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बुर्का पहनना रहमान की बेटी की चॉइस है, लेकिन क्या ये प्रोग्रेसिव है?

    • पारुल चंद्रा
    • Updated: 09 फरवरी, 2019 12:23 PM
  • 09 फरवरी, 2019 12:23 PM
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खतीजा के फैसले से हर कोई सहमत है कि अगर लड़कियां छोटे कपड़े पहनने का अधिकार रखती हैं तो लड़कियों को नकाब में रहने का भी पूरा अधिकार है. लेकिन अधिकारों की लड़ाई का मतलब तो तभी है जब समाज आग्रसर हो. ऐसे अधिकार किस काम के जो समाज को पीछे ले जाएं.

हाल ही में रतलाम में हो रही एक शादी, होते-होते रह गई. सगाई के वक्त दुल्हन को घूंघट लेने के लिए कहा गया लेकिन उसने घूंघट नहीं किया. इस बात पर ससुराल वाले नाराज हो गए और विवाद बढ़ता गया. मामला पुलिस में भी गया लेकिन लड़की थी कि घूंघट वाली बात पर मानने को तैयार नहीं थी. नतीजा ये हुआ कि बारात बिना दुल्हन के ही लौट आई. लड़के वाले भले ही इसी बात पर अटके रहे कि उनका सम्मान लड़की के घूंघट में ही था, लेकिन लड़की ने भी अपनी बात पर अटल रहकर इस दकियानूसी परंपरा को नहीं अपनाया. अगर ये वाकया कुछ दशक पहले का होता तो आज लड़की को अभागी कहा जा रहा होता, लेकिन चूंकि ये 2019 है इसलिए इस लड़की की तारीफ हो रही है और लड़के वालों की सोच को कोसा जा रहा है.

मामला परंपरा का नहीं, मामला था पिछड़ी सोच का. आज अगर एआर रहमान की आलोचना की जा रही है तो भी मामला सोच का ही है. हालांकि हमारे देश में हर किसी को कुछ भी पहनने की छूट है, फिर भी एआर रहमान की आलोचनाएं की जा रही हैं. वजह ये है कि उनकी अपनी बेटी खतीजा बुर्के में रहती है. वो बुर्का जिसपर हमेशा से पिछड़ेपन के आरोप लगे हैं.

एआर रहमान अपनी बेटी खतीजा के साथ स्टेज पर

हाल ही में फिल्म 'स्लमडॉग मिलेनियर' के संगीत के दस साल पूरे होने पर एक कार्यक्रम रखा गया, जिसमें स्टेज पर रहमान और उनकी बेटी साथ नजर आए. लेकिन बेटी खतीजा साड़ी में थीं और उसपर नकाब पहना हुआ था. सोशल मीडिया पर इस तस्वीर को देखकर लोग हैरान रह गए, कि आज के जमाने में इतने बड़े आदमी की बेटी नकाब में है. और इसी बात को लेकर एआर रहमान को ट्रोल किया गया. उनकी आलोचना की गई कि उन्होंने अपनी बेटी को बुर्के में रहने के लिए मजबूर किया है.

लेकिन इसके बाद एआर रहमान ने अपनी पत्नी और दोनों बेटियों की तस्वीर ट्विटर पर शेयर की जिसमें वो ये बताना...

हाल ही में रतलाम में हो रही एक शादी, होते-होते रह गई. सगाई के वक्त दुल्हन को घूंघट लेने के लिए कहा गया लेकिन उसने घूंघट नहीं किया. इस बात पर ससुराल वाले नाराज हो गए और विवाद बढ़ता गया. मामला पुलिस में भी गया लेकिन लड़की थी कि घूंघट वाली बात पर मानने को तैयार नहीं थी. नतीजा ये हुआ कि बारात बिना दुल्हन के ही लौट आई. लड़के वाले भले ही इसी बात पर अटके रहे कि उनका सम्मान लड़की के घूंघट में ही था, लेकिन लड़की ने भी अपनी बात पर अटल रहकर इस दकियानूसी परंपरा को नहीं अपनाया. अगर ये वाकया कुछ दशक पहले का होता तो आज लड़की को अभागी कहा जा रहा होता, लेकिन चूंकि ये 2019 है इसलिए इस लड़की की तारीफ हो रही है और लड़के वालों की सोच को कोसा जा रहा है.

मामला परंपरा का नहीं, मामला था पिछड़ी सोच का. आज अगर एआर रहमान की आलोचना की जा रही है तो भी मामला सोच का ही है. हालांकि हमारे देश में हर किसी को कुछ भी पहनने की छूट है, फिर भी एआर रहमान की आलोचनाएं की जा रही हैं. वजह ये है कि उनकी अपनी बेटी खतीजा बुर्के में रहती है. वो बुर्का जिसपर हमेशा से पिछड़ेपन के आरोप लगे हैं.

एआर रहमान अपनी बेटी खतीजा के साथ स्टेज पर

हाल ही में फिल्म 'स्लमडॉग मिलेनियर' के संगीत के दस साल पूरे होने पर एक कार्यक्रम रखा गया, जिसमें स्टेज पर रहमान और उनकी बेटी साथ नजर आए. लेकिन बेटी खतीजा साड़ी में थीं और उसपर नकाब पहना हुआ था. सोशल मीडिया पर इस तस्वीर को देखकर लोग हैरान रह गए, कि आज के जमाने में इतने बड़े आदमी की बेटी नकाब में है. और इसी बात को लेकर एआर रहमान को ट्रोल किया गया. उनकी आलोचना की गई कि उन्होंने अपनी बेटी को बुर्के में रहने के लिए मजबूर किया है.

लेकिन इसके बाद एआर रहमान ने अपनी पत्नी और दोनों बेटियों की तस्वीर ट्विटर पर शेयर की जिसमें वो ये बताना चाहते थे कि क्या पहनना है और क्या नहीं ये हर किसी की अपनी चॉइस है. तस्वीर में एआर रहमान की बेटी खतीजा (बुर्के में), बेटी रहीमा और पत्नी सायरा नीता अंबानी के साथ खड़े हैं. तस्वीर की खास बात ये थी कि बुर्के में सिर्फ खतीजा थीं. और कोई नहीं.

पिता की आलोचना होते देख खतीजा ने भी फेसबुक पर उन लोगों को जवाब दिया जो उनके बुर्का पहनने को लेकर नाराज थे. खतीजा कहती हैं- "मैं बताना चाहूंगी कि जो कपड़े मैं पहनती हूं या जो फैसले मैं जिंदगी में लेती हूं, उनका मेरे माता-पिता