो वो भारत की तरफ से ऑफिशियल नॉमिनेट कर देती है.

ऑफिशियल नॉमिनेशन के बाद पूरा खर्च भारत सरकार उठाती है. इसके अलावा फिल्म मेकर्स अपनी तरफ से भी पैसे खर्च करते हैं, ताकि व्यापक प्रमोशन हो सके. इस तरह सरकार और फिल्म के मेकर्स एक साथ पैसे खर्च करते हैं. लेकिन यदि ऑफिशियल नॉमिनेशन नहीं हो पाता है, तो किसी फिल्म को अलग से भेजा सकता है. इसके लिए जनरल नॉमिनेशन मुफ्त में हो जाता है. लेकिन उसके बाद की प्रक्रिया बहुत खर्चीली है. क्योंकि नॉमिनेशन से लेकर रिजल्ट वाले दिन तक 6 महीने का समय लग जाता है.

इस तरह छह महीने अमेरिका के लॉस एंजेलिस जैसे महंगे शहर में फिल्म मेकर्स और उनकी टीम को रहना पड़ता है. इस दौरान नॉमिनेशन के लिए भेजी गई फिल्म के प्रमोशन के लिए एक पीआर टीम हायर करनी पड़ती है. इसकी कीमत 10 हजार से 15 हजार डॉलर तक होती है. फिल्म के विज्ञापन में नॉमिनेशन से पहले 1 मिलियन डॉलर और बाद में 8 लाख डॉलर खर्च करने पड़ते हैं. इसके अलावा टीवी विज्ञापन पर अलग से 1.5 मिलियन डॉलर खर्च करने पड़ते हैं. टैलेंट कॉस्ट 9 लाख डॉलर तक होता है.

फिल्म स्क्रीनिंग में मोटा पैसा खर्च करना पड़ता है

फिल्म की स्क्रीनिंग के दौरान मोटा पैसा खर्च करना पड़ता है. एक फिल्म की कई स्क्रीनिंग होती है. हर स्क्रीनिंग में थियेटर से लेकर ऑस्कर मेंबर्स के खाने-पीने तक का खर्च शामिल होता है. इस दौरान कई बार मेंबर्स को महंगे गिफ्ट भी दिए जाते हैं, ताकि वो फिल्म के पक्ष में वोट करें. हालांकि, ऑस्कर कमेटी की तरफ से ऐसे गिफ्ट देने की मनाही है, लेकिन अंदरखाने में ये परंपरा अभी चली आ रही है. इस तरह स्क्रीनिंग में 1.6 लाख डॉलर तक खर्च हो जाते हैं. डिजिटल स्क्रीनिंग का खर्च 3 लाख डॉलर तक आता है.

ऑस्कर अवॉर्ड के लिए 10 हजार मेंबर वोट करते हैं

एकेडमी अवॉर्ड दुनियाभर में 10 हजार से ज्यादा मेंबर होते हैं. इनमें से अधिकतर अमेरिका के होते हैं. भारत से भी करीब 40 लोग इसके मेंबर हैं. ये मेंबर एडिटिंग, साउंड, वीएफएक्स जैसी अलग-अलग 17 कैटेगरी से जुड़े होते हैं. इनमें से 16 कैटेगरी आर्ट से जुड़ी होती है और 17वीं नॉन टेक्निकल होती है. हर साल इन कैटेगरी से जुड़े मेंबर उन 300 से ज्यादा फिल्मों के लिए वोटिंग करते हैं, जो ऑस्कर की रेस में शामिल होती हैं. इसके बाद वोटिंग के आधार पर 10 अलग-अलग कैटेगरी में फिल्मों का चयन होता है. फिल्में शॉर्ट लिस्ट की जाती हैं और इन पर फिर से वोटिंग होती है. सबसे आखिर में नॉमिनेट फिल्मों की अंतिम लिस्ट तैयार होती है, जिसके आधार पर रिजल्ट तैयार होता है.

