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झूठ की राजनीति बंद होनी चाहिए, वरना जनता का भरोसा हिल जाएगा!

    • अभिरंजन कुमार
    • Updated: 17 सितम्बर, 2017 05:16 PM
  • 17 सितम्बर, 2017 05:16 PM
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आप ही जीएसटी लेकर आए हैं. आप ही ने जीएसटी में अपर टैक्स लिमिट 28 प्रतिशत रखी है. फिर, अगर जीएसटी और देश की जनता के प्रति आपकी नीयत सही है, तो पेट्रोल और डीजल पर 100-125 प्रतिशत टैक्स कैसे वसूल सकते हैं भाई?

मैं बार-बार अपनी विचारधारा स्पष्ट करता रहता हूं. फिर भी लोगों को समझ में नहीं आता, तो मैं क्या करूं? मैं किसी का भी विरोधी नहीं हूं- कांग्रेस, लेफ्ट, भाजपा, राजद, जदयू, सपा, बसपा- किसी का नहीं. मैं कबीरदास वाला निंदक हूं, जिसे उन्होंने आंगन में सम्मानपूर्वक बिठाने को कहा था. विरोधी होना एक बात है और कबीरदास वाला निंदक होना दूसरी बात है.

मैं क्यों किसी का विरोधी होऊं? सबके अपने विचार हैं. सबका अपना रास्ता है. अलग-अलग विचार मिलकर ही किसी भी लोकतंत्र में संतुलन कायम करते हैं. सभी हैं, तभी सबके हित सुरक्षित हैं. अगर कोई एक ही पार्टी, एक ही विचार रह जाए, तो किसी का हित सुरक्षित नहीं रहेगा. इसलिए मैं कभी भी विपक्ष या विपक्षी विचारों के समाप्त हो जाने की कामना नहीं करता.

और मैं निंदक क्यों न होऊं? मैं भी इस देश का आम नागरिक हूं. मुझे भी अपने हिसाब से इस देश की भलाई के बारे में सोचने का हक है. इस देश के 125 करोड़ लोग सिर्फ़ ख़ास नेताओं के ही नहीं, मेरे भी भाई-बहन हैं. अगर मुझे लगेगा कि कोई बात उनके ख़िलाफ़ जा रही है, तो मैं चुप क्यों रहूं? अगर देश के नागरिक अपनी सरकारों, राजनीतिक दलों और नेताओँ पर उचित लोकतांत्रिक दबाव बनाकर नहीं रखेंगे, तो वे निरंकुश, अहंकारी और जनविरोधी नहीं हो जाएंगे क्या?

अवार्ड वापसी की निंदा भी जरूरी थी

जब मैं जेएनयू और पुरस्कार वापसी जैसे मुद्दों पर कांग्रेस और वामपंथी दलों की आलोचना कर रहा था, तब भी मैंने सरकार की नीतियों और फैसलों के बारे में कई समीक्षात्मक लेख लिखे थे. यह अलग बात है कि उस वक्त किसी के पास उन लेखों को पढ़ने या नोटिस करने की फुरसत नहीं थी, क्योंकि उस वक्त सत्ता-पक्षियों और विपक्षियों सबका एजेंडा ही दूसरा था.

इसलिए मेरे स्टैंड में कोई बदलाव नहीं आया है. तब भी मैंने कहा था कि...

मैं बार-बार अपनी विचारधारा स्पष्ट करता रहता हूं. फिर भी लोगों को समझ में नहीं आता, तो मैं क्या करूं? मैं किसी का भी विरोधी नहीं हूं- कांग्रेस, लेफ्ट, भाजपा, राजद, जदयू, सपा, बसपा- किसी का नहीं. मैं कबीरदास वाला निंदक हूं, जिसे उन्होंने आंगन में सम्मानपूर्वक बिठाने को कहा था. विरोधी होना एक बात है और कबीरदास वाला निंदक होना दूसरी बात है.

मैं क्यों किसी का विरोधी होऊं? सबके अपने विचार हैं. सबका अपना रास्ता है. अलग-अलग विचार मिलकर ही किसी भी लोकतंत्र में संतुलन कायम करते हैं. सभी हैं, तभी सबके हित सुरक्षित हैं. अगर कोई एक ही पार्टी, एक ही विचार रह जाए, तो किसी का हित सुरक्षित नहीं रहेगा. इसलिए मैं कभी भी विपक्ष या विपक्षी विचारों के समाप्त हो जाने की कामना नहीं करता.

और मैं निंदक क्यों न होऊं? मैं भी इस देश का आम नागरिक हूं. मुझे भी अपने हिसाब से इस देश की भलाई के बारे में सोचने का हक है. इस देश के 125 करोड़ लोग सिर्फ़ ख़ास नेताओं के ही नहीं, मेरे भी भाई-बहन हैं. अगर मुझे लगेगा कि कोई बात उनके ख़िलाफ़ जा रही है, तो मैं चुप क्यों रहूं? अगर देश के नागरिक अपनी सरकारों, राजनीतिक दलों और नेताओँ पर उचित लोकतांत्रिक दबाव बनाकर नहीं रखेंगे, तो वे निरंकुश, अहंकारी और जनविरोधी नहीं हो जाएंगे क्या?

अवार्ड वापसी की निंदा भी जरूरी थी

जब मैं जेएनयू और पुरस्कार वापसी जैसे मुद्दों पर कांग्रेस और वामपंथी दलों की आलोचना कर रहा था, तब भी मैंने सरकार की नीतियों और फैसलों के बारे में कई समीक्षात्मक लेख लिखे थे. यह अलग बात है कि उस वक्त किसी के पास उन लेखों को पढ़ने या नोटिस करने की फुरसत नहीं थी, क्योंकि उस वक्त सत्ता-पक्षियों और विपक्षियों सबका एजेंडा ही दूसरा था.

