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क्या क्रिकेट ऊंचे तबके के लोगों का खेल है?

    • अनुज मौर्या
    • Updated: 17 जुलाई, 2018 08:56 PM
  • 17 जुलाई, 2018 08:56 PM
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यूं तो कहा जाता है कि खेल में किसी भी जाति या धर्म का शख्स शामिल हो सकता है, बशर्ते उसमें काबीलियत हो. लेकिन क्या यह आदर्शवादी बातें वास्तविक दुनिया में लागू होती भी हैं? अगर देश के सबसे लोकप्रिय खेल क्रिकेट को देखें तो ऐसा कुछ नहीं लगता.

वर्ल्ड एथलेटिक्स चैंपियनशिप में हिमा दास ने भारत को गोल्ड दिलाया है. लोग गूगल पर उन्हें तो ढूंढ़ ही रहे हैं, साथ ही यह भी सर्च कर रहे हैं कि हिमा दास की जाति क्या है? किसी खिलाड़ी की जाति जानने की लोगों की ऐसी उत्सुकता को सही तो नहीं कहा जा सकता, लेकिन इसे गलत भी नहीं ठहराया जा सकता. भारत में अलग-अलग धर्म और जाति के लोग रहते हैं. जिस तरह हर धर्म और जाति में कुछ अलग तरह की परंपराएं देखने को मिलती हैं, ठीक उसी प्रकार जाति के हिसाब से ही खेल भी बंटे हुए से लगते हैं. यूं तो कहा जाता है कि खेल में किसी भी जाति या धर्म का शख्स शामिल हो सकता है, बशर्तें उसमें काबीलियत हो. लेकिन क्या यह आदर्शवादी बातें वास्तविक दुनिया में लागू होती भी हैं? अगर देश के सबसे लोकप्रिय खेल क्रिकेट को देखें तो ऐसा कुछ नहीं लगता.

ऊंचे तबके के लोग खेलते हैं क्रिकेट?

ये सवाल एक बहस का मुद्दा भी है और एक हद तक सच भी है. अगर आंकड़ों को देखा जाए तो इसी ओर इशारा करती हुए तस्वीर बनती है. आजादी के बाद से लेकर अब तक यानी 1947 से लेकर अब तक सिर्फ 4 दलितों को खेलने का मौका मिला है, जबकि इस दौरान 290 टेस्ट क्रिकेटर्स ने भारत के लिए खेला है. वहीं आदिवासियों की बात करें तो उन्हें तो अब तक मौका ही नहीं मिल पाया है. इतना ही नहीं, नॉर्थ ईस्ट से भी भारत की टीम में कोई खिलाड़ी नहीं है. ऐसा नहीं है कि क्रिकेट सिर्फ ऊंचे तबके के लोगों का खेल है, लेकिन जूनियर लेवल पर ही आदिवासी और दलित लोगों को मौका न मिलने की वजह से क्रिकेट में वह पिछड़ जाते हैं. इतना ही नहीं, समानता लाने के लिए उच्चतम स्तर पर खिलाड़ियों का चुनाव मेरिट के आधार पर होना चाहिए.

दलित क्रिकेट खिलाड़ी क्यों नहीं हैं भारत में?

125 करोड़ की आबादी वाले इस देश में करीब 17 फीसदी आबादी दलित है, लेकिन क्रिकेट जैसे लोकप्रिय खेल में उनकी मौजूदगी...

वर्ल्ड एथलेटिक्स चैंपियनशिप में हिमा दास ने भारत को गोल्ड दिलाया है. लोग गूगल पर उन्हें तो ढूंढ़ ही रहे हैं, साथ ही यह भी सर्च कर रहे हैं कि हिमा दास की जाति क्या है? किसी खिलाड़ी की जाति जानने की लोगों की ऐसी उत्सुकता को सही तो नहीं कहा जा सकता, लेकिन इसे गलत भी नहीं ठहराया जा सकता. भारत में अलग-अलग धर्म और जाति के लोग रहते हैं. जिस तरह हर धर्म और जाति में कुछ अलग तरह की परंपराएं देखने को मिलती हैं, ठीक उसी प्रकार जाति के हिसाब से ही खेल भी बंटे हुए से लगते हैं. यूं तो कहा जाता है कि खेल में किसी भी जाति या धर्म का शख्स शामिल हो सकता है, बशर्तें उसमें काबीलियत हो. लेकिन क्या यह आदर्शवादी बातें वास्तविक दुनिया में लागू होती भी हैं? अगर देश के सबसे लोकप्रिय खेल क्रिकेट को देखें तो ऐसा कुछ नहीं लगता.

ऊंचे तबके के लोग खेलते हैं क्रिकेट?

