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संस्कृति

नदियों का अपमान करना हम कब बंद करेंगे ?

    • आर.के.सिन्हा
    • Updated: 08 अक्टूबर, 2016 07:38 PM
  • 08 अक्टूबर, 2016 07:38 PM
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पिछले तीन दशकों से गंगा को निर्मल करने का कार्य चल रहा है. लेकिन इसमें अपेक्षित सफलता नहीं मिली. लगता है कि सरकार भले ही इसे स्वच्छ करने के संबंध में प्रयासरत है, पर जनता कोई बहुत गंभीर नहीं है.

अब कभी-कभी तो ऐसा लगता है कि शायद हम और हमारा समाज ही अपनी जीवनदायनी नदियों को साफ-निर्मल रखने को लेकर गंभीर नहीं है. लाख सरकारी कोशिशों और प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के आहवान के बावजूद इस बार भी गणेशोत्सव पर देशभर में गणेश की प्रतिमाएं नदियों में ही विसर्जित होती रहीं. मानों नदियों की सफाई को लेकर किसी के मन में संवेदना ही न बची हो.

गणेशोत्सव के बाद अब दुर्गा पूजा का समय आ गया. फिर दिवाली, चित्रगुप्त पूजा और फिर छठ. अगर गणेशोत्सव पर इको फ्रेंडली गणेश की मूर्तियां बन और बिक सकती हैं तो फिर दुर्गा पूजा के वक्त क्यों नहीं. अगर हम अपने को बदलेंगे नहीं तो फिर हमें अपनी नदियों की गंदगी और उनके प्रदूषित होने वाले किसी मसले पर बोलने का अधिकार नहीं होगा.

कुछेक गणेशोत्सव समितियों ने ही गणेश की इको फ्रेंडली प्रतिमाएं बनाईं. इको फ्रेंडली गणेश प्रतिमाओं की खासियत यह थी कि इन्हें नारियल और सुपारी के रेशों और छिलकों से तैयार किया गया था. इन प्रतिमाओं में शुद्ध रूप से मिट्टी, गोंद और हर्बल रंगों का ही उपयोग किया गया. 'स्प्राउट गणेश' नाम की स्वयंसेवी संस्था ने मक्का के आटा, गेंहू के आटा, पालक के पत्ते आदि से शुद्ध शाकाहारी नूडल्स बनाये जिन्हे मिट्टी की खोखली गणेश की प्रतिमा में भर दिया. इससे मिट्टी का भी सीमित उपयोग हुआ और भारी मात्रा में मूर्ति विसर्जन के बाद मछलियों को भी भोजन प्राप्त हो गया.

 मछलियों के लिए गणेश! (साभार- afaqs.com)

इस संस्था ने केवल 9 इंच की मूर्तियों का ही निर्माण और प्रचार किया बल्कि छोटी मूर्तियों के प्रचलन को प्रोत्साहित किया. कहने की जरूरत नहीं कि इस तरह की मूर्तियों के नदियों में विर्सजित करने से नदियां कतई...

अब कभी-कभी तो ऐसा लगता है कि शायद हम और हमारा समाज ही अपनी जीवनदायनी नदियों को साफ-निर्मल रखने को लेकर गंभीर नहीं है. लाख सरकारी कोशिशों और प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के आहवान के बावजूद इस बार भी गणेशोत्सव पर देशभर में गणेश की प्रतिमाएं नदियों में ही विसर्जित होती रहीं. मानों नदियों की सफाई को लेकर किसी के मन में संवेदना ही न बची हो.

गणेशोत्सव के बाद अब दुर्गा पूजा का समय आ गया. फिर दिवाली, चित्रगुप्त पूजा और फिर छठ. अगर गणेशोत्सव पर इको फ्रेंडली गणेश की मूर्तियां बन और बिक सकती हैं तो फिर दुर्गा पूजा के वक्त क्यों नहीं. अगर हम अपने को बदलेंगे नहीं तो फिर हमें अपनी नदियों की गंदगी और उनके प्रदूषित होने वाले किसी मसले पर बोलने का अधिकार नहीं होगा.

कुछेक गणेशोत्सव समितियों ने ही गणेश की इको फ्रेंडली प्रतिमाएं बनाईं. इको फ्रेंडली गणेश प्रतिमाओं की खासियत यह थी कि इन्हें नारियल और सुपारी के रेशों और छिलकों से तैयार किया गया था. इन प्रतिमाओं में शुद्ध रूप से मिट्टी, गोंद और हर्बल रंगों का ही उपयोग किया गया. 'स्प्राउट गणेश' नाम की स्वयंसेवी संस्था ने मक्का के आटा, गेंहू के आटा, पालक के पत्ते आदि से शुद्ध शाकाहारी नूडल्स बनाये जिन्हे मिट्टी की खोखली गणेश की प्रतिमा में भर दिया. इससे मिट्टी का भी सीमित उपयोग हुआ और भारी मात्रा में मूर्ति विसर्जन के बाद मछलियों को भी भोजन प्राप्त हो गया.