इसलिए मेरे स्टैंड में कोई बदलाव नहीं आया है. तब भी मैंने कहा था कि पेट्रोल और डीज़ल के दाम में मोदी सरकार गलत कर रही है और अगर वह ऐसा ही करती रही, तो जनता में असंतोष पैदा होगा. इसी आईचौक.इन पर 16 अक्टूबर 2016 को भी मेरा एक लेख छपा था- “मनमोहन से 18 रुपये लीटर महंगा पेट्रोल और डीजल बेच रहे हैं मोदी!” अगर नहीं पढ़ा, तो कृपया इस लिंक पर जाकर एक बार अवश्य पढ़ लें. इसी तरह, रेलवे में सुरेश प्रभु की लूट की भी मैं पहले दिन से आलोचना कर रहा था.

हमारा कहना है कि टैक्स और लूट की भी सीमा होनी चाहिए. आप ही जीएसटी लेकर आए हैं. आप ही ने जीएसटी में अपर टैक्स लिमिट 28 प्रतिशत रखी है. फिर, अगर जीएसटी और देश की जनता के प्रति आपकी नीयत सही है, तो पेट्रोल और डीजल पर 100-125 प्रतिशत टैक्स कैसे वसूल सकते हैं भाई? आप इसे जीएसटी के दायरे में ले आइए, 28 प्रतिशत टैक्स वसूलिए, फिर कौन विरोध करेगा इसका?

वादा तेरा वादा!

झूठ की राजनीति देश और लोकतंत्र के लिए अच्छी नहीं है. क्या हम अपने राजनीतिक दलों और नेताओं को चुनावी भाषणों और पोस्टरों में झूठ बोलने और लिखने की आज़ादी देना चाहते हैं? नेताओं के लिए कितना आसान है कि सत्ता में आ जाने के बाद वे अपने वादों को चुनावी जुमला बता दें. लेकिन क्या आपने कभी यह सोचा है कि इससे जनता के भरोसे को कितनी ठेस पहुंचती है?

जब नरेंद्र मोदी अपने भाषणों में 15 लाख वाली बात कहते थे, तो हम लोग हंसते थे. समझते थे कि यह कभी संभव नहीं है और यह केवल चुनावी पैंतरेबाज़ी है. इसलिए हमने अपने कांग्रेसी और वामपंथी मित्रों की तरह कभी अपने एकाउंट में 15 लाख रुपये नहीं मांगे. लेकिन “महंगाई रोकेंगे” इस वादे को भी हम कैसे चुनावी जुमला मान लें? अगर इस तरह से आपके सभी वादे जुमला साबित हो जाएंगे, तो आप पर कौन भरोसा करेगा?

यह कितना अजीब लगता है कि जब आप विपक्ष में थे, तब आपने एफडीआई का विरोध किया. जीएसटी का विरोध किया. रेल किराये बढ़ाने का विरोध किया. पेट्रोल-डीज़ल के दाम बढ़ाने का विरोध किया. सरकार की हर नीति, हर योजना का विरोध किया और लोगों के मन में उसके प्रति संदेह पैदा किया. लेकिन आज जब आप सत्ता में आ गए, तो आप उन्हीं सारी बातों को देशहित में बता रहे हैं?

लोगों के जले पर पेट्रोल छिड़कना बंद करिए मोदी जी

फिर तो लोग पूछेंगे न कि आप तब गलत थे या अब गलत हैं? अगर आप अब सही हैं, तो क्या तब आपने देशहित के ख़िलाफ़ काम किया? और अगर आप तब सही थे, तो क्या अब आप जनहित के ख़िलाफ़ काम कर रहे हैं? जनता की मजबूरियों और राजनीतिक विकल्पहीनता का नाजायज़ फ़ायदा नहीं उठाया जाना चाहिए. इससे सत्ता जाए न जाए, पर साख पर जो बट्टा लगेगा, उससे आप उबर नहीं पाएंगे. अनेक देशों में शासक छल-बल से राज करते रहते हैं, लेकिन जनता में उनकी कोई विश्वसनीयता नहीं होती.

यह कितने दुर्भाग्य की बात है कि आज अनेक लोग कहने लगे हैं कि 2013-14 में जो दो नेता उभरकर सामने आए- अरविंद केजरीवाल और नरेंद्र मोदी- दोनों ने ही जनता को अपने पाले में करने के लिए झूठ का सहारा लिया. पहले के पास संगठन की ताकत नहीं थी, इसलिए एक साल में ही एक्सपोज़ हो गया. दूसरे के पास संगठन की ताकत है, इसलिए देशहित का नाम लेकर अपने हर झूठ पर पर्दा डालने में वह कामयाब हो जाता है. लेकिन यह कब तक चलेगा?

हमारा मकसद अपने प्रधानमंत्री या किसी भी मुख्यमंत्री को झूठा कहना नहीं है. बल्कि हम यह चाहते हैं देश में सच की सियासत कायम होनी चाहिए. झूठ का चलन बंद होना चाहिए. हमारे नेता जो भी वादे करें, उनपर कायम रहें. यह नागरिकों के भरोसे का सवाल है. अगर नागरिकों का भरोसा टूट गया, तो लोकतंत्र के लिए इससे बड़ा आघात कुछ और नहीं हो सकता.

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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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