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राजनीति में 'राहुल' और 'अखिलेश' जैसों के लिए फायदे

    • शिवानन्द द्विवेदी
    • Updated: 21 फरवरी, 2017 02:52 PM
  • 21 फरवरी, 2017 02:52 PM
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राजनीतिक दलों में परिवारवाद को केंद्र में रखकर यदि आप इस मुद्दे पर गौर करें तो समाजवादी पार्टी और कांग्रेस पार्टी की राजनीतिक बुनियाद ही परिवारवाद पर टिकी नजर आएगी.

तीन चरणों का चुनाव समाप्त होने के बाद अब यूपी के सियासी तापमान का पारा पश्चिम से पूरब की ओर बढ़ चला है. आगामी चरणों में पूर्वी उत्तर प्रदेश में चुनाव होने हैं, लिहाजा सभी दलों के नेता पूरब का रुख कर चुके हैं. यूपी चुनाव में भी वंशवाद और परिवारवाद की बहस भी खूब हो रही है. लगभग हर एक पत्रकार वार्ता में भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह सहित भाजपा के आला नेताओं से यह सवाल पूछा जाता है. हालांकि यह भी आश्चर्यजनक है कि परिवारवाद का सवाल जिस ढंग से भाजपा नेताओं से किया जाता है, उस ढंग से समाजवादी पार्टी अथवा कांग्रेस पार्टी से पूछा गया हो ऐसा बहुत कम देखने को मिलता है. इस बहस को ठीक ढंग से समझने से पहले हमें यह समझना जरुरी है कि वंशवाद और परिवारवाद, दोनों समानार्थी शब्द नहीं है. दोनों शब्दों का अर्थ भी अलग है और इसके राजनीतिक प्रभाव भी अलग हैं. परिवारवाद अगर एक स्वार्थी, मोहयुक्त प्रवृत्ति है तो वंशवाद एक अलोकतांत्रिक, सामन्तवादी रजवाड़ों की परंपरागत सोच की परिणिति है.

देश में चुनाव लड़ने का हक़ सभी को है, चाहे कोई आम हो अथवा खास हो, कोई नेता का बेटा हो अथवा कोई सामान्य व्यक्ति. कोई व्यक्ति इस वजह से चुनाव लड़ने अथवा राजनीति में आने से महरूम नहीं किया जा सकता है क्योंकि वो किसी नेता का बेटा है. यह जरुर संभव है कि उसको किसी नेता का बेटा होने का अतिरिक्त लाभ मिल रहा हो. चुनावी राजनीति में परिवारवाद, भाई-भतीजावाद लगभग हर दल में कम या ज्यादा है लेकिन इस सवाल से ज्यादा महत्वपूर्ण सवाल यह है कि भारत के राजनीतिक दलों में संगठनात्मक स्तर पर परिवारवाद अथवा वंशवाद की स्थिति क्या है ?

राजनीतिक दलों में परिवारवाद को केंद्र में रखकर यदि आप इस मुद्दे पर गौर करें तो समाजवादी पार्टी और कांग्रेस पार्टी की राजनीतिक बुनियाद ही परिवारवाद पर टिकी नजर आएगी. भाजपा इस मामले में परिवारवादी नहीं नजर आती है और वंशवादी तो खैर नहीं ही है. भाजपा में राष्ट्रीय अध्यक्ष का बेटा राष्ट्रीय अध्यक्ष बनेगा, ऐसा सोचना भी कल्पना से परे लगता है. अटल बिहारी वाजपेयी, लाल...

तीन चरणों का चुनाव समाप्त होने के बाद अब यूपी के सियासी तापमान का पारा पश्चिम से पूरब की ओर बढ़ चला है. आगामी चरणों में पूर्वी उत्तर प्रदेश में चुनाव होने हैं, लिहाजा सभी दलों के नेता पूरब का रुख कर चुके हैं. यूपी चुनाव में भी वंशवाद और परिवारवाद की बहस भी खूब हो रही है. लगभग हर एक पत्रकार वार्ता में भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह सहित भाजपा के आला नेताओं से यह सवाल पूछा जाता है. हालांकि यह भी आश्चर्यजनक है कि परिवारवाद का सवाल जिस ढंग से भाजपा नेताओं से किया जाता है, उस ढंग से समाजवादी पार्टी अथवा कांग्रेस पार्टी से पूछा गया हो ऐसा बहुत कम देखने को मिलता है. इस बहस को ठीक ढंग से समझने से पहले हमें यह समझना जरुरी है कि वंशवाद और परिवारवाद, दोनों समानार्थी शब्द नहीं है. दोनों शब्दों का अर्थ भी अलग है और इसके राजनीतिक प्रभाव भी अलग हैं. परिवारवाद अगर एक स्वार्थी, मोहयुक्त प्रवृत्ति है तो वंशवाद एक अलोकतांत्रिक, सामन्तवादी रजवाड़ों की परंपरागत सोच की परिणिति है.

देश में चुनाव लड़ने का हक़ सभी को है, चाहे कोई आम हो अथवा खास हो, कोई नेता का बेटा हो अथवा कोई सामान्य व्यक्ति. कोई व्यक्ति इस वजह से चुनाव लड़ने अथवा राजनीति में आने से महरूम नहीं किया जा सकता है क्योंकि वो किसी नेता का बेटा है. यह जरुर संभव है कि उसको किसी नेता का बेटा होने का अतिरिक्त लाभ मिल रहा हो. चुनावी राजनीति में परिवारवाद, भाई-भतीजावाद लगभग हर दल में कम या ज्यादा है लेकिन इस सवाल से ज्यादा महत्वपूर्ण सवाल यह है कि भारत के राजनीतिक दलों में संगठनात्मक स्तर पर परिवारवाद अथवा वंशवाद की स्थिति क्या है ?

