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काली या सांवली लड़की देख शादी से इंकार क्यों कर देते हैं, ये हैं वजह

    • अनिल कुमार
    • Updated: 05 मई, 2018 08:32 PM
  • 05 मई, 2018 08:32 PM
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एक तरफ तो हम स्त्री पुरुष समानता की बात करते हैं दूसरी तरफ हम शरीर के रंग को लेकर विभेद करते हैं. क्या कभी समाज ने ये सोचा है कि इससे एक लड़की को कितना कष्ट होता है.

1770 से लेकर 1823 तक दुनिया के इतिहास में कई क्रांतियां दर्ज हैं लेकिन एक ऐसी भी क्रांति है, जो क्रांति के बाद भी जिक्र में नहीं आती. ये काले लोगों की क्रांति थी. अफ्रीकन कंट्रीज के छोटे गरीब गांवों से अमेरिका, फ्रांस, स्पेन, क्यूबा, पुर्तगाल लोगों का आयात करते थे. इस मानवीय भावनाओं का आयात इतनी तादाद में था कि आपको सोचकर भी हैरानी होगी. अमेरिकी लेखक डेविड ब्रियॉन डेविस ने अपनी किताब 'द प्रोबलम ऑफ स्लेवरी इन द एज ऑफ रिवॉल्यूशन' में बताया है कि एक साल में 50 हजार से 70 हजार लोगों को दास बनाकर लाया जाता था. ये दास वो काले लोग होते थे जो अफ्रीकन देशों के छोटे शहरों में बसे थे और गरीब थे. जाहिर सी बात है कि इतने हजार लोगों में जेंडर सिर्फ पुरुष नहीं था. काली महिलाओं को भी उसी दासता की भट्टी में झोंका जाता था जिस तरह पुरुषों को.

यदि इतिहास पर नजर डालें तो मिलता है कि हमेशा ही काले लोग हीन भावना से ग्रस्त रहे हैं

वहीं, भारत में ये दास बनाने का कल्चर नहीं है लेकिन मानसिकता ने बरसों से दास बनाया हुआ है. इस मानसिक दासता का शिकार सबसे ज्यादा भारतीय महिलाएं हुई हैं. वर्ल्ड बैंक के मुताबिक देश की 1 अरब 32 करोड़ जनसंख्या में 48 फीसदी महिलाएं हैं. देश की अधिक जनसंख्या ग्रामीण भारत में निवास करती है तो सबसे ज्यादा महिलाएं फेयर स्किन वाली या गोरी नहीं होंगी. क्योंकि ज्यादातर भारतीय गांवों में रहन सहन उस स्तर का नहीं है.

वहीं दक्षिण भारत को ले लीजिए, सौ में से 80 फीसदी लोग ब्लैक हैं. इसके अलावा आदिवासी इलाकों में जाएंगे तो वहां धूप में काम करके औरतें काली हो गई हैं. इतना बड़ा आंकड़ा देखकर साफ तौर पर कहा जा सकता है कि देश में ब्लैक स्किन का मुद्दा यानी काले रंग वाली औरतों का मुद्दा छोटा नहीं है. बस फर्क इतना है कि पश्चिमी देश...

1770 से लेकर 1823 तक दुनिया के इतिहास में कई क्रांतियां दर्ज हैं लेकिन एक ऐसी भी क्रांति है, जो क्रांति के बाद भी जिक्र में नहीं आती. ये काले लोगों की क्रांति थी. अफ्रीकन कंट्रीज के छोटे गरीब गांवों से अमेरिका, फ्रांस, स्पेन, क्यूबा, पुर्तगाल लोगों का आयात करते थे. इस मानवीय भावनाओं का आयात इतनी तादाद में था कि आपको सोचकर भी हैरानी होगी. अमेरिकी लेखक डेविड ब्रियॉन डेविस ने अपनी किताब 'द प्रोबलम ऑफ स्लेवरी इन द एज ऑफ रिवॉल्यूशन' में बताया है कि एक साल में 50 हजार से 70 हजार लोगों को दास बनाकर लाया जाता था. ये दास वो काले लोग होते थे जो अफ्रीकन देशों के छोटे शहरों में बसे थे और गरीब थे. जाहिर सी बात है कि इतने हजार लोगों में जेंडर सिर्फ पुरुष नहीं था. काली महिलाओं को भी उसी दासता की भट्टी में झोंका जाता था जिस तरह पुरुषों को.

