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बड़ा आर्टिकल  |  
Updated: 06 फरवरी, 2023 07:11 PM
Dileep Kumar Pathak
 
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सफलता पाचन भी एक साधना है. सफलता मिलना आसान है, लेकिन उसको पचाना बहुत मुश्किल होता है. भगवान दादा का एक फ़िल्मी डायलॉग उनकी ही असल ज़िन्दगी को बयां करता है, भगवान दादा कहते हैं "फ़िल्म लाइन में नाम बनते भले ही समय लग जाए, लेकिन नाम मिट्टी में मिल जाने मे ज्यादा वक़्त नहीं लगता".

'भगवान दादा' हिन्दी सिनेमा के शुरुआती दौर के उस्तादों में से एक हैं. उनका हिन्दी सिनेमा में जब पदार्पण हुआ जब भारत में मूक फिल्में बनती थी. हिन्दी सिनेमा के पहले डांसिंग, कॉमेडियन स्टार 'भगवान दादा' ने अपनी कॉमिक टाइमिंग, डांसिंग स्टाइल, अदाकारी को नए तरीके से परिभाषित किया.

सिल्वर स्क्रीन पर भगवान दादा भले ही कभी सुपरस्टार न बन पाए हों, लेकिन उनको कॉपी करते हुए बहुतेरे स्टार सुपरस्टार बन पाने में क़ामयाब हुए. भगवान दादा को देखकर लगता है, जिस स्टार की सफ़लता का पाचनतंत्र ठीक है, वो सिनेमा के आसमां में ज्यादा लंबी एवं दूर तक उड़ान भर सकता है, लेकिन फिल्मी सफलता के बाद अगर स्टारों का सफलता के बाद पाचनतंत्र खराब हो गया, तो हिन्दी सिनेमा के आसमा में गुम हो जाने का ख़तरा होता है, फिर न जमीन नसीब होती और न ही आसमा...

भगवान दादा ने अपनी सफलता से सफलता के सारे कीर्तिमान तोड़ दिए थे, जिनके सफलता की धमक ऐसी की असफ़लता के कान के पर्दे फाड़ दिया. अफ़सोस भगवान दादा के साथ किस्मत ने जब असफ़लता का रिवर्स गियर लगाया, तो असफ़लता की सारी सीमाएं टूट गई. सिल्वर स्क्रीन के नायाब फनकार 'भगवान दादा' ने अपनी मेहनत, प्रतिभा, समर्पण से सफलता की उन बुलन्दियों को छुआ, कि देखने वालों की आंखे चौंधिया जाएं.

भगवान दादा जिन्होंने अपनी ज़िन्दगी की शुरुआत एक छोटे से चॉल से शुरू की , उस दौर में दो आँखों वालों के लिए बंबई में घर बनाना बहुत बड़ा ख्वाब होता था, लेकिन अपनी हवा में बहने अपने शर्तों पर जीने वाले भगवान दादा ने अपनी मेहनत से समुन्दर के तट पर आलिशान बंगले पर शिफ्ट हो गए.

 Bhagwan dada, Hindi Cinema, Icon, Bhagwan Dada songs, Bhagwan dada moviesभगवान दादा अपनी लगन से जल्दी ही हिन्दी सिनेमा एक बड़ा नाम बन गए.

अपने जीवन में सफलता का आसमान छूने पर रुआब ऐसा कि, सप्ताह में रोज के हिसाब से गाड़ियां बदलते थे, एक सप्ताह में जितने दिन होते हैं, उतने ही गाडियों पर भगवान दादा सवार होते थे. भगवान दादा की सफलता का नशा ऐसा कि सिल्वर स्क्रीन पर रुपए उड़ाने का सीन हो तो रुपए भी असली ही होते थे. भगवान दादा ने असफ़लता भी ऐसी देखी कि उस मुकाम पर जीने के बाद आदमी को फिर से अगर चॉल में जीवन बिताना पड़े, तो मानसिक संतुलन बिगड़ सकता है. भगवान दादा अपनी हवा में बहते थे, मुफलिसी के उस दौर में भी कभी किसी से कोई शिकायत नहीं की.भगवान दादा मूक फिल्मों के दौर से गोल्डन एरा शुरू होने से उनकी सफलता से लेकर 90s तक के सिनेमा को उन्होंने नजदीक से देखा था.