 मछलियों के लिए गणेश! (साभार- afaqs.com)

इस संस्था ने केवल 9 इंच की मूर्तियों का ही निर्माण और प्रचार किया बल्कि छोटी मूर्तियों के प्रचलन को प्रोत्साहित किया. कहने की जरूरत नहीं कि इस तरह की मूर्तियों के नदियों में विर्सजित करने से नदियां कतई प्रदूषित नहीं होंगी.

आपको याद होगा कि एक दौर में मूर्तियां मिट्टी की ही बनती थीं. उन पर स्वाभाविक हर्बल रंग ही किए जाते थे. पर अब तो ये पत्थर तथा भारी धातुओं और प्लास्टर ऑफ़ पेरिस जैसी घातक वस्तुओं की भी बनने लगी हैं. कुछ मूर्तियां जो पत्थर से बन रही हैं, उन पर खतरनाक रसायनों से तैयार रंग किए जाते हैं. और ये सब अंततः नदियों में ही पहुंचते हैं.

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कुछ साल पहले केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (सीपीसीबी) ने दुर्गा पूजा की मूर्तियों के हुगली नदी में विसर्जित करने के असर पर एक आंखें खोलने वाला अध्ययन किया था. उसके मुताबिक, हर साल दुर्गा पूजा के अंत में करीब 20 हजार मां दुर्गा की मूर्तियां हुगली में विसर्जित की जाती हैं. इसके चलते नदी में करीब 17 टन वार्निश और बड़ी मात्रा में रासायनिक रंग हुगली के जल में मिलता है.

इन रंगों में मैगनीज, सीसा, क्रोमियम जैसे धातु मिले होते हैं. दुर्गा पूजा के बाद हुगली में तेल मोबिल और ग्रीस की मात्रा में भारी इजाफा हो जाता है.

जरा सोचिए, इतनी मूर्तियों के नदियों में जाने से उनके साथ हम कितना अन्याय कर रहे हैं. देखिए..दो बातें एक साथ नहीं चल सकती. एक तरफ हम नदियों को साफ करने का संकल्प लें, दूसरी ओर इन्हें भांति-भांति तरीकों से गंदा करें. नदियों-समुद्र में मूर्ति विसर्जन की परम्परा पर विराम लगाने की रस्मीतौर पर बरसों से पुरजोर मांग हो रही है. पर कोई नहीं जानता कि इस मांग से कब भारतीय समाज अपने को जोड़ेगा. फिलहाल तो तस्वीर निराश करने वाली है.

 मूर्तियों का नदियों में जाना क्या नदियों से अन्याय नहीं है?

इनके नदी और समुद्र में मिलने से इनका जल कितना प्रदूषित होता है, ये अब साफ है. और किसे नहीं पता कि उत्तर प्रदेश के कई समुदाय गंगा नदी में लाशें तक बहा देते हैं.

दो साल पहले मकर सक्रांति पर दर्जनों लाशें कानपुर के पास गंगा में बहती हुई मिली थीं. यह नहीं हो सकता कि ये परम्पराएं भी चलती रहे और गंगा अविरल और निर्मल भी बनीं रहे. एक बात समझ लेनी चाहिए कि नदियों को साफ करना और साफ रखना सिर्फ सरकारों का ही दायित्व नहीं हो सकता. इस कार्य में समाज की सक्रिय और समर्पित भागेदारी भी जरूरी है.

इसलिए अब समाज के जाग जाने का वक्त भी आ गया है. देखा जाए, तो इसमें पहले ही काफी देरी हो चुकी है. हम गंगा सहित तमाम नदियों के साथ निरंतर खिलवाड़ कर रहे हैं.

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बहरहाल, केन्द्र सरकार की चाहत है कि आगामी 2018 तक गंगा सफाई की महात्वाकांक्षी परियोजना पूरी हो जाए. सरकार ने सुप्रीम कोर्ट को आश्वासन दिया है कि गंगा नदी की सफाई सरकार के इसी कार्यकाल में पूरी हो जाएगी. केंद्र सरकार का जवाब सुप्रीम कोर्ट में तब आया जब अदालत की बेंच ने पर्यावरणविद एमसी मेहता की जनहित याचिका पर सुनवाई के दौरान केंद्र सरकार को आड़े हाथ लेते हुए पूछा था कि उसके शासन काल में गंगा की सफाई का काम पूरा हो जाएगा या नहीं. इस पर सॉलीसिटर जनरल रणजीत कुमार ने न्यायालय के समक्ष सरकार का पक्ष रखते हुए कहा कि गंगा को साफ करने का काम 2018 तक पूरा कर दिया जाएगा.

 सफाई की जिम्मेदारी हमारी भी...

अब सरकार तो यह चाहती तो है कि गंगा साफ हो जाए. पर देश कितना चाहता है. क्या यह कार्य सिर्फ सरकार अकेले पूरा कर सकती है? इसके लिए सबका सक्रिय सहयोग जरूरी है. सुप्रीम कोर्ट तो यहां तक मानता है कि पिछले 30 सालों में गंगा की सफाई के लिए कोई काम ही नहीं हुआ है. कोई सवाल पूछे उनसे जो पिछले 70 वर्षों से देश पर शासन करते रहे हैं.