यदि इतिहास पर नजर डालें तो मिलता है कि हमेशा ही काले लोग हीन भावना से ग्रस्त रहे हैं

वहीं, भारत में ये दास बनाने का कल्चर नहीं है लेकिन मानसिकता ने बरसों से दास बनाया हुआ है. इस मानसिक दासता का शिकार सबसे ज्यादा भारतीय महिलाएं हुई हैं. वर्ल्ड बैंक के मुताबिक देश की 1 अरब 32 करोड़ जनसंख्या में 48 फीसदी महिलाएं हैं. देश की अधिक जनसंख्या ग्रामीण भारत में निवास करती है तो सबसे ज्यादा महिलाएं फेयर स्किन वाली या गोरी नहीं होंगी. क्योंकि ज्यादातर भारतीय गांवों में रहन सहन उस स्तर का नहीं है.

वहीं दक्षिण भारत को ले लीजिए, सौ में से 80 फीसदी लोग ब्लैक हैं. इसके अलावा आदिवासी इलाकों में जाएंगे तो वहां धूप में काम करके औरतें काली हो गई हैं. इतना बड़ा आंकड़ा देखकर साफ तौर पर कहा जा सकता है कि देश में ब्लैक स्किन का मुद्दा यानी काले रंग वाली औरतों का मुद्दा छोटा नहीं है. बस फर्क इतना है कि पश्चिमी देश 1770 से 1823 के काले महिलाओं को गुलाम बना रहे थे तो भारत में बरसों से काली महिलाओं का मानसिक शोषण हो रहा है.

यही वजह है कि गोरे होने की क्रीम देश में सबसे ज्यादा बिकती हैं. क्योंकि देश में काला और गोरे का फर्क ज़ुबानी तौर पर नहीं मानसिक तौर पर है. देश में आज भी महिलाएं काले और गोरे होने की खाई पैदान होने से पुरुषों की सोच की गुलाम हैं. आपने कई बार सुना होगा, 'फलाने की लड़की काली है.' ये शब्द भारतीय स्लेंग है जो परंपरा बन चुका है. यही सोच महिलाओं का मानसिक शोषण बरसों से कर रही है.

विश्व पटल पर भारतीय महिलाओं को औसत रंग का ही माना गया है

दूसरा शब्द, अक्सर आपने ये कहते सुना होगा कि 'हमारा लड़का गोरा है. लड़की गोरी और सुंदर होनी चाहिए'. इन शब्दों को बड़े ही इत्मिनान से लिया जाता रहा है. जबकि ये शब्द भी एक स्लेंग की तरह लिया जाना चाहिए जो भारत में सुंदरता की अपने आप परिभाषा गढ़ रहे हैं. जबकि सुंदरता की कोई परिभाषा तो लिओनार्दो दा विंची भी नहीं दे पाए, जिन्होंने मोनालिसा की तस्वीर तक बना डाली थी.

ऐसी मानसिकता के शब्द सुनकर देश में आज भी कई महिलाएं अपनी इच्छाओं की आत्महत्या कर लेती हैं, सिर्फ इस बल पर कि वो काली हैं. क्योंकि उन्हें सुंदर नहीं बताया गया. इस परिभाषा को गाढ़ा रंग देने का काम काले और गोरे रंग की क्रीम कर रही हैं. टीवी पर जब भी गोरे होने की क्रीम के बारे में विज्ञापन आता है तो काली औरत और गोरी औरत का फर्क बताते हुए क्रीम को बेचा जाता है. 'सात दिन पहले मैं काली थी और फिर मैं सात दिन बाद गोरी हो गई' और यही नहीं, उन ब्लैक महिलाओं का मनोबल तब और टूटता है जब विज्ञापन में ये दिखाया जाता है कि 'काली थी तो कामयाब नहीं हुई, क्रीम लगाई और गोरे होने के बाद कामयाब हो गई'

कई बार देखा गया है कि लड़कियों का कम रंग उनके लिए कई मुसीबतें खड़ी करता है

ये मानसिकता भी तभी जन्मी जब समाज में ब्लैक और गोरों का फर्क आया. इस फर्क को बढ़ाने का काम काले और गोरों का अंतर बताते विज्ञापन, समाज में सुंदरता की परिभाषा का गढ़ने के बाद उपजी सोच कर रही है. महिलाएं आज भी इसी मानसिकता का शिकार हैं. देश की कुल आबादी में दक्षिण भारत की आबादी 25 करोड़ 30 लाख है.

दक्षिण भारत में ब्लैक स्किन लोगों की आबादी सबसे ज्यादा है. वहीं, देश की कुल जनसंख्या में आदिवासी आबादी 8.61 फीसदी है. अगर बात करें, देश के ग्रामीण भाग की तो वहां कुल जनसंख्या 37 करोड़ है. ग्रामीण भागों के दूरस्त इलाकों में रहने वाले लोग भी ब्लैक स्किन हैं. इनमें आधी आबादी महिलाओं की है. जिन्हें ब्लैक होने के कारण तमाम प्रताड़नाओं का सामना आज भी करना पड़ रहा है. चाहे वो शादी के लिए रिजेक्शन हो या फिर समाज से.

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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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