मूक फ़िल्मों में ही भगवान दादा को एज एन एक्टर और एज़ एन असिस्टेंट काम करने का मौका मिल गया. भगवान दादा ने अपनी लगन से जल्दी ही हिन्दी सिनेमा एक बड़ा नाम बन गए. भगवान दादा ही हिंदी फिल्मों के पहले एक्शन हीरो भी थे. फिल्मों में मुक्कों से लड़ाई वाले दृश्यों की शुरूआत उन्होंने ही की थी. भगवान दादा उस ज़माने के हॉलीवुड स्टार डगलस फेयरबैंक्स के बहुत बड़े फैन थे. उन्हीं से प्रभावित होकर ही भगवान दादा अपने सभी स्टंट्स खुद परफॉर्म किया करते थे.

भगवान दादा के स्टंट्स इतने रियल होते थे कि राज कपूर तो उन्हें देसी डगलस कहकर पुकारा करते थे. भगवान दादा ने एक्टिंग के साथ-साथ फिल्म मेकिंग भी सीखी थी. वे बहुत कम बजट की स्टंट फिल्में बनाते थे. उन फिल्मों का डायरेक्शन भी वे खुद करते थे. उनमें एक्टिंग भी खुद ही किया करते थे. उस ज़माने में मजदूर तबके के बीच वो फिल्में बहुत पसंद की जाती थी. भगवान दादा की सिनेमाई समझ बहुत अव्वल दर्जे की थी, उन्होंने बतौर फ़िल्मकार हॉरर,एक्शन, डांसिंग, कॉमिक हर रंग की फ़िल्मों का निर्माण किया. भगवान दादा बतौर अभिनेता तो एक्शन, डांसिंग, कॉमिक अंदाज़ के लिए ही जाने गए, इसी के इर्द-गिर्द उनकी अदाकारी होती थी, लेकिन उनके द्वारा बनाई गई फ़िल्मों में हर एक रंग देखा जा सकता है.

हिंदी सिनेमा के पहले डांसिंग स्टार भगवान दादा ने अभिनय एवं नृत्य की अनोखी शैली से कॉमेडी को नई परिभाषा दी. उनकी अदाओं को बाद की कई पीढ़ियों के अभिनेताओं ने अपनाया, लेकिन उनके हास्य अभिनय और नृत्य शैली ने अपने दौर में जबरदस्त धूम मचाई. आज के दौर के महानायक अमिताभ बच्चन ने भी उनकी नृत्य शैली का अनुसरण किया. मिथुन, जितेन्द्र, गोविंदा आदि का डांस भी भगवान दादा से प्रेरित बताता जाता है.

महाराष्ट्र के अमरावती में 1913 को उनका जन्म हुआ. पूरा नाम था भगवान अभाजी पलव. बाद में उन्हें भगवान, मास्टर भगवान और भगवान दादा के नाम से पुकारा जाता था. भगवान दादा का बचपन मुफलिसी में बीता. दादर, परेल के मजदूर इलाकों में खेले-बढ़े. चौथी कक्षा के बाद उन्होंने पढ़ाई छोड़ दी. यह कहना तो असंवेदनशीलता होगी, जितने भी बड़े - बड़े प्रतिभाशाली व्यक्तियों की जमात हैं, उनमें किताबी ज्ञान तो बहुत कम ही देखा गया है, लेकिन उनकी जिंदगी को देखने की दूरदर्शिता आदरणीय है. फिर भी किसी भी विधा में खुद को स्थापित करने के लिए एक दृष्टिकोण की आवश्यकता होती है, तब कहीं व्यक्ति को आला मुकाम मिलता है.

