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पंडित नैन सिंह रावत : जिसे गूगल ने तो याद रखा लेकिन हम भारतीय ही भूल गए

    • आनंद कुमार
    • Updated: 22 अक्टूबर, 2017 07:25 PM
  • 22 अक्टूबर, 2017 07:25 PM
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1877 में ब्रिटिश कर्नल हेनरी यूल नैन सिंह रावत के सम्मान की सिफारिश की थी. फिर रॉयल ज्योग्राफिकल सोसाइटी द्वारा उन्हें पैट्रन मैडल भी दिया गया था.

अनसुने से कई नाम इन्टरनेट के युग में फिर से जिन्दा हो जाते हैं. क्या वजहें रही होंगी पता नहीं. लेकिन जब खोज करने निकले लोगों में कोलंबस, वास्को डी गामा, और एडमंड हिलेरी पढ़ाये जाते हैं तो भारतीय लोगों को नैन सिंह रावत का नाम नहीं बताया जाता. बीते दिन 187वें जन्मदिन पर गूगल ने जब उनके सम्मान में डूडल जारी किया तो अचानक से भारत के हर न्यूज पोर्टल पर सिर्फ वो ही वो छाए रहे.

ये एक बहुत बड़ा दुर्भाग्य है कि आज हम अपनी चीजों और लोगों को भूल रहे हैं

करीब 160 साल पहले जब नैन सिंह रावत ने अपनी खोजी यात्राएं शुरू की थीं तो नक्शे तो छोड़िये, कंपास और सेक्सटैन्ट जैसी चीजें भी ऐसी विशाल और भारी-भरकम थी कि उन्हें लाना ले जाना लगभग नामुमकिन होता था. इसके अलावा यूरोपीय देशों के आपसी संघर्ष भी थे जिसमें हर कोई दूसरे से आगे निकल जाना चाहता था. ऐसे में बड़ी मुश्किल से जर्मन श्लागिंटवाइट बंधुओं को जब ब्रिटिश सरकार के सर्वे ऑफ इंडिया से इजाजत मिली तो पहाड़ी क्षेत्रों के नैन सिंह रावत और उनके भाइयों को उन्होंने अपने साथ रख लिया.

नैन सिंह रावत, 21 सितम्बर, 1830 को कुमाऊं (उत्तराखंड) के जोहार घाटी के एक गांव में जन्मे थे. अपनी पहली यात्रा पूरी करने के बाद वो कुछ साल एक स्वदेशी स्थानीय स्कूल में हेडमास्टर रहे और दोबारा कई साल बाद ब्रिटिश सरकार ने उन्हें ट्रेनिंग के लिए देहरादून के ग्रेट ट्रीगोनोमेट्रीक सर्वे के दफ्तर में भेज दिया. वहां दो साल तक उन्हें ट्रेनिंग दी गई. जासूसी के विभिन्न तरीकों, भेष बदलना और जानकारी छुपाने के तरीके भी उन्हें सिखाये गए. तारों से दिशा और सेक्सटैन्ट-कंपास जैसे औजार चलाना भी उन्होंने जल्दी ही सीख लिया.

दूरी नापने के लिए बिलकुल साढ़े 31 इंच के कदम रखने, और माला जपने के जरिये गिनती रखने का तरीका इस्तेमाल किया गया. वो...

अनसुने से कई नाम इन्टरनेट के युग में फिर से जिन्दा हो जाते हैं. क्या वजहें रही होंगी पता नहीं. लेकिन जब खोज करने निकले लोगों में कोलंबस, वास्को डी गामा, और एडमंड हिलेरी पढ़ाये जाते हैं तो भारतीय लोगों को नैन सिंह रावत का नाम नहीं बताया जाता. बीते दिन 187वें जन्मदिन पर गूगल ने जब उनके सम्मान में डूडल जारी किया तो अचानक से भारत के हर न्यूज पोर्टल पर सिर्फ वो ही वो छाए रहे.

ये एक बहुत बड़ा दुर्भाग्य है कि आज हम अपनी चीजों और लोगों को भूल रहे हैं

करीब 160 साल पहले जब नैन सिंह रावत ने अपनी खोजी यात्राएं शुरू की थीं तो नक्शे तो छोड़िये, कंपास और सेक्सटैन्ट जैसी चीजें भी ऐसी विशाल और भारी-भरकम थी कि उन्हें लाना ले जाना लगभग नामुमकिन होता था. इसके अलावा यूरोपीय देशों के आपसी संघर्ष भी थे जिसमें हर कोई दूसरे से आगे निकल जाना चाहता था. ऐसे में बड़ी मुश्किल से जर्मन श्लागिंटवाइट बंधुओं को जब ब्रिटिश सरकार के सर्वे ऑफ इंडिया से इजाजत मिली तो पहाड़ी क्षेत्रों के नैन सिंह रावत और उनके भाइयों को उन्होंने अपने साथ रख लिया.

