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पितृसत्ता का सुख भोग रहे पुरुषों, आइये वुमंस डे पर थोड़ा अफसोस करें!

    • धीरेंद्र राय
    • Updated: 08 मार्च, 2021 04:54 PM
  • 08 मार्च, 2021 04:54 PM
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जिस समाज में पुरुषों की इजाजत के बिना पत्ता भी नहीं हिलता, वहां महिलाओं के लिए वुमंस डे के क्या मायने हैं? एक दिन के लिए कर्फ्यू में ढील, या वो भी नहीं?

मैं वुमंस डे का मजा किरकिरा करना नहीं चाहता हूं. इसके सेलिब्रेशन से भी मेरा कोई ऐतराज नहीं है. इसमें निगेटिव होने वाली भी कोई बात नहीं है. लेकिन आत्ममंथन की गुंजाइश जरूर है. वैसे तो 8 मार्च 'अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस' के रूप में मनाया जाता है, लेकिन भारतीय संदर्भों में इसके मायने अलग होने चाहिए. क्या ये महसूस नहीं किया जाना चाहिए कि भारतीय समाज की सत्ता पर काबिज पुरुष वर्ग, वुमंस डे के बारे में क्या सोचता होगा? कहीं ऐसा तो नहीं कि उसने इस दिवस को किसी पश्चिमी अवधारणा से चलकर भारत आया मानकर, नजरअंदाज करना सीख लिया है. और उसे इस बात से संतोष है कि भारतीय महिलाओं के लिए तो अब भी हरतालिका तीज और करवा चौथ ही सबसे बड़े सेलिब्रेशन हैं! हालांकि, मैं इन सेलिब्रेशन का भी विरोधी नहीं हूं. लेकिन, 'महिला दिवस' के मौके को हाथ से जाने देना नहीं चाहता. वुमंस डे कोई सेलिब्रेट करे या ना करे, लेकिन इस दिन समाज थोड़ा वक्त निकालकर आत्म चिंतन जरूर करे...

जन्म एक सा, जिम्मेदारियां अलग क्यों?

जन्म तो दो शरीर ही लेते हैं. एक ही तरह से. उनके जननांग देखकर हम लड़का या लड़की कह देते हैं. लेकिन, जब उनके लिए सपने देखने की बात आती है तो लड़के को योद्धा की तरह, और लड़की को किसी कोमल राजकुमारी की तरह बड़ा करने का प्लान करने लगते हैं. मीराबाई चानू, नंदिनी देवी, रेनू बाला, कर्नम मल्लेश्वरी, पी शैलजा, सिंपल कौर के नाम तो आपने सुने ही होंगे. न सुने हों तो बता दूं कि ये भारत की वो महिलाएं हैं जो एक झटके में सौ किलो से ज्यादा का भार अपने सिर के ऊपर ले जाकर मैडल जीत चुकी हैं. यानी जिम्मेदारियों का बंटवारा करने के लिए भुजाओं के जोर का हवाला देना विशुद्ध बेईमानी है. इस लेख को पढ़ने वाले ज्यादातर पुरुष सौ किलो भार नहीं उठा पाएंगे (इसे उकसावा न मानें).

वैसे कई लोग गर्व से हवाला देंगे कि अरे, अब तो बेटियां सुखोई उड़ा रही हैं! जी हां, बिल्कुल उड़ा रही हैं. लेकिन, ऐसा नहीं है कि इक्कीसवीं सदी में लड़कियों के पंख उग आए हैं. बल्कि इस बात का अफसोस मनाइये कि उनकी...

मैं वुमंस डे का मजा किरकिरा करना नहीं चाहता हूं. इसके सेलिब्रेशन से भी मेरा कोई ऐतराज नहीं है. इसमें निगेटिव होने वाली भी कोई बात नहीं है. लेकिन आत्ममंथन की गुंजाइश जरूर है. वैसे तो 8 मार्च 'अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस' के रूप में मनाया जाता है, लेकिन भारतीय संदर्भों में इसके मायने अलग होने चाहिए. क्या ये महसूस नहीं किया जाना चाहिए कि भारतीय समाज की सत्ता पर काबिज पुरुष वर्ग, वुमंस डे के बारे में क्या सोचता होगा? कहीं ऐसा तो नहीं कि उसने इस दिवस को किसी पश्चिमी अवधारणा से चलकर भारत आया मानकर, नजरअंदाज करना सीख लिया है. और उसे इस बात से संतोष है कि भारतीय महिलाओं के लिए तो अब भी हरतालिका तीज और करवा चौथ ही सबसे बड़े सेलिब्रेशन हैं! हालांकि, मैं इन सेलिब्रेशन का भी विरोधी नहीं हूं. लेकिन, 'महिला दिवस' के मौके को हाथ से जाने देना नहीं चाहता. वुमंस डे कोई सेलिब्रेट करे या ना करे, लेकिन इस दिन समाज थोड़ा वक्त निकालकर आत्म चिंतन जरूर करे...