सिनेमा में भगवान दादा का जो स्थान है, वह दूसरा किसी के पास नहीं है. पढ़ाई छोड़ने के बाद भगवान दादा फिल्मी स्टुडियो की ख़ाक छानते थे, शूटिंग देखते हुए खुद की सिनेमाई समझ विकसित की. फ़िल्मों में प्रवेश के लिए उन्हें काफ़ी मशक्कत करना पड़ी! अंतत: उन्हें 1930 में ब्रेक मिला, जब निर्माता सिराज अली हकीम ने अपनी मूक फ़िल्म बेवफा आशिक में एक कॉमेडियन की भूमिका दी.

उन्होंने शुरुआती दौर में मूक फ़िल्म क्रिमिनल एवं 'बेवफ़ा इश्क़ ' में काम किया.कम ही लोग इस बात से वाकिफ हैं कि भगवान दादा को पहलवानी का बड़ा शौक था.वो खुद भी पहलवानी किया करते थे और पहलवानी के मुकाबलों में बड़ी दिलचस्पी रखते थे.उनके इसी शौक ने उन्हें पहली दफा फिल्म क्रिमिनल में एक्टिंग करने का मौका दिलाया था. भगवान दादा की पहली बोलती फिल्म 'हिम्मते मर्दा' थी, जिसमें उनकी हीरोइन ललिता पवार थीं.

भगवान दादा से जुड़ा एक विवाद ललिता पवार की बायोग्राफी 'द मिसिंग स्टोरी ऑफ ललिता पवार" में जिसका जिक्र है, जिसके लिए शायद उन्हें कभी न भूला जा सकेगा. वो ललिता पवार से जुड़ी है. एक फिल्म की शूटिंग के दौरान भगवान दादा को एक थप्पड़ ललिता को मारना था. उन्होंने इतनी जोर से मार दिया कि ललिता चोटिल होकर बेहोश होकर जमीन पर गिर गईं, उनकी बाईं आंख की एक नस अंदर से फट गई. उनके मुंह के बाईं ओर लकवा हो गया, डेढ़ दिन तक कोमा में रहीं, तीन साल उनका इलाज चला लेकिन आंख सही नहीं हो पाई, ललिता पवार का चेहरा उसके बाद हमेशा के लिए बदल गया.

ललिता पवार अब तक हिन्दी सिनेमा की सबसे सुन्दर अदाकाराओ में गिनी जाती थीं, हीरोइन के तौर पर उनका प्रोफाइल भी निगेटिव हो गया. उन्हें नेगेटिव रोल बहुत मिलने लगे. सकारात्मकता ढूढ़ने वाला इंसान कभी भी नकारात्मक नहीं हो सकता, फिल्मी पर्दे की खलनायिका असल ज़िन्दगी में कितनी आला स्वभाव की मालकिन थीं, बाद में बुरी औरत के किरदारों में अपनी लोकप्रियता का श्रेय वे भगवान दादा को देती थीं. आम इंसान के लिए यह सब करना आसान नहीं होता.

भगवान दादा ने केवल अपनी सिनेमाई यात्रा से तो अभूतपूर्व योगदान तो दिया ही, साथ ही हिन्दी सिनेमा को अपनी पारखी नज़र से एक से बढ़कर एक नायाब फनकारों को लेकर आए. भगवान दादा ही थे, जिन्होंने संगीतकार 'सी. रामचंद्र' को फ़िल्मों में लेकर आए,जिन्होंने बाद में सौ से अधिक फ़िल्मों में अपनी प्रतिभा का प्रदर्शन किया, 'सी रामचन्द्र' ने ही 'ए मेरे वतन के लोगों' एवं ये ज़िन्दगी उसी की है जैसे कालजयी गीतों को संगीतबद्ध किया.

गीतकार आनंद बक्शी को भी फिल्मों में लाने में भगवान दादा का योगदान था. बक्शी साहब ने दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे, अमर प्रेम, आराधना, शोले, परदेस, मोहरा, यादें, ख़ुदा गवाह जैसी 600 से ज्यादा फिल्मों में गीत लिख कर खुद को महान गीतकारों में शुमार करा दिया था. हेमंत कुमार को भी उनकी पहली बड़ी फिल्म नागिन 1954 दिलवाने में दादा की भूमिका रही. भगवान दादा हिंदी फिल्मों के पहले एक्शन हीरो थे. मुक्कों से लड़ाई की शुरुआत उन्होंने की थी. बिना बॉडी डबल के एक्शन करना भी उन्होंने ही शुरू किया था.

