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संस्कृति

जहां मौत के बाद भी कायम रहती है जिंदगी

    • पारुल चंद्रा
    • Updated: 21 जून, 2018 05:22 PM
  • 17 दिसम्बर, 2016 11:07 AM
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इंडोनेशिया का एक समाज अपने अपनों से इतना प्यार करता है कि उनकी मौत के बाद भी उन्हें खुद से अलग नहीं कर पाता. अपने परिवार के किसी सदस्य की मौत के बाद ये लोग शव को नहीं दफनाते बल्कि उसे अपने साथ ही रखते हैं.

कहते हैं हमारे अपने जो गुजर जाते हैं वो हमेशा हमारे दिलों और यादों में जिंदा रहते हैं. लेकिन इंडोनेशिया का एक समाज अपने अपनों से इतना प्यार करता है कि उनकी मौत के बाद भी उन्हें खुद से अलग नहीं कर पाता.

दक्षिण सुलावेसी के पहाड़ों पर रहने वाले तोरजा समाज के लोगों की ये कहानी शायद किसी डरावनी फिल्म जैसी लगे, लेकिन ये उतनी ही सत्य है जितना कि मौत खुद. अपने परिवार के किसी सदस्य की मौत के बाद लोग शव को नहीं दफनाते बल्कि उसे अपने साथ ही रखते हैं.

 मत्यु के बाद शव को परिवार के सदस्य की तरह ही रखा जाता है

परिवार का ही हिस्सा होते हैं शव

आमतौर पर मृत्यु होने के बाद अंतिम संस्कार जल्द से जल्द कर दिया जाता है. लेकिन तोरजा समाज के लोग मृत्यु के बाद भी शव को शव नहीं मानते. यहां शव परिवार का ही हिस्सा होते हैं. शव को घर में वैसे ही रखा जाता है जैसा वो व्यक्ति मृत्यु से पहले था. ये लोग मृतक को बीमार व्यक्ति की तरह मानते हैं, जिसे 'मकुला' कहते हैं.

नाश्ता, दोपहर का खाना, शाम की चाय और रात का खाना नियमित तौर पर दिया जाता है

वो रोजाना उन्हें नहलाते हैं, खाना खिलाते हैं, उनका ध्यान रखते हैं. उनका शरीर सुरक्षित रहे इसके लिए फॉर्मल्डिहाइड और पानी का मिश्रण नियमित रूप से शरीर पर लगाते रहते हैं. इनका कहना...

कहते हैं हमारे अपने जो गुजर जाते हैं वो हमेशा हमारे दिलों और यादों में जिंदा रहते हैं. लेकिन इंडोनेशिया का एक समाज अपने अपनों से इतना प्यार करता है कि उनकी मौत के बाद भी उन्हें खुद से अलग नहीं कर पाता.

दक्षिण सुलावेसी के पहाड़ों पर रहने वाले तोरजा समाज के लोगों की ये कहानी शायद किसी डरावनी फिल्म जैसी लगे, लेकिन ये उतनी ही सत्य है जितना कि मौत खुद. अपने परिवार के किसी सदस्य की मौत के बाद लोग शव को नहीं दफनाते बल्कि उसे अपने साथ ही रखते हैं.

 मत्यु के बाद शव को परिवार के सदस्य की तरह ही रखा जाता है

परिवार का ही हिस्सा होते हैं शव

आमतौर पर मृत्यु होने के बाद अंतिम संस्कार जल्द से जल्द कर दिया जाता है. लेकिन तोरजा समाज के लोग मृत्यु के बाद भी शव को शव नहीं मानते. यहां शव परिवार का ही हिस्सा होते हैं. शव को घर में वैसे ही रखा जाता है जैसा वो व्यक्ति मृत्यु से पहले था. ये लोग मृतक को बीमार व्यक्ति की तरह मानते हैं, जिसे 'मकुला' कहते हैं.

नाश्ता, दोपहर का खाना, शाम की चाय और रात का खाना नियमित तौर पर दिया जाता है

वो रोजाना उन्हें नहलाते हैं, खाना खिलाते हैं, उनका ध्यान रखते हैं. उनका शरीर सुरक्षित रहे इसके लिए फॉर्मल्डिहाइड और पानी का मिश्रण नियमित रूप से शरीर पर लगाते रहते हैं. इनका कहना है कि इन्हें शवों से डर नहीं लगता क्योंकि मृतक के प्रति प्यार, डर से ज्यादा होता है.

 तीन साल के बच्चे की मौत के बाद उसके भाई-बहन ने उसे अकेला नही छोड़ा. वो उससे पहले की तरह ही बात करते हैं. 

