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समाज

हमेशा हिंदुओं के पर्व-त्योहारों पर ही सवाल क्यों?

    • विनीत कुमार
    • Updated: 16 अक्टूबर, 2015 06:40 PM
  • 16 अक्टूबर, 2015 06:40 PM
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कुछ संगठन हमेशा यह शिकायत करते हैं हमारे देश में अमूमन हिंदुओं के त्योहारों, मान्यताओं पर ही निशाना साधा जाता है. फिर वह चाहे होली हो, दिवाली या फिर गणेश चतुर्थी. जबकि सवाल उठाने वालों में कई तो हिंदू ही होते हैं.

कुछ संगठन हमेशा यह शिकायत करते हैं हमारे देश में अमूमन हिंदुओं के त्योहारों, मान्यताओं पर ही निशाना साधा जाता है. फिर वह चाहे होली हो, दिवाली या फिर गणेश चतुर्थी. कुछ लोग हर बार हमारी ही परंपरा की आलोचना क्यों करने लगते हैं? जबकि सवाल उठाने वालों में कई तो हिंदू ही होते हैं.

बात पुरानी है लेकिन धर्म से जुड़ी है, इसलिए यहां दोहराना जरूरी है. किसी ने ठीक कहा है कि धर्म अफीम के नशे की तरह होता है, और भला जो अफीम के नशे में हो उसे क्या दिखेगा. यह सारी दलील इसलिए कि दिल्ली के तीन नवजात बच्चों ने दशहरा और दिवाली के दौरान इस्तेमाल होने वाले पटाखों पर रोक लगाने के लिए सुप्रीम कोर्ट में याचिका दी है.

याचिकाकर्ताओं में जिनके नाम हैं, उनमें अर्जुन गोयल, आरव भंडारी और जोया राव भसीन शामिल हैं. इसमें अर्जुन और आरव की उम्र केवल छह महीने जबकि जोया की उम्र 14 महीने है. इनके पिता की ओर से दायर याचिका में कहा गया है, 'हमारे फेफड़े तो अभी पूरी तरह से विकसित भी नहीं हुए हैं. हम पटाखों से पैदा होने वाले और प्रदूषण को और नहीं झेल सकते.'

अब कौन नहीं जानता कि प्रदूषण के मामले में दिल्ली कहां है. त्योहारों खासकर दिवाली और दशहरा के दौरान तो यह हालात तो और भी बदतर हो जाते हैं. ऐसे में अगर कोई याचिका आई है तो उसमें क्या गलत है. अभी हाल में नदियों में पूजा सामग्रियों को डालने से लेकर मूर्तियों के विसर्जन पर बवाल मचा. वाराणसी में कुछ संगठन तो आरपार की लड़ाई के मूड में दिखे. क्या पता अभी दुर्गा पूजा के बाद भी कुछ वैसे ही दृश्य दिखें.

लेकिन क्या यह सच नहीं है कि गंगा जिसे हम और आप 'मां' कहते हैं उसकी गिनती दुनिया के सबसे प्रदूषित नदियों में होती है. गाय पर सियासत करना हम जानते हैं लेकिन शहरों में सड़कों पर घूमती तथा कूड़ा-कचड़ा और कभी-कभी पॉलिथीन तक चबा जाने वाली गायों के लिए हमारे पास कोई योजना नहीं है. जब लोग किसी पुल के ऊपर से ही भगवान गणेश की मूर्तियों का विसर्जन कर आते हैं, तब उनकी श्रद्धा कहां जाती है?

दोष देने वाले...

कुछ संगठन हमेशा यह शिकायत करते हैं हमारे देश में अमूमन हिंदुओं के त्योहारों, मान्यताओं पर ही निशाना साधा जाता है. फिर वह चाहे होली हो, दिवाली या फिर गणेश चतुर्थी. कुछ लोग हर बार हमारी ही परंपरा की आलोचना क्यों करने लगते हैं? जबकि सवाल उठाने वालों में कई तो हिंदू ही होते हैं.

बात पुरानी है लेकिन धर्म से जुड़ी है, इसलिए यहां दोहराना जरूरी है. किसी ने ठीक कहा है कि धर्म अफीम के नशे की तरह होता है, और भला जो अफीम के नशे में हो उसे क्या दिखेगा. यह सारी दलील इसलिए कि दिल्ली के तीन नवजात बच्चों ने दशहरा और दिवाली के दौरान इस्तेमाल होने वाले पटाखों पर रोक लगाने के लिए सुप्रीम कोर्ट में याचिका दी है.

याचिकाकर्ताओं में जिनके नाम हैं, उनमें अर्जुन गोयल, आरव भंडारी और जोया राव भसीन शामिल हैं. इसमें अर्जुन और आरव की उम्र केवल छह महीने जबकि जोया की उम्र 14 महीने है. इनके पिता की ओर से दायर याचिका में कहा गया है, 'हमारे फेफड़े तो अभी पूरी तरह से विकसित भी नहीं हुए हैं. हम पटाखों से पैदा होने वाले और प्रदूषण को और नहीं झेल सकते.'

अब कौन नहीं जानता कि प्रदूषण के मामले में दिल्ली कहां है. त्योहारों खासकर दिवाली और दशहरा के दौरान तो यह हालात तो और भी बदतर हो जाते हैं. ऐसे में अगर कोई याचिका आई है तो उसमें क्या गलत है. अभी हाल में नदियों में पूजा सामग्रियों को डालने से लेकर मूर्तियों के विसर्जन पर बवाल मचा. वाराणसी में कुछ संगठन तो आरपार की लड़ाई के मूड में दिखे. क्या पता अभी दुर्गा पूजा के बाद भी कुछ वैसे ही दृश्य दिखें.

लेकिन क्या यह सच नहीं है कि गंगा जिसे हम और आप 'मां' कहते हैं उसकी गिनती दुनिया के सबसे प्रदूषित नदियों में होती है. गाय पर सियासत करना हम जानते हैं लेकिन शहरों में सड़कों पर घूमती तथा कूड़ा-कचड़ा और कभी-कभी पॉलिथीन तक चबा जाने वाली गायों के लिए हमारे पास कोई योजना नहीं है. जब लोग किसी पुल के ऊपर से ही भगवान गणेश की मूर्तियों का विसर्जन कर आते हैं, तब उनकी श्रद्धा कहां जाती है?

दोष देने वाले हमारी मान्यताओं पर सवाल नहीं उठा रहे. सवाल अंधभक्ति में हो रहे हमारे ही प्रकृति के नुकसान को लेकर है. हमें यह समझना होगा कि हमारे सामने सबकुछ बहुत तेजी से बदल रहा है. एक आंकड़े के अनुसार हमारे देश में हर साल 7 लाख से ज्यादा लोग वायु-प्रदूषण से होने वाली बीमारियों के कारण मौत की आगोश में चले जाते हैं.

इसलिए जरूरी है कि धर्म पर बेतुकी बहस छोड़ हम अपनी प्रकृति के बारे में बात करना शुरू करें. क्योंकि प्रकृति है तो हम हैं और हम रहेंगे तभी तो धर्म भी होगा.

इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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