कुछ साल पहले तक गणेशोत्सव महाराष्ट्र और कुछ निकटवर्ती राज्यों तक ही सीमित था. अब इसने भी अखिल भारतीय स्वरूप ले लिया है. इस बार दिल्ली में गणेशोत्सव के दौरान सैकड़ों गणेश प्रतिमाएं यमुना में विसर्जित हुईं. सबसे बड़ी बात ये है कि गणेशोत्सव को गैर-मराठी भी मना रहे हैं. इसमें कोई बुराई भी नहीं है. पर समस्या ये है कि विसर्जन के विकल्प नहीं खोजे जा रहे. जिसके चलते नदियां बदबूदार होती जा रही हैं. यमुना तो अब नाले में तब्दील हो चुकी है, एसा कहा जाय तो अतिशयोक्ति नहीं होगी.

क्या इतना भी संभव नहीं है कि स्थानीय प्रशासन यह सुनिश्चित कर ले कि मूर्तियों को विसर्जित करने से पहले उन्हें पहनाए गए सारे वस्त्रों तथा विभिन्न धातुओं से बने गहनें उतार लिए जाएं. इस नियम का कठोरता से पालन हो. लाख सिर पटकने के बाद भी भक्तों को समझ नहीं आ रहा कि अगर हम प्रकृति का ही सम्मान नहीं करेंगे तो हम ईश्वर का सम्मान कहां से करेंगे.

अब मैं बात गंगा सफाई को लेकर करना चाहता हूं. गंगा के 2500 किलोमीटर लंबे मार्ग में देश की 43 फीसद आबादी बसी हुई है. यह विश्व का अधिकतम मानव घनत्व वाला क्षेत्र है. ऋषिकेश, हरिद्वार, कानपुर, इलाहाबाद, बनारस, पटना, मुंगेर, भागलपुर, साहेबगंज, कोलकाता जैसे कई महत्वपूर्ण और बड़े-बड़े नगर गंगा के किनारे बसे हुए हैं. इन नगरों में हजारों कल कारखाने हैं. इनसे निकलने वाला कचरा सब गंगा में ही जाता है. सरकारें तो गंगा,यमुना और दूसरी नदियों को साफ करने को लेकर गंभीर हैं.

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पिछले तीन दशकों से गंगा को निर्मल करने का कार्य चल रहा है. लेकिन, इसमें अपेक्षित सफलता नहीं मिली. अब तो लगता है कि सरकार भले ही इसे स्वच्छ करने के संबंध में प्रयासरत है, पर जनता कोई बहुत गंभीर नहीं है. इसलिए ही सरकार ने गंगा सफाई परियोजना को सरकारी के बजाय सामाजिक बनाना तय किया है. सरकार चाहती है कि गंगा को हमेशा स्वच्छ बनाए रखने का जिम्मा इसके किनारे रहने वाले और इसकी आस्था में लगे लोग खुद ही संभालें. क्या वे इस दायित्व को अपने कंधे पर लेने के लिए तैयार हैं?

बेशक, गंगा के सामने संसार की कोई भी नदी नहीं ठहरती. खास तौर पर उसके द्वारा पोषित आबादी के मुकाबले में. वेदों में कहा गया है कि गंगा के स्मरण और दर्शन मात्र से समस्त पाप धुल जाते हैं. उसके जल का आचमन करने और उसमें स्नान करना हजारों तीर्थ करने के बराबर है. पर, अफसोस कि हमने सदियों से गंगा का अनादर किया है. अब तो हरिद्वार के बाद से ही गंगा की गुणवत्ता प्रभावित होने लगती है.

एक बात और. गंगा और दूसरी नदियों की सफाई ही पर्याप्त नहीं है. वे जिधर से गुजरती हैं, वहां पर पर्यटन और मनोरंजन उद्योग को भी बढ़ावा दिया जाए. लंदन में टेम्स नदी और टापू देश सिंगापुर ने सिंगापुरा नदी के तट पर सुन्दर पर्यटन स्थल विकसित किए गए हैं. यह सब हम क्यों नहीं कर सकते. इसकी शुरूआत गंगा से क्यों न हो. अगर इस तरह की किसी योजना पर अमल हो जाए तो बड़ी तादाद में स्थानीय लोगों को रोजगार भी मिलने लगेगा.

कहने को तो गंगा और दूसरी नदियों को भारत में सिर्फ नदी के रूप में ही नहीं देखा जाता. ये भारतीय जनमानस की आस्था तथा आध्यात्मिकता की प्रतीक हैं. पर, लगता है कि ये सब बनावटी बातें हैं. हम एक तरफ इन्हें पूजनीय मानते हैं, दूसरी तरफ गंदा करके इसका अपमान करने से भी बाज नहीं आते. क्या हम कभी सुधरेंगे?

इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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