मत्यु और अंतिम संस्कार एक बीच होता है एक लंबा अंतराल

अपने घर में शव के साथ रहना इनके लिए जरा भी अजीब नहीं है, क्योंकि ये उनकी संस्कृति है. इस समाज की मान्यता है कि इंसान के अंतिम संस्कार में पूरा कुनबा उपस्थित रहना चाहिए. इसलिए जब तक परिवार के सभी लोग इकट्ठा नहीं होते शव का अंतिम संस्कार नहीं किया जाता.

 डेबोरा की मृत्यु 73 साल की उम्र में 2009 में हो गई थी. इनका शरीर अब ममी बन गया है

जो लोग गरीब होते हैं वो शव को ज्यादा दिन साथ नहीं रख पाते और जल्दी ही अंतिम संस्कार कर देते हैं. मध्यमवर्गीय लोग शव को कुछ महीनों तक साथ रखते हैं, और उच्चवर्गीय लोग शव को सालों अपने साथ रखते हैं. शव को साथ रखना पूरी तरह परिवार के सामर्थ्य पर निर्भर करता है.

 इंडोनेशिया के सुलावेसी में तोरजा समाज के करीब पांच लाख लोग रहते हैं.

ये भी पढ़ें- अंतिम विदाई जहां मरने वाले को ‘जिंदा’ दफन किया गया

कैसे होता है अंतिम संस्कार

अंतिम संस्कार में पूरा कुनबा शामिल होता है. ये बहुत बड़ा संस्कार माना जाता है औऱ कई दिनों तक चलता है, इसमें भव्य भोज का आयोजन किया जाता है. इस अवसर पर भैंसे की बलि देते हैं. मान्यता के अनुसार जो व्यक्ति मर जाता है उसके साथ भैंसे का होना जरूरी है क्योंकि मरने के बाद भैंसा ही दूसरी दुनिया तक जाने का माध्यम होता है.

 इस प्राकृतिक गुफाओं वाले स्थान को टोंगकोनन कहा जाता है

शव को दफनाते नहीं, बल्कि पहाड़ियों पर बनी प्राकृतिक गुफाओं में उन्‍हें एक ताबूत में रख दिया जाता है. इन गुफाओं में जरूरत की सभी चीजें ताबूत के साथ रखी जाती हैं. माना जाता है कि आत्माएं उनका इस्तेमाल करेंगी.

ये भी पढ़ें- एक शहीद सैनिक, जो आज भी देश की सेवा में है!

अंतिम संस्कार के बाद भी भुलाया नहीं जाता

अंतिम संस्कार करने के बाद भी तोरजा समाज अपने अपनों को नहीं भूलता. हर तीन साल में दूसरा अंतिम संस्कार किया जाता है जिसे 'मानेन' कहते हैं. इसे शवों का सफाई संस्कार भी कहते हैं.

 अगस्त के महीने में होता है ये संस्कार

शवों को ताबूतों से निकाला जाता है और उस स्थान पर लाया जाता है जहां उनकी मौत हुई थी. तीन साल के बाद शव का रूप बदल जाता है. लोग शव को साफ करते हैं, उनके बाल बनाते हैं, और नए कपड़े पहनाते हैं. उनके साथ तस्वीरें भी खिंचवाते हैं. इस दौरान ताबूतों की मरम्मत भी की जाती है.

 अपने परिजनों के शव को नए कपड़े पहनाता एक युवक

 

 क्रिस्टीना की मौत 2011 में हो गई थी उनका पोता उनके साथ तस्वीर खिचवाता हुआ

बाद में शवों को ताबूत में रखकर उनके स्थान पर वापस छोड़ दिया जाता है.   

 लकड़ी के ताबूत में शव को वापस टोंगकोनन ले जाया जाता है जहां सारे शवों को रखा जाता है. इस समय परिवार के सभी लोग साथ जाते हैं

माना जाता है ऐसा करके लोग मृतकों की आत्माओं का स्वागत करते हैं. ये संस्कार अपने अपनों को याद करने और उनके प्रति प्यार दिखाने का एक तरीका होता है.

बच्चों के साथ खाने की चीजें और खिलौने भी रखे जाते हैं

ऐसा करने की एक खास वजह ये भी होती है परिवार का वंश जो आगे बढ़ चुका है वो अपने पूर्वजों की मृत्यु पर तो था नहीं, ऐसे में नई पीढ़ी के लोग अपने पूर्वजों के प्रति आभार व्यक्त करते हैं.

ये है तोरजा समाज की अनोखी परंपरा

देखा जाए तो ये परंपरा लोगों के दिलों में छुपा प्यार दर्शाती हैं. ये लोग मोह के इन धागों को मौत के बाद भी नहीं तोड़ पाते, और मरने वाले को भी तोड़ने नहीं देते. मौत इनके लिए मौत है ही नहीं. दुनिया के लिए मौत का ये चेहरा भले ही अजीब और डरावना हो लेकिन इस समाज का यही सत्य है और ये सत्य ही इनकी सभ्यता.

इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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