जन्म एक सा, जिम्मेदारियां अलग क्यों?

जन्म तो दो शरीर ही लेते हैं. एक ही तरह से. उनके जननांग देखकर हम लड़का या लड़की कह देते हैं. लेकिन, जब उनके लिए सपने देखने की बात आती है तो लड़के को योद्धा की तरह, और लड़की को किसी कोमल राजकुमारी की तरह बड़ा करने का प्लान करने लगते हैं. मीराबाई चानू, नंदिनी देवी, रेनू बाला, कर्नम मल्लेश्वरी, पी शैलजा, सिंपल कौर के नाम तो आपने सुने ही होंगे. न सुने हों तो बता दूं कि ये भारत की वो महिलाएं हैं जो एक झटके में सौ किलो से ज्यादा का भार अपने सिर के ऊपर ले जाकर मैडल जीत चुकी हैं. यानी जिम्मेदारियों का बंटवारा करने के लिए भुजाओं के जोर का हवाला देना विशुद्ध बेईमानी है. इस लेख को पढ़ने वाले ज्यादातर पुरुष सौ किलो भार नहीं उठा पाएंगे (इसे उकसावा न मानें).

वैसे कई लोग गर्व से हवाला देंगे कि अरे, अब तो बेटियां सुखोई उड़ा रही हैं! जी हां, बिल्कुल उड़ा रही हैं. लेकिन, ऐसा नहीं है कि इक्कीसवीं सदी में लड़कियों के पंख उग आए हैं. बल्कि इस बात का अफसोस मनाइये कि उनकी इस क्षमता को दरकिनार करने के लिए कितनी सदियों से अनवरत, उनके पर काटे गए हैं.

भारतीय समाज में औरतों का मुकाम आदमियों की परछाई के रूप में ही स्‍थापित कर दिया गया है.

भरोसे का बलात्कार क्यों?

लड़का-लड़की के रिश्ते की शुरुआत भले परंपरागत ढंग से हो, या फिर किसी और माध्यम से. लेकिन क्या कभी सोचा है कि लड़कियों का मन ज्यादा संशय से क्यों भरा रहता है? उसकी अरेंज मैरिज हो या वो किसी को डेट करे, उसके मन में अपनी यौन-सुरक्षा को लेकर हमेशा भय क्‍यों बना रहता है. क्योंकि, यौन दुर्व्यवहार का जिम्मेदार पुरुष ही रहा है. मैरिटल रेप को तो हमने कानूनन मान लिया है कि ऐसा कुछ होता ही नहीं. और यदि कोई लड़की अपनी मर्जी से किसी लड़के से मिल रही है, और उसके साथ कुछ गलत हो जा रहा है तो भी जिम्मेदारी उसी पर है. हम ये कहते हुए एक पल भी नहीं हिचकिचाते कि "उसे ऐसा करने से पहले सोचना चाहिए था. ज्यादा मॉडर्न बनोगी तो ऐसा ही होगा".

अजीब है, लेकिन हकीकत है. भारत में औसत 88 बलात्कार प्रतिदिन होते हैं. सजा 30 फीसदी को ही मिल पाती है. यानी रोज होने वाले 62 बलात्कार सिर्फ लड़की के लिए सजा होते हैं, बलात्कारी के लिए नहीं. और ये भी जान लीजिये कि 94 फीसदी मामलों में बलात्कारी, पीड़िता का कोई परिचित ही होता है. वुमंस डे पर तो ये बलात्कारी हंस ही रहे होंगे ना?

शादी उसकी, मर्जी किसकी?

पढ़ाई नहीं कर रही हो तो शादी कर लो... पढ़ाई पूरी हो गई है तो शादी कर लो... पढ़ाई पूरी हो गई है, नौकरी नहीं मिल रही है तो शादी कर लो... पढ़ाई के बाद नौकरी लग गई है तो शादी कर लो, सेटल हो जाओ... मतलब शादी न हुई लड़की के सिर पर लटकती तलवार हो गई, जिसका गिरना तय ही है.

समाज का एकसूत्रीय कार्यक्रम है लड़की की शादी कराना. एक लड़की कब शादी करे, किससे शादी करे, लड़के से शादी करे या लड़की से शादी करे, शादी करे भी या ना करे, शादी करे भी तो वो कब तक शादी में रहे... इन फैसलों को लेने का असली हक किसका है? आप कहेंगे कि ये हक तो लड़कियों का ही होना चाहिए. लेकिन, क्या ऐसा होता है?

