• होम
  • सियासत
  • समाज
  • स्पोर्ट्स
  • सिनेमा
  • सोशल मीडिया
  • इकोनॉमी
  • ह्यूमर
  • टेक्नोलॉजी
  • वीडियो
होम
स्पोर्ट्स

जब 'स्पोर्ट्स' हमारे स्कूलों में 'एक्स्ट्रा करिकुलम एक्टिविटी' है तो फिर कैसा मेडल ?

    • अंकिता जैन
    • Updated: 09 अगस्त, 2021 05:57 PM
  • 09 अगस्त, 2021 05:57 PM
offline
एक ऐसे समय में जब हम ओलंपिक खेलों में मेडल की कामना कर रहे हों हमारे लिए ये जान लेना बहुत जरूरी है कि भारत में 'स्पोर्ट्स' अभी भी 'एक्स्ट्रा करिकुलम एक्टिविटी' है. हमारे यहां के अविभावक अभी भी 'दसवीं/बारहवीं में 95% ले आए' की उम्मीद में जी रहे हैं. स्थिति जब ऐसी हो मेडल की कामना ही ही बेकार है.

भारत में 'स्पोर्ट्स' अभी भी 'एक्स्ट्रा करिकुलम एक्टिविटी' है. हमारे यहां के अविभावक अभी भी 'दसवीं/बारहवीं में 95% ले आए' की उम्मीद में जी रहे हैं. मैंने छठवीं कक्षा से खो-खो खेलना शुरू किया था. विद्यालयीन पढ़ाई के दौरान संभागीय एवं प्रदेश स्तर पर खो-खो और सौ मीटर दौड़ में जाती रही. कॉलेज के दूसरे वर्ष में राष्ट्रीय खो-खो प्रतियोगिता के लिए ग्वालियर टीम में चुनी गई. तब पहली बार 15 दिन की ट्रेनिंग के लिए गुना से ग्वालियर जा पाई. उस समय भी माता-पिता को यह समझाना उतना आसान नहीं था कि खेलने के लिए भी जाया जा सकता है. थोड़ी राहत मिली क्योंकि माता-पिता दोनों अपने समय में बैडमिंटन और हैंडबॉल के खिलाड़ी रह चुके थे. लेकिन जब दो मैच जीतने के बाद हम तीसरे में हारे तो वह खेल भी छूट गया. पढ़ाई में सप्लीमेंट्री आ जाए तो दोबारा परीक्षा देने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है. लेकिन खेल में हार जाओ तो अगली बार खेलने से पहले ही उत्साह और उम्मीद दोनों तोड़ दिए जाते हैं. खो-खो छूट गया. बैडमिंटन जो पापा से मिला था यूनिवर्सिटी स्तर पर उसमें खेलती रही साथ में साइड एक्टिविटी की तरह फुटबॉल. लेकिन तब तक यह तय हो चुका था कि खेल में भविष्य नहीं है और विज्ञान की राह पकड़ने से अच्छी नौकरी मिलेगी.

भारत में खेल की पस्तहाली के लिए स्कूल और अभिवाहक दोनों ही जिम्मेदार हैं

मॉडर्न भारतीय माता-पिता आज भी कोरा पर सवाल पूछते हैं 'मेरा बच्चा 5 साल का है आईआईटी/आईआईएम की तैयारी के लिए क्या किया जाना चाहिए'. वहीं अन्य देशों में छः माह से ही बच्चों को खेलों की ट्रेनिंग दी जाने लगती है. 6 माह के बच्चे को पानी मे धकेल कर स्विमिंग सिखानी शुरू कर देते हैं.

नदियों/तालाबों में डुबकियां तो हमारे यहां भी बच्चे लगाते हैं तो फिर हमारे यहां से कोई विनिंग स्विमर क्यों...