भगवान दादा ने एक तमिल फिल्म वना मोहिनी (1941) का निर्देशन भी किया था. ये फिल्म भगवान दादा की ही नहीं सिनेमा इतिहास में मील का पत्थर मानी जाती है. इस फिल्म में मुख्य भूमिका एक हाथी चंद्रू और श्रीलंकाई एक्ट्रेस के थवमनी देवी ने मुख्य भूमिका निभाई थी. ये पहली फिल्म थी जिसमें किसी हाथी को क्रेडिट्स दिया गया है. भगवान दादा ने भारतीय सिनेमा की पहली हॉरर फिल्म भेडी बंगला बनाई थी. वी शांताराम जैसे दिग्गज फिल्मकार इससे बहुत प्रभावित हुए थे. भगवान दादा ने अपनी सिनेमाई यात्रा के दौरान हर विलक्षण कार्य किया, कुछ तो ऐसे ऐसे ट्रेंडमार्क स्थापित किए जिसकी शुरुआत उन्हीं के द्वारा की गई.

भगवान दादा की फ़िल्मों में गहरी समझ तथा प्रतिभा को देखते हुए हिन्दी सिनेमा में यथार्थवाद के प्रणेता राजकपूर ने उन्हें सामाजिक फ़िल्में बनाने की राय दी. भगवान दादा एवं राज कपूर साहब परस्पर मैत्री सम्बंध रखते थे. भगवान दादा ने राज कपूर साहब की सलाह को ध्यान में रखते हुए 'अलबेला' फ़िल्म बनाई. इसमें भगवान के अलावा गीता बाली की प्रमुख भूमिका थी. गीता बाली ने शुरुआत में भगवान दादा के कद कांठी को देखते हुए फिल्म में काम करने से इंकार कर दिया.

हालांकि भगवान दादा ने कहा "फिल्म किसी बड़े हीरो के बिना तो बन जाएगी, लेकिन 'गीता बाली' के बिना नहीं. इस फिल्म की सफलता ने भगवान दादा को सातवें आसमान पर पहुँचा दिया था . फिल्म की लोकप्रियता अफ्रीकी तक पहुंची. फिल्म अलबेला ने भगवान दादा को बेशुमार दौलत, शोहरत से नवाजा, इस फिल्म के गीत ख़ासे मकबूल हुए, जो आज भी संगीत प्रेमियों की जुबान पर आ जाते हैं. भगवान दादा सिनेमाई रूप से एक पूरा कंप्लीट पैकेज थे, एक नर्तक, मुख्य अभिनेता, चरित्र अभिनेता, निर्माता, निर्देशक, लेखक आदि हर रंग को जिया.

भगवान दादा जब सिनेमा की बुलन्दियों पर थे, तब उन्होंने चेंबूर. में अपने फिल्म स्टुडियो जागृति की स्थापना की. भगवान दादा प्रतिभा के साथ ही अल्प समय के लिए ही सही किस्मत भी खूब चलती थी, जिनके लिए सिनेमा ही सबकुछ था, इसी सिनेमा के लिए मेहनत करते हुए एक चॉल से समुन्दर के किनारे आलीशान बंगले तक का सफर तय किया.

अफ़सोस यह सब चार दिन की चांदनी बनकर आया था. अलबेला फ़िल्म अपने दौर में सुपर हिट रही और कई स्थानों पर इसने जुबली मनाई. इस फ़िल्म के गीत-संगीत का जादू सिने प्रेमियों के सर चढ़ कर बोला. इसका एक गीत 'शोला जो भड़के दिल मेरा धड़के..' आज भी खूब पसंद किया जाता है. अलबेला के बाद भगवान दादा ने गीता बाली के साथ मिलकर 'झमेला' और 'लाबेला' बनाई लेकिन दोनों ही फ़िल्में नाकाम रहीं और उनके बुरे दिन शुरू हो गए.