शादी तय करने के रिवाजों का भी एक इतिहास है. पहले लड़का-लड़की का रिश्ता, दो घर के बुजुर्ग पुरुष ही आपस में तय कर देते थे . यानी, न लड़के की मर्जी, ना लड़की की. फिर बुजुर्गों को पीछे कर लड़कों ने तय करना शुरू किया. और लड़कियां सामान की तरह दिखाई जाने लगीं. अब जाकर लड़कियां अपनी पसंद-नापसंद कह पा रही हैं. लेकिन, जरा सोचकर देखिये वे ऐसा कब तक कर पाती हैं. तब तक ही, जब तक कि उस घर का मुखिया यानी, एक पुरुष ऐसा करने की इजाजत दे. यदि वो लड़की को फैसला करने की खुली छूट देता भी है तो यही कहा जाता है कि लड़की के पापा बहुत अच्छे हैं. बड़े खुले विचारों वाले हैं. समाज में लड़कियों पर दबाव इतना है कि यदि उनका कुछ भला हो भी रहा है तो वो पुरुषों की ‘मेहरबानी’ का धन्यवाद किए बिना आगे नहीं बढ़ पा रही हैं.

फैसले तभी लेंगी, जब इजाजत मिलेगी!

हमारे समाज में महिलाओं के पास फैसले लेने की आजादी कितनी है, उसका क्रूर सच सांख्यिकी मंत्रालय का एक सर्वे बयां करता है. घरेलू सामान खरीदने से लेकर, बच्चों की ड्रेस तय करने के मामले तक तो उनकी खूब चलती है. घर के रंगाई पुताई के लिए भी उनकी राय मायने रखती है. लेकिन, नया घर कहां खरीदना है, पैसों का निवेश कहां करना है, कोई नया गैजेट खरीदना हो, बच्चों की अग्रिम शिक्षा हो… ऐेसे सभी मामलों में माना जाता है कि महिलाओं को इसकी ज्यादा जानकारी नहीं होती है. उन्हें सिर्फ अवगत करा देना ही काफी होता है. और महिलाएं भी इसी बात पर संतुष्ट हो जाती हैं कि कम से कम उन्हें बताया तो गया ही है.

आत्मविश्वास की कमी से जूझ रही महिलाओं की स्थिति का अंदाजा इसी बात से लगाइये कि उनके लिए कौन सा स्त्री रोग विशेषज्ञ ठीक रहेगा, यह भी पुरुष ही तय करते हैं. उन्हें शहर से बाहर जाना हो, तो वे पुरुष की अनुमति के बिना नहीं जा सकतीं. या, उन्हें कम से कम जानकारी देना तो जरूरी है ही. कल्पना करिये, हमारे समाज की आधी आबादी, हर छोटे बड़े फैसले के लिए पुरुषों पर किस तरह आश्रित है.

रात का मतलब महिलाओं के लिए अंधेरा!

आपने कितने घरों में सुना होगा कि डिनर के बाद कोई लड़की कह रही है कि "जरा बाहर टहलकर आती हूं". बेटा तो रात का राजा है. वो कहीं भी, कभी भी आ जा सकता है. लेकिन शाम के बाद बेटी ने यदि कहीं जाने का कहा तो सबसे पहले घड़ी दिखाई देती है. यूएन के सर्वे के मुताबिक दिल्ली जैसे महानगर में 95 प्रतिशत लड़कियां सार्वजनिक स्थानों पर भी खुद को महफूज नहीं मानतीं. रात के मामले में स्थिति और भयावह है. छोटे शहरों, कस्बों और गांवों में तो महिलाओं ने मजबूरी में मान ही लिया है कि रात को घर से बाहर निकलने की जरूरत क्या है!

महिलाएं रात को घर से बाहर नहीं निकल सकतीं, यह बात पुरुषों को चुभती क्यों नहीं है? महिलाओं को अक़्सर कह दिया जाता है कि उनका रात को घर से अकेले बाहर निकलना सुरक्षित नहीं है. उन्हें अपनी सुरक्षा का ख्याल रखना चाहिए. सीधे यह ही क्यों नहीं कह दिया जाता कि हम पुरुष, भरोसे के काबिल नहीं हैं. खैर, महिलाओं के लिए रातों को जहन्नुम बनाने वाले पुरुषों ने आधी आबादी को घर के भीतर रहने पर मजबूर कर दिया है. रातों में असुरक्षित माहौल बनाकर महिलाओं की क्षमता को वैसे ही आधा कर दिया गया है. वरना पुरुषों की तरह अपना मुकाम ऊंचा करने में वो भी दिन-रात एक कर रही होतीं.

***

अपने हक की बात करती महिला ‘जुबान चलाती’ नजर आती है. अपनी सेक्शुअल लाइफ के बारे में बेबाक राय देती महिला ‘ज्यादा ही फॉरवर्ड’ करार दी जाती है. यदि वो रात को घर से बाहर निकल रही है तो उसे ‘बदचलन’ तक कह दिया जाएगा. पुरुषों की इस दुनिया में महिलाओं की भूमिका पूर्वाग्रह के साथ तय कर दी गई है. अपने दम पर फैसले लेकर सफल होती महिला, पुरुषों को खटकेगी ही. क्योंकि कहा तो यही जाता है ना कि ‘पुरुष की सफलता के पीछे औरत का हाथ होता है’. महिलाओं की सफलता की बात ही कहां हुई थी?

इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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