भारत में 'स्पोर्ट्स' अभी भी 'एक्स्ट्रा करिकुलम एक्टिविटी' है. हमारे यहां के अविभावक अभी भी 'दसवीं/बारहवीं में 95% ले आए' की उम्मीद में जी रहे हैं. मैंने छठवीं कक्षा से खो-खो खेलना शुरू किया था. विद्यालयीन पढ़ाई के दौरान संभागीय एवं प्रदेश स्तर पर खो-खो और सौ मीटर दौड़ में जाती रही. कॉलेज के दूसरे वर्ष में राष्ट्रीय खो-खो प्रतियोगिता के लिए ग्वालियर टीम में चुनी गई. तब पहली बार 15 दिन की ट्रेनिंग के लिए गुना से ग्वालियर जा पाई. उस समय भी माता-पिता को यह समझाना उतना आसान नहीं था कि खेलने के लिए भी जाया जा सकता है. थोड़ी राहत मिली क्योंकि माता-पिता दोनों अपने समय में बैडमिंटन और हैंडबॉल के खिलाड़ी रह चुके थे. लेकिन जब दो मैच जीतने के बाद हम तीसरे में हारे तो वह खेल भी छूट गया. पढ़ाई में सप्लीमेंट्री आ जाए तो दोबारा परीक्षा देने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है. लेकिन खेल में हार जाओ तो अगली बार खेलने से पहले ही उत्साह और उम्मीद दोनों तोड़ दिए जाते हैं. खो-खो छूट गया. बैडमिंटन जो पापा से मिला था यूनिवर्सिटी स्तर पर उसमें खेलती रही साथ में साइड एक्टिविटी की तरह फुटबॉल. लेकिन तब तक यह तय हो चुका था कि खेल में भविष्य नहीं है और विज्ञान की राह पकड़ने से अच्छी नौकरी मिलेगी.

भारत में खेल की पस्तहाली के लिए स्कूल और अभिवाहक दोनों ही जिम्मेदार हैं

मॉडर्न भारतीय माता-पिता आज भी कोरा पर सवाल पूछते हैं 'मेरा बच्चा 5 साल का है आईआईटी/आईआईएम की तैयारी के लिए क्या किया जाना चाहिए'. वहीं अन्य देशों में छः माह से ही बच्चों को खेलों की ट्रेनिंग दी जाने लगती है. 6 माह के बच्चे को पानी मे धकेल कर स्विमिंग सिखानी शुरू कर देते हैं.

नदियों/तालाबों में डुबकियां तो हमारे यहां भी बच्चे लगाते हैं तो फिर हमारे यहां से कोई विनिंग स्विमर क्यों नहीं निकलता? बेटी अगर खेल को प्रोफेशन चुनने की बात कहे तो घरवालों को चिंता हो जाती है, 'इसके पैर अभी ही घर में नहीं टिक रहे ससुराल में कैसे टिकेगी?' और जो बेटा खेल में जाने की कहे तो घरवालों को चिंता हो जाती है, 'खेल में पैसा नहीं है सिवाय क्रिकेट के, तो इससे शादी कौन करेगा?'.

हम अपने बच्चों को सेफ ज़ोन में रखना चाहते हैं. उन्हें स्ट्रगलर बनाने से डरते हैं. हमें मैडल्स की परवाह सिर्फ ओलंपिक में होती है बाकी दिनों में हम उनके लिए 10 से 5 की एक अच्छी नौकरी और मोटी सैलरी चाहते हैं. इसलिए अगली बार जब मन में ख़याल आए कि 130 करोड़ की आबादी वाला देश 2-4 मैडल लाने के लिए भी इतनी जद्दोजहद क्यों करता है?

क्यों गोल्ड मैडल के लिए हमारी आस पूरी होती नहीं दिखती तो ख़ुद से ये सवाल कीजिएगा कि अब तक जो हुआ सो ठीक अब आगे क्या हम अपने बच्चों के लिए 'स्पोर्ट्स' एक्स्ट्रा करिकुलम ही रखना चाहते हैं या उन्हें उसमें करियर बनाने में मदद करेंगे. और रही आज की हार की बात तो हॉकी का कोई अंतरराष्ट्रीय खेल पिछली बार टीवी पर कब देखा था सोचना एक बार.

ये भी पढ़ें -

नीरज चोपड़ा यदि गेंदबाज होते तो...

Neeraj Chopra ने टोक्यो में पहला भाला फेंकते ही तय कर दिया था आखिरी परिणाम

काश, दिल जीतने का भी कोई ओलंपिक होता, बात तो मैडल से ही बनती है!

इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

ये भी पढ़ें

Read more!

संबंधि‍त ख़बरें

  • offline
    महेंद्र सिंह धोनी अपने आप में मोटिवेशन की मुकम्मल दास्तान हैं!
  • offline
    अब गंभीर को 5 और कोहली-नवीन को कम से कम 2 मैचों के लिए बैन करना चाहिए
  • offline
    गुजरात के खिलाफ 5 छक्के जड़ने वाले रिंकू ने अपनी ज़िंदगी में भी कई बड़े छक्के मारे हैं!
  • offline
    जापान के प्रस्तावित स्पोगोमी खेल का प्रेरणा स्रोत इंडिया ही है
Copyright © 2025 Living Media India Limited. For reprint rights: Syndications Today.

Read :

  • Facebook
  • Twitter

what is Ichowk :

  • About
  • Team
  • Contact
Copyright © 2025 Living Media India Limited. For reprint rights: Syndications Today.
▲