भगवान दादा ने किशोर कुमार के साथ एक फ़िल्म हंसते रहो बनाई. हालांकि यही फिल्म उनको खून के आंसू रुलाने वाली सिद्ध हुई. इसे बनाने के लिए दादा ने अपने जीवन की सारी जमा-पूंजी और पत्नी के गहने गिरवी रख दिए. लेकिन ये फिल्म पूरी नहीं हो पाई. अपने नखरों से किशोर कुमार ने फिल्म के निर्माण को बहुत नुकसान पहुंचाया और इसे बंद करना पड़ा. यहां तक कि उनका बंगला - गाड़ी सब बिक गया. उनकी महात्वाकांक्षी फिल्म अलबेला के प्रिंट भी कौड़ियों के भाव बेचना पड़ा. भगवान दादा को एक बार फिर से मुफलिसी ने ऐसा घेरा, कि फिर से उसी चॉल मे शरण लेनी पड़ी, जहां संघर्ष के दिन गुजारे थे.

कालांतर में सिनेमा का यह चमकता सितारा फ़िल्मों में वेटर, नौकर, ड्राईवर, मुनीम, जैसे छोटे - छोटे रोल करते हुए जीवन यापन करने लगे. हिन्दी सिनेमा ने भले ही अपने नायाब फनकार अपने बुजुर्ग के साथ भले ही न्याय न किया हो, लेकिन मराठी सिनेमा ने भगवान दादा को एक श्रद्धांजलि दी है, मराठी फ़िल्मों के निर्देशन शेखर तांडेल ने भगवान दादा के ऊपर एक बायोग्राफिकल फिल्म 'एक अलबेला' नामक फिल्म बनाया, जिसमें गीता बाली का किरदार विद्या बालन ने निभाया. भगवान दादा के काम करने की स्टाइल को मीडिया द्वारा काफी तरजीह दिया गया.

भगवान दादा मराठी होते हुए भी कभी उन्होंने मराठी फ़िल्मों में काम नहीं किया, लेकिन मराठी सिनेमा ने उनको खूब याद किया, लेकिन एहसान फरामोस हिन्दी सिनेमा ने कभी भी उनको न याद किया और न ही उनकी कोई मदद की. भगवान दादा के बारे में खूब कहा जाता है, कि उन्होंने बहुत सी रातें भूखे पेट गुजारी हैं, हालांकि ऐसा भी नहीं है, अभिनेता ओमप्रकाश, संगीतकार सी रामचंद्र, गीतकार राजेन्द्र किशन हमेशा उनके साथ खड़े रहे.

जीवन यापन में भी अर्थिक सहयोग देते थे. गुजरते हुए वक़्त में सन 1996 तक भगवान दादा सिनेमा में सक्रिय रहे. 4 फरवरी सन 2002 को हार्ट अटैक से भगवान दादा ने इस दुनिया को अलविदा कह दिया. भगवान दादा की मृत्यु पर प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने अपना शोक संदेश जारी किया था, उन्होंने अपने संदेश में कहा था "भगवान दादा ने अपनी अदाकारी, अपनी कॉमिक टाइमिंग, एवं नृत्य के विशेष अंदाज़ से हिन्दी सिनेमा की कई पीढ़ियों को प्रेरित किया".

व्यक्ति अपनी जीवन यात्रा में अपने कर्मों के अनुसार याद किया जाता है, भगवान दादा हिन्दी सिनेमा के महान अग्रदूत के रूप में हमेशा याद किए जाएंगे. सिनेमाई चमक - धमक में अगर कोई बहेगा, तो भगवान दादा लोगों को रास्ता दिखाने का काम करते रहेंगे. सिल्वर स्क्रीन के महान अदाकार भगवान दादा को मेरा सलाम .

लेखक

Dileep Kumar Pathak

जर्नलिस्ट, कविता, फीचर, कहानी, लेखक, हिन्दी सिनेमा पर अध्ययन लेखन

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