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Updated: 19 जुलाई, 2022 03:49 PM
मुकेश कुमार गजेंद्र
मुकेश कुमार गजेंद्र
  @mukesh.k.gajendra
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पिछले पांच दशक से भोजपुरिया समाज भोजपुरी को संविधान की 8वीं अनुसूची में शामिल कराने की मांग रहा है. लेकिन आजतक इस मांग पर कोई ठोस सुनवाई नहीं हुई है. हर बार नियमों का हवाला देकर इस मांग को खारिज कर दिया जाता है. इसकी वजह से निराश हो चुके भोजपुरिया समाज को एक बार फिर आस जगी है. वजह ये है कि इस बार संसद में एक साथ तीन ऐसे सांसद मौजूद हैं, जो कि भोजपुरी फिल्म इंडस्ट्री से आते हैं. भोजपुरी की वजह से पहले सिनेमा और अब सियासत में नाम कमाने वाले इन सितारों के ऊपर बहुत बड़ी जिम्मेदारी है. हर कोई चाहता है कि तीनों सांसद एक साथ मिलकर संसद के अंदर भोजपुरी को संविधान की 8वीं अनुसूची में शामिल कराने की पहल करें.

nirahuaa-1-650_071922033743.jpgभोजपुरी सिनेमा के तीन सितारे मनोज तिवारी, रवि किशन और दिनेश लाल यादव निरहुआ सांसद हैं.

भोजपुरी फिल्म अभिनेता और गायक मनोज तिवारी और रवि किशन पहले से ही संसद में मौजूद हैं. हालही में हुए उप चुनाव में आजमगढ़ से चुनकर दिनेश लाल यादव निरहुआ संसद पहुंचे हैं. मानसून सत्र के पहले दिन सोमवार को उन्होंने संसद में शपथ लिया है. इस दौरान उन्होंने ''जय भारत, जय भोजपुरी'' बोलकर उन तमाम लोगों के दिल में आस जगा दी है, जो लंबे समय से भोजपुरी को भाषा के रूप में सरकारी मान्यता देने की मांग कर रहे हैं. हालांकि, इससे पहले कई बार प्रयास किए जा चुके हैं, लेकिन कभी सफलता नहीं मिली है. सबसे पहले 60 के दशक में गाजीपुर से सांसद विश्वनाथ गहमरी ने संसद में अपना पूरा भाषण भोजपुरी में दिया था, ताकि लोगों का ध्यान इस ओर आकर्षित किया जा सके. उनकी पुस्तक की प्रस्तावना को प्रसिद्ध शायर फिराक गोरखपुर ने भोजपुरी में लिखा था. सांसद रहते हुए योगी आदित्यनाथ भी भोजपुरी को भाषा का दर्जा दिलाने की मांग संसद में कर चुके हैं.

manoj_071922033624.jpgमनोज भावुक भोजपुरी के जाने-माने लेखक, कवि, पत्रकार और कलाकार हैं, इन्होंने कई फिल्मों में भी काम किया है.

भोजपुरी दुनिया की सबसे बड़ी बोली है, इसके बावजूद इसे संविधान की 8वीं अनुसूची में शामिल नहीं किया जा रहा है, इसकी वजह क्या है? इंडिया टुडे ग्रुप के ओपिनियन प्लेटफॉर्म iChowk.in के इस सवाल के जवाब में भोजपुरी कवि और फिल्म समीक्षक मनोज भावुक कहते हैं, ''देखिए हर बार सरकार में बैठे लोग समस्या दिखाने के लिए भोजपुरी के समानांतर कई अन्य भाषाओं को खड़ा कर देते हैं. इसके बाद उनका कहना होता है कि यदि हमने भोजपुरी को संविधान की 8वीं अनुसूची में शामिल कर लिया तो हमें कई अन्य भाषाओं को भी मजबूरन शामिल करना पड़ जाएगा. वरना विरोध का सामना करना पड़ेगा. लेकिन मेरे विचार से ये गलत बात है. क्योंकि भोजपुरी से किसी बोली या भाषा की कोई तुलना नहीं है. देश में हिंदी के बाद सबसे ज्यादा भोजपुरी बोली जाती है. इतना नहीं नहीं देश से बाहर यदि कोई बोली सबसे ज्यादा बोली जाती है, तो वो भोजपुरी ही है. एक नहीं कई देशों में इसे बोला जाता है.''

मनोज भावुक आगे कहते हैं, ''मॉरीशस, फिजी, गयाना, सूरीनाम, नेपाल यहां तक कि सिंगापुर, उत्तर अमरीका और लैटिन अमेरिका में भी भोजपुरी बोली जाती है. मॉरीशस में तो इसे सरकारी मान्यता भी मिल चुकी है. वहां पहले से ही पांच से अधिक भाषाएं मौजूद हैं. भोजपुरी तो वहां की भाषा भी नहीं है. भारत से गए हुए लोगों की भाषा हैं. इसके बावजूद इसे सरकारी भाषा मान लिया गया है. भोजपुरी का इतिहास एक हजार साल से भी अधिक पुराना है. यहां तक कि शेरशाह सूरी के राज्य में सरकारी कामगाज के लिए भी इसका इस्तेमाल किया जाता था. इतना सबकुछ होने के बाद भी सरकारी और सियासी इच्छाशक्ति की कमी की वजह से इसे 8वीं अनुसूची में शामिल नहीं किया जा रहा है.''

