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Updated: 22 दिसम्बर, 2014 06:18 PM
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बुंदेलखंड इलाके के बांदा जिले के बिसंडा थाना क्षेत्र के शिवगांव का 45 वर्षीय किसान संतोष सिंह लाख कोशिशों के बावजूद सयानी होती 17 साल की बेटी अंकुला की शादी के लिए दहेज का इंतजाम नहीं कर पाया. उस पर पहले से ही इलाहाबाद बैंक का 80,000 रु. कर्ज था. इसके अलावा एक लाख रु. का कर्ज गांव के साहूकार का भी था. दो साल पहले पांच बीघा जमीन को गिरवी रखकर उसने बड़ी बेटी रेनू की शादी के लिए यह कर्ज लिया था. रिश्तेदार तक उसे फूटी कौड़ी देने को राजी नहीं थे. इन दो बेटियों के अलावा उसकी 12 और आठ साल की दो और बेटियां भी थीं. मूंछों पर ताव और कंधे पर बंदूक के लिए मशहूर बांदा के इस किसान ने थक-हारकर वही रास्ता चुना जो इससे पहले तीन साल में इस गांव के 7 किसान अपना चुके थे- यानी खुदकुशी. और वे सारे बोझ्, जिनसे डरकर संतोष दुनिया से चला गया था, आज उसकी बेवा कुसुमा को उठाने हैं. बुझे चूल्हे के पास बैठी अंकुला की सहमी आवाज सुनाई दी, ‘‘पापा मर गए, एक दिन ये पूरा गांव मरेगा.’’

दरअसल अंकुला ने जो कहा, वह एक बड़ी टीस की छोटी-सी सिसकी भर है. पिछली सरकार में 2010 में 7,266 करोड़ रु. का बहुचर्चित बुंदेलखंड सूखा राहत पैकेज हासिल करने के बावजूद बुंदेलखंड के गांवों में किसानों की आत्महत्या का सिलसिला खत्म ही नहीं हुआ. किसान आत्महत्या पर लंबे समय से काम कर रही बांदा की प्रवास सोसाइटी के संचालक आशीष सागर के मुताबिक 2001 से अब तक 4,175 किसान बुंदेलखंड के उत्तर प्रदेश वाले हिस्से के सात जिलों में आत्महत्या कर चुके हैं. और ऐक्शन एड के नवंबर, 2014 में आए सर्वे के मुताबिक 2014 में इन 7 जिलों में 109 किसानों ने आत्महत्या की है. हालांकि, केंद्रीय कृषि मंत्री राधा मोहन सिंह को अभी 2014 के लिए बुंदेलखंड के आंकड़ों की जानकारी नहीं है. वैसे, महाराष्ट्र और तेलंगाना के बारे में वे खासे चिंतित हैं और देश में सिंचाई व्यवस्था की सूरत बदलना चाहते हैं.

किसानों की दुर्दशा

पिछले महीने विदर्भ का 75 साल का किसान काशीराम भगवान इंदारे अपनी चिता खुद बनाकर उसमें जिंदा जल गया. इस घटना से देश की सबसे बड़ी अदालत भी हिल गई. 18 दिसंबर को सुप्रीम कोर्ट ने एक पीआइएल की सुनवाई के बाद महाराष्ट्र में किसान आत्महत्याओं के मामले की खुद छानबीन करने का फैसला किया. वैसे सरकारी आंकड़ों के मुताबिक महाराष्ट्र में 2004 से 2013 के बीच के 10 साल में 36,848 किसानों ने आत्महत्या की. इस साल भी विदर्भ और मराठवाड़ा में मौत का यह तांडव जारी है. किसानों के मुद्दे पर सत्ता में आई बीजेपी की देवेंद्र फडऩवीस सरकार ने दिसंबर में 7,000 करोड़ रु. के राहत पैकेज और 34,500 करोड़ रु. के दीर्घकालिक सूखा राहत पैकेज की घोषणा की. इसके अलावा उन्होंने केंद्र सरकार से भी 4,677 करोड़ रु. की तत्काल सहायता मांगी है. लेकिन क्या कपास की खेती में कंगाल हो गए किसानों की जान इससे बच पाएगी? विदर्भ जन-आंदोलन समिति के किशोर तिवारी को इसका बिल्कुल भरोसा नहीं है. उनका साफ कहना है कि जमीन बरबाद हो चुकी है, पानी है नहीं, ऐसे में नकदी फसलों का यह तिलिस्म जब तक टूटेगा नहीं, तब तक पैकेज से कुछ नहीं होगा.

हर राज्य की यही कहानी

आंकड़े तेलंगाना के भी भयानक हैं. लेकिन इससे भी खतरनाक बात यह है कि अब तो पंजाब जैसे कृषि प्रधान राज्यों से भी किसानों की खुदकुशी के समाचार आने लगे हैं. तभी तो 11 दिसंबर को देश की संसद में भी कृषि संकट पर जमकर बहस हुई. 10 साल तक केंद्र की सत्ता में रही कांग्रेस के वरिष्ठ नेता आनंद शर्मा और दिग्विजय सिंह ने किसान आत्महत्या पर सरकार को आड़े हाथ लिया औैर पूछा कि किसानों के अच्छे दिन कब आएंगे.

यह सोचती है सरकार

कांग्रेस, समाजवादी पार्टी और जेडी (यू) नेताओं ने सरकार पर फसलों के न्यूनतम समर्थन मूल्य को बढ़ाने और सस्ता खाद-बीज दिलाने का दबाव बनाया. बदले में सरकारी पक्ष ने भी वही आंकड़े सामने रख दिए जिनको 10 साल से यूपीए सरकार अपनी ढाल बनाती रही थी. सरकार ने यह भी साफ कर दिया कि किसान आत्महत्या के जितने मामले दर्ज किए जाते हैं उनमें से महज 8.7 फीसदी ही ऐसे हैं जिसमें किसान खेती से जुड़ी परेशानी के कारण आत्महत्या करता है. यानी आत्महत्या करने वाले 91 फीसदी किसानों के प्रति सरकार की कोई जिम्मेदारी नहीं है.

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लेखक

पीयूष बबेले और संतोष पाठक
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