ये सवाल एक बहस का मुद्दा भी है और एक हद तक सच भी है. अगर आंकड़ों को देखा जाए तो इसी ओर इशारा करती हुए तस्वीर बनती है. आजादी के बाद से लेकर अब तक यानी 1947 से लेकर अब तक सिर्फ 4 दलितों को खेलने का मौका मिला है, जबकि इस दौरान 290 टेस्ट क्रिकेटर्स ने भारत के लिए खेला है. वहीं आदिवासियों की बात करें तो उन्हें तो अब तक मौका ही नहीं मिल पाया है. इतना ही नहीं, नॉर्थ ईस्ट से भी भारत की टीम में कोई खिलाड़ी नहीं है. ऐसा नहीं है कि क्रिकेट सिर्फ ऊंचे तबके के लोगों का खेल है, लेकिन जूनियर लेवल पर ही आदिवासी और दलित लोगों को मौका न मिलने की वजह से क्रिकेट में वह पिछड़ जाते हैं. इतना ही नहीं, समानता लाने के लिए उच्चतम स्तर पर खिलाड़ियों का चुनाव मेरिट के आधार पर होना चाहिए.

दलित क्रिकेट खिलाड़ी क्यों नहीं हैं भारत में?

125 करोड़ की आबादी वाले इस देश में करीब 17 फीसदी आबादी दलित है, लेकिन क्रिकेट जैसे लोकप्रिय खेल में उनकी मौजूदगी ना के बराबर है. क्रिकेट में बिनोद कांबली जैसे दलित खिलाड़ी तो हुए, लेकिन ऐसे लोग बेहद कम (4) हैं. एक दलित और सामाजिक न्याय मंत्री रामदास अठावले ने कहा है कि जब दलितों को शिक्षा, नौकरी आदि में रिजर्वेशन दिया जाता है तो फिर खेल में भी उन्होंने रिजर्वेशन दिया जाना चाहिए. हालांकि, जब बात होती है कि बेस्ट 11 चुनने की तो उसमें रिजर्वेशन सिस्टम होने से सिर्फ नुकसान ही होगा. हाल ही में फीफा वर्ल्ड कप में एक छोटा सा देश क्रोएशिया रोनाल्डो और मेसी जैसे धुरंधरों को धकेलते हुए फाइनल तक जा पहुंचा, इससे सबक लेते हुए सरकार को यह समझना चाहिए कि खेल पर अतिरिक्त ध्यान देने की जरूरत है.

आदिवासियों का पसंदीदा खेल है हॉकी

जयपाल सिंह मुंडा, एक आदिवासी, जिसने हॉकी में भारत को पहला स्वर्ण पदक दिलाया. इसी शख्स ने आदिवासियों को संविधान में उनका हक भी दिलाया. आज के समय में हॉकी के खेल में आदिवासियों की बहुलता देखने को मिलती है. झारखंड, छत्तीसगढ़ और ओडिशा के लोगों का पसंदीदा खेल हॉकी ही है और यहां के आदिवासी लोग हॉकी खेलना भी खूब पसंद करते हैं. लेकिन जिस तरह खेलों में हॉकी पिछड़ी हुई सी दिखती है, ठीक उसी तरह हॉकी के अलावा अन्य खेलों में आदिवासी भी पिछड़े हुए हैं. हॉकी के अलावा अन्य खेलों में भी आदिवासी अच्छा प्रदर्शन कर सकते हैं, बशर्ते उन्हें मौका मिले. अगर आदिवासी इलाकों तक खेलों की पहुंच हो जाय या फिर सरकार के प्रयासों के चलते आदिवासी लोगों की पहुंच सभी खेलों तक हो जाए तो वो दिन दूर नहीं जब हॉकी के साथ-साथ क्रिकेट में भी आदिवासी खिलाड़ी अपने झंडे गाड़ेंगे. आपको बता दें कि नवंबर 2018 में ओडिशा सरकार हॉकी वर्ल्ड कप करवाने की योजना बना रही है.

तीरंदाजी भी खूब खेलते हैं आदिवासी

हॉकी के अलावा आदिवासी इलाकों में तीरंदाजी भी खूब लोकप्रिय है. किसी जमाने में आदिवासी इलाकों में तीर-कमान लोगों का हथियार हुआ करते थे. आज के समय में जब ये एक खेल की तरह लोकप्रिय हो रहा है तो भी इसमें आदिवासियों की ही भागीदारी अधिक देखने को मिलती है. बात भले ही झारखंड की हो, छत्तीसगढ़ की हो या ओडिशा की हो, हर जगह के आदिवासी लोग तीरंदाजी में नाम कमा रहे हैं.

क्रिकेट जैसे खेल में दलितों और आदिवासियों के न होने का मतलब ये बिल्कुल नहीं है कि जाति के आधार पर उन्हें खेल में नहीं रखा जाता. जाति और धर्म को मुद्दा बनाने वाले लोग ये भी समझ सकते हैं यहां बात क्रिकेट में भी रिजर्वेशन लाने की हो रही है. ऐसा बिल्कुल नहीं है, बल्कि यहां ये समझने की जरूरत है कि आदिवासी इलाकों तक क्रिकेट की पहुंच नहीं है. जूनियर लेवल पर ही सभी दलितों और आदिवासियों की पहुंच में क्रिकेट होगा, तो वो लोग भी क्रिकेट में करियर बनाने की सोच सकते हैं. भारत में दलित क्रिकेटरों की संख्या में इजाफा होगा और आदिवासी लोगों के बच्चे भी क्रिकेट में करियर बना सकेंगे.

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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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