इस वक्त देश की संसद में तीन सांसद भोजपुरी फिल्म इंडस्ट्री से हैं, इस मुद्दे को लेकर उनसे क्या अपेक्षा की जा सकती है? इस पर मनोज भावुक कहते हैं, ''देखिए मैं भोजपुरी सिनेमा से बहुत लंबे समय से जुड़ा रहा हूं. इस मुद्दे को बहुत करीब से देखता आया हूं. इसलिए मैं कह सकता हूं कि इन लोगों के संसद में होने से कोई बहुत ज्यादा फर्क नहीं पड़ने वाला है. रवि किशन जब सांसद बने तो उन्होंने भी पहला काम यही किया कि संसद में भोजपुरी को 8वीं अनुसूची में शामिल करने की मांग की और गाना भी गाया था, लेकिन आज ये मुद्दा कहां है? कोई नहीं जानता. ये हमारा दुर्भाग्य रहा है कि देश में भोजपुरी भाषी राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, लोकसभा स्पीकर से लेकर मुख्यमंत्री तक हुए हैं, लेकिन भोजपुरी का कुछ नहीं हो सका है. एक समय में 40 से ज्यादा सांसद भोजपुरी बोलने वाले रहे हैं, अभी भी लोकसभा से राज्यसभा तक तीन दर्जन से ज्यादा ऐसे सांसद हैं, जो भोजपुरी बोलते हैं. लेकिन क्या हुआ? इस मुद्दे को लेकर राजनीतिक इच्छाशक्ति का हमेशा से अभाव रहा है. जबतक इसे 8वीं अनुसूची में शामिल नहीं कर लिया जाता, तबतक कुछ नहीं कहा सकता है.''

chandan_071922033357.jpgचंदन तिवारी बिहार के भोजपुर की रहने वाली हैं, महुआ टीवी के सुर संग्राम से इनको ख्याति मिली है.

साल 2003 में हुए संविधान संशोधन में मैथिली, संथाली, बोडा और डोगरी को शामिल किया गया, लेकिन भोजपुरी को नहीं, इसके पीछे क्या वजह है? इंडिया टुडे ग्रुप के ओपिनियन प्लेटफॉर्म iChowk.in के इस सवाल के जवाब में मशहूर लोकगायिका चंदन तिवारी कहती हैं, ''इसके पीछे हमारे संगठित प्रयास में कमी है. अपने ही लोगों की उदासीनता है. एक और बात यहां जोड़ना चाहूंगी. आप देखिएगा कि भोजपुरी समाज ही एक ऐसा समाज दिखेगा, जिसमें उसके बड़े लोगों ने सबसे ज्यादा दूरी बनाई. राजनीति से इतर दूसरे पेशे में लगे ऐसे अनेक लोग मिलेंगे, जो मूलत: भोजपुरी भाषी हैं, लेकिन अपनी भाषा से कनेक्ट नहीं करते. इसे बोलने में शर्म महसूस करते हैं. ऐसा बांग्ला या मैथिली जैसी किसी दूसरी आसपास की भाषाओं के समाज के लोग करते नहीं दिखते हैं. यह सब एक मैसेज देता है. सरकार को भी लगता है कि जब भोजपुरी भाषी ही आपस में इतने बिखरे हुए हैं या खुद को कनेक्ट करने से संकोच करते हैं तो फिर यहां मान्यता न भी दें तो भी कोई गंभीर बात नहीं है. भोजपुरी को कभी किसी ने राज्याश्रय नहीं दिया. इसके बिना ही ये दुनियाभर में फैली है. यह भ्रम फैलाया गया है कि भोजपुरी में एकरूपता नहीं है.''