पीआर टीम नॉमिनेट फिल्म के लिए माहौल बनाती है

ऑस्कर के नियम के अनुसार उसके मेंबर्स में जिन लोगों ने फिल्म देखी है, वही उसके लिए वोटिंग कर सकता है. यही वजह है कि ऑस्कर के लिए नॉमिनेट की गई फिल्म के मेकर्स कोशिश करते हैं कि ज्यादा से मेंबर्स उनकी फिल्म को देखें और उसके बारे में पॉजिटिव अप्रोच रखें. इसके लिए हायर की गई पीआर टीम फिल्म के पक्ष में माहौल बनाती है. फिल्म की स्क्रीनिंग आयोजित करती है. उस दौरान आने वाले मेंबर्स की खातिरदारी में रिसेप्शन का आयोजन करती है. यानी फिल्म की पूरी मार्केटिंग करनी पड़ती है.

सांसद या विधायक बनने की तरह है ऑस्कर जीतना!

यदि आसान भाषा में ऑस्कर अवॉर्ड पाने की यात्रा को समझना हो तो ये समझ लीजिए कि हिंदुस्तान में जिस तरह से कोई सांसद या विधायक बनता है, उसी तरह कोई फिल्म ऑस्कर में अवॉर्ड जीतती है. यहां भी वोटरों को तमाम तरह के प्रलोभन दिए जाते हैं. उनके सामने लच्छेदार भाषण दिए जाते हैं. गरीबी हटाने और विकास करने के वायदे किए जाते हैं. सत्ताधारी दल अपने द्वारा कराए गए कार्यों को दिखाता और समझाता है. कहीं-कहीं तो पैसे और शराब तक दिए जाते हैं. इसके बाद हासिल किए वोट उन्हें जीत दिलाते हैं.

ऑस्कर अवॉर्ड के लिए जाना कितना खर्चिला काम है?

इसी तरह से ऑस्कर में भी एकेडमी मेंबर्स के रूप में उपस्थित वोटरों को लुभाना पड़ता है. उनके सामने अपनी फिल्म को समझाना पड़ता है. उनको खिलाना-पिलाना और गिफ्ट तक देना पड़ता है. इस प्रक्रिया से समझा जा सकता है कि ऑस्कर अवॉर्ड में जाना कितना खर्चिला काम है. ऐसे में यदि 'आरआरआर' के मेकर्स द्वारा 80 करोड़ रुपए खर्च किए जाने की बात कही जा रही है, तो इसमें कुछ भी गलत नहीं है. जब एक फिल्म के लिए अनुमानित खर्च 67 करोड़ रुपए हो सकता है, तो निश्चित रूप से राजामौली ने 80 करोड़ खर्च किए होंगे.

ऑस्कर अवॉर्ड मिलने के बाद क्या हासिल होता है?

अब सवाल ये खड़ा होता है कि इतने पैसे खर्च करके ऑस्कर में जाने और अवॉर्ड जीतने के बाद क्या हासिल होता है? ज्यादातर लोगों को लगता है कि ऑस्कर की ट्रॉफी के अलावा कुछ भी नहीं मिलता है. ऐसे में बता दें कि इस सम्मान को पाने के बाद किसी फिल्म को 30 लाख डॉलर की अतिरिक्त कमाई हो सकती है. इतना ही नहीं इस अवॉर्ड को पाने के बाद एक एक्टर की कमाई 39 लाख डॉलर तक बढ़ जाती है. इसके अलावा फिल्म से जुड़े प्रमुख लोगों की अंतरराष्ट्रीय पहचान बन जाती है. देश में इज्जत अलग से मिलती है.

लेखक

मुकेश कुमार गजेंद्र मुकेश कुमार गजेंद्र @mukesh.k.gajendra

लेखक इंडिया टुडे ग्रुप में सीनियर असिस्टेंट एडिटर हैं.

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