नैन सिंह रावत, 21 सितम्बर, 1830 को कुमाऊं (उत्तराखंड) के जोहार घाटी के एक गांव में जन्मे थे. अपनी पहली यात्रा पूरी करने के बाद वो कुछ साल एक स्वदेशी स्थानीय स्कूल में हेडमास्टर रहे और दोबारा कई साल बाद ब्रिटिश सरकार ने उन्हें ट्रेनिंग के लिए देहरादून के ग्रेट ट्रीगोनोमेट्रीक सर्वे के दफ्तर में भेज दिया. वहां दो साल तक उन्हें ट्रेनिंग दी गई. जासूसी के विभिन्न तरीकों, भेष बदलना और जानकारी छुपाने के तरीके भी उन्हें सिखाये गए. तारों से दिशा और सेक्सटैन्ट-कंपास जैसे औजार चलाना भी उन्होंने जल्दी ही सीख लिया.

दूरी नापने के लिए बिलकुल साढ़े 31 इंच के कदम रखने, और माला जपने के जरिये गिनती रखने का तरीका इस्तेमाल किया गया. वो पारे को कौड़ियों में, कंपास को लामा के पूजा चक्र में और थर्मामीटर को भिक्षुक की लाठी के उपरी हिस्से में छुपा कर ले गए. गिनतियां काव्य में छुपायी गई और इस तरह तिब्बत के दुर्गम इलाकों के सफर पर वो एक तरफ से, तो उनके चचेरे भाई, मणि सिंह रावत दूसरी तरफ से रवाना हुए. उनके भाई अपनी यात्रा पूरी नहीं कर पाए.

नैन सिंह रावत लाह्सा जा पहुंचे और वो पहले व्यक्ति बने जो उसका पक्का ठिकाना और समुद्र तल से उंचाई जैसी जानकारियां नाप पाए. उन्होंने सांग्पो नदी के साथ साथ चलकर नेपाल और तिब्बत होते हुए जाने वाला व्यापारिक मार्ग भी नाप डाला. लामा के भेष में वो कभी भिक्षुओं और कभी व्यापारियों के दल के साथ सफर करते रहे. अपने इन कारनामों के लिए उन्हें 1877 में ब्रिटिश कर्नल हेनरी यूल ने उनके सम्मान की सिफारिश की. फिर रॉयल ज्योग्राफिकल सोसाइटी द्वारा उन्हें पैट्रन मैडल भी दिया गया था.

भले ही हम नैन सिंह रावत को भूल गए हों मगर गूगल ने उन्हें याद रखा ये सुखद रहा

उनके सम्मान समरोह में कहा गया था कि- 'किसी भी अन्य व्यक्ति की तुलना में एशिया के बारे में नैन सिंह रावत ने ज्यादा जानकारी जोड़ी है.' उनके बारे में उनकी ही लिखी डायरियों पर आधारित एक किताब 'एशिया की पीठ पर' सन 2006 में नैनीताल से प्रकाशन में आई है. उनका गूगल डूडल डिजाईन करने वाले हरी और दीप्ति पणिकर का कहना है कि- 'उन्होंने डूडल वैसा ही डिजाईन करने की कोशिश की है, जैसे कभी नैन सिंह रावत हिमालय की और देखते होंगे. अकेले. हिम्मती. एक हाथ में भिक्षुओं का दंड और दूसरी में माला थामे.'

उनके काम के लिए बाद में ब्रिटिश सरकार ने उन्हें कुछ गांवों की जागीर भी सौंपी थी. करीब 57 साल की उम्र में अपने गांव में ही उनकी मृत्यु हुई. रॉयल ज्योग्राफिकल सोसाइटी में जो शोक सन्देश है उसके मुताबिक करीब 1 फरवरी 1882 को उनकी मृत्यु कॉलरा से हुई थी. उनका मिलम गांव जोहर घाटी में है जो कभी हिमालय क्षेत्रों की तरफ जाते व्यापार का प्रमुख ठिकाना होता था. चीन से युद्ध के बाद व्यापार ठप्प हो गया.

24 जून 2004 को भारतीय डाक विभाग ने एक खास डाक टिकट जारी किया था. तीन डाक टिकटों के इस संग्रह का नाम 'द ग्रेट ट्रीगोनोमेट्रीकल सर्वे' है. इसमें सबसे बायीं तरफ वाला डाक टिकट पंडित नैन सिंह रावत के सम्मान में है. इस पांच रुपये के टिकट पर उनकी तस्वीर छपी है. जहां तक उनके गांव का सवाल है, तो विदेशी सैलानी अब भी गर्मियों में मिलम और जोहार घाटी ट्रैकिंग के लिए जाते हैं, सर्दियों में ये बर्फ से ढंका रहता है. अफसोस की जिस इलाके के खोजी पर बरसों बाद भी अंतर्राष्ट्रीय कंपनियों की निगाह चली जाती है वहां आजादी के सत्तर वर्षों में भी सड़क नहीं बन पाई है.

ऐसे में सवाल ये भी उठता है कि जिन भारतीय कर्मवीरों के लिए मन में सम्मान जागता है वो उनके गावों को जोड़ती सड़कों के रूप में जमीन पर, और अगली पीढ़ी के लिए स्कूल की किताबों में कब उतरेगा ?

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