भोजपुरी को भाषा का दर्जा दिलाने के लिए गाजीपुर से सांसद रहे विश्वनाथ गहमरी ने संसद में पूरा भाषण भोजपुरी में दिया था. सांसद रहते हुए योगी आदित्यनाथ ने भी बहुत कोशिश की है, आखिर कहां कमी रह गई है? इस पर चंदन तिवारी कहती हैं, ''विश्वनाथ गहमरी जी का भाषण तो कालजयी माना जाता है. योगी जी ने भी बहुत प्रयास किया है. रघुवंश प्रसाद सिंह, प्रभुनाथ सिंह जी ने भी संसद में प्रयास किया है. इसके लिए मजबूती से मांग उठाई है. भोजपुरी की पहली फिल्म डॉ. राजेंद्र प्रसाद जी की प्रेरणा से बनी थी. इस फिल्म को दिल्ली से लेकर देश के राजनीतिक गलियारे तक में बाबू जगजीवन राम ने गर्व के साथ प्रचारित किया कि ये हमारी मातृभाषा में बनी फिल्म है. हमारी कमी यह रह गई कि हम अपनी भाषा और संस्कृति को एक अलग कर्म मानते हैं. यह हमारी अस्मिता और पहचान से नहीं जुड़ रहा है. यहां सिर्फ राजनीतिक कमी नहीं मान सकती. समाज भी जब अपनी भाषा को अपनी अस्मिता से जोड़ेगा और यह संदेश देगा कि उसके लिए सभी चीजों के साथ अपनी भाषा का मान-सम्मान और पहचान जरूरी है, तो राजनीतिक संदेश भी जाएगा कि भोजपुरी भाषियों को तमाम भौतिक विकास के साथ उनका सांस्कृतिक विकास भी चाहिए. हमारे समाज की असली कमी यही है कि वो अपनी भाषा को अपनी अस्मिताई पहचान से नहीं जोड़ पा रहा.''

बताते चलें कि भोजपुरी उन 38 भाषाओं में शामिल है, जिसे आठवीं अनुसूची में शामिल करने की मांग संसद और दूसरे मंचों पर लगातार उठती रही है. कुछ साल पहले सरकार ने होम मिनिस्ट्री में अतिरिक्त सचिव की अध्यक्षता में एक हाई लेवल कमेटी बनाई थी. इसमें होम मिनिस्ट्री, कल्चरल मिनिस्ट्री, एचआरडी, लॉ मिनिस्ट्री, साहित्य अकादमी, राजभाषा विभाग, केंद्रीय भारतीय भाषा संस्थान और रजिस्ट्रार जनरल ऑफ़ इंडिया के सीनियर अफसर शामिल थे. इस कमेटी ने भोजपुरी को 8वीं अनुसूची में शामिल करने के मापदंडों पर खरा नहीं पाया था. केवल भोजपुरी ही नहीं अंगिका, गढ़वाली, राजस्थानी, गुज्जरी, मगही, नागपुरी, कुमायूंनी, भोटी, बुंदेलखंडी, छत्तीसगढ़ी, बज्जिका, बंजारा, हिमाचली, धतकी, गोंडी, हो, कच्छी, कामतापुरी, करबी, खासी, कोडावा (कूर्ग की), कोक बराक, कुडक, कुमाली, लेपचा, लिंबू, मुंदड़ी, पाली, संबलपुरी, शौरसेनी (प्राकृत) जैसी बोलियां भी ये लड़ाई हार चुकी हैं.

8वीं अनुसूची में शामिल होने के मापदंड क्या हैं?

1. तीन दशकों के जनगणना आंकड़ों के अनुसार इसे कम से कम पांच लाख लोग बोलते हों.

2. कम से कम स्कूली शिक्षा के माध्यम के रूप मे इस भाषा का प्रयोग होता हो.

3. लिखने की भाषा के रूप में पचास सालों से अस्तित्व में होने का प्रमाण हो.

4. साहित्य अकादमी उसके साहित्य का प्रचार-प्रसार करती हो.

5. जनगणना आंकड़ों के मुताबिक़, यह आसपास के इलाक़ों में दूसरी भाषा के रूप में इस्तेमाल की जा रही हो.

6. नए बने राज्यों में राजभाषा का दर्जा मिला हो (मसलन कोंकणी, मणिपुरी).

7. देश के बंटवारे के पहले किसी राज्य में बोली जाती हो और बंटवारे के बाद भी कुछ राज्यों में इस्तेमाल हो रही हो.

8वीं अनुसूची में शामिल होने से फायदा क्या होगा?

किसी भाषा को 8वीं अनुसूची में जोड़ने से उसकी एक विशिष्ट पहचान बन जाती है. उस भाषा में एनसीईआरटी की किताबें उपलब्ध हो जाती हैं. उसके साहित्यकारों को प्रोत्साहित किया जाता है. ज्ञानपीठ आदि पुरस्कारों के लिए नामांकित किए जाते हैं. इतना ही नहीं सरकार भी उस भाषा के विकास के लिए अनुदान देती हैं. यूनियन पब्लिक सर्विस कमीशन (यूपीएससी) सहित कई केंद्रीय परीक्षाएं उस भाषा में होती हैं. फिलहाल देश में असमिया, बंगला, बोड़ो, डोगरी, गुजराती, हिंदी, कन्नड़, कश्मीरी, कोंकणी, मैथिली, मलयालम, मणिपुरी, मराठी, नेपाली, उड़िया, पंजाबी, संस्कृत, संथाली, सिंधी, तमिल, तेलगू और उर्दू सहित 22 भाषाएं संविधान की 8वीं अनुसूची में शामिल की गई हैं.

लेखक

मुकेश कुमार गजेंद्र मुकेश कुमार गजेंद्र @mukesh.k.gajendra

लेखक इंडिया टुडे ग्रुप में सीनियर असिस्टेंट एडिटर हैं.

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