राजनीतिक दलों में परिवारवाद को केंद्र में रखकर यदि आप इस मुद्दे पर गौर करें तो समाजवादी पार्टी और कांग्रेस पार्टी की राजनीतिक बुनियाद ही परिवारवाद पर टिकी नजर आएगी. भाजपा इस मामले में परिवारवादी नहीं नजर आती है और वंशवादी तो खैर नहीं ही है. भाजपा में राष्ट्रीय अध्यक्ष का बेटा राष्ट्रीय अध्यक्ष बनेगा, ऐसा सोचना भी कल्पना से परे लगता है. अटल बिहारी वाजपेयी, लाल कृष्ण अडवाणी, मुरली मनोहर जोशी, जना कृष्णमूर्ति, बंगारू लक्ष्मण, वेंकैया नायडू, नितिन गडकरी, राजनाथ सिंह भाजपा केअध्यक्ष रहे हैं, लेकिन इनमे से किसी का भाई अथवा बेटा पार्टी का राष्ट्रीय अध्यक्ष तो छोड़िये शायद किसी प्रदेश का अध्यक्ष भी न बन पाया हो.

राजनाथ सिंह के पुत्र पंकज सिंह राजनीति में जरुर हैं लेकिन डेढ़ दशकों तक सक्रिय राजनीति में रहकर, संगठन की प्रक्रियाओं से गुजरकर महज उत्तर प्रदेश के प्रदेश महामंत्री तक पहुंच पाए हैं. अब राजनाथ सिंह की जगह मुलायम सिंह, सोनिया गांधी और लालू यादव, उद्धव ठाकरे को रखकर देखा जाए तो यह स्पष्ट होगा कि राजनीतिक दलों के चाल-चरित्र के मामले में भाजपा क्यों बाकियों से अलग है! मुलायम सिंह यादव के पुत्र अखिलेश पढ़ाई करके आते हैं और सीधे सांसद, प्रदेश अध्यक्ष भी पिता के बाद मुख्यमंत्री बनते हैं.

लालू यादव के बेटे सीधे उप-मुख्यमंत्री बनते हैं. राहुल गांधी अचानक तमाम शीर्ष नेताओं के ऊपर पार्टी राष्ट्रीय महासचिव और फिर राष्ट्रीय उपाध्यक्ष बनाकर लाद दिए जाते हैं. देश की मीडिया का बड़ा तबका जो इसबात के इन्तजार में लगातार कार्यक्रम बनाता रहा है, लेख छापता रहा है कि प्रियंका गांधी कब राजनीति में आ रही हैं, उसे जब किसी सांसद पुत्र के चुनाव लड़ने भर से परिवारवाद की चिंता में ग्रस्त देखता हूं तो घोर आश्चर्य होता है. राजनीतिक दलों के चाल-चरित्र के आधार पर जब तथ्यात्मक मूल्यांकन किया जाएगा तो भाजपा इनसे अलग नजर आएगी. कम से कम भाजपा में अभी तक ऐसे उदहारण देखने को नहीं मिला है जैसा सपा और कांग्रेस में है.

दलीय राजनीति में संगठन और चुनाव दो अलग-अलग पहलू हैं. चुनाव की प्रक्रिया एक प्रशासकीय प्रक्रिया का हिस्सा है जबकि संगठन राजनीतिक दलों की आंतरिक कार्य प्रणाली एवं विचारधारा को प्रतिबिंबित करता है. भाजपा के संगठनात्मक ढांचे में परिवारवाद एवं वंशवाद की स्थिति लगभग नगण्य है. जबकि कांग्रेस और सपा जैसे दलों का संगठन ही एक परिवार विशेष के लिए समर्पित है. वंशवाद की जिस राजनीति की बुनियाद कांग्रेस में जवाहरलाल नेहरु ने रखी वो कांग्रेस में आज भी कायम है. ऐसा नहीं है कि तब कांग्रेस में नेता नहीं थे, नेता थे लेकिन नीयत नहीं थी. वरना के.कामराज के रहते नेहरु की बेटी इंदिरा अपनी कांग्रेस क्यों बना ली होतीं ?

दलीय राजनीति में जो चरित्र कांग्रेस का था, वही चरित्र समाजवादी पार्टी का यूपी में है. राम मनोहर लोहिया अगर जिन्दा होते तो वे शायद उसी तेवर से समाजवादी पार्टी का विरोध कर रहे होते जिस तेवर से उन्होंने नेहरु और कांग्रेस का किया था. चुनावों में भाजपा ने भी कुछ ऐसे टिकट दिए हैं जो सांसद पुत्र हैं अथवा सांसद भाई हैं. लेकिन यह एक चुनावी पहलू का हिस्सा है जो सभी दलों में है और भाजपा से बहुत ज्यादा ही है. लेकिन दलीय राजनीति में भाजपा का संगठन आज भी लोकतान्त्रिक मूल्यों, परिवारवाद एवं वंशवाद मुक्त है, इसके सैकड़ों उदाहरण आज भी मौजूद हैं. खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इस पक्ष के बड़े उदाहरण हैं. अगर भाजपा वंशवादी पार्टी होती तो शायद नरेंद्र मोदी जैसा गरीब का बेटा भाजपा में रहते हुए देश का प्रधानमंत्री न बन पाता और अमित शाह जैसा बूथ स्तर का कार्यकर्ता भाजपा का राष्ट्रीय अध्यक्ष नहीं बन पाता. मै यह बात इस विश्वास के साथ लिख रहा हूं क्योंकि मै इस बात को लेकर मुतमईन हूं कि अमित शाह के भाई अथवा पुत्र भाजपा के अगले अध्यक्ष नहीं बनने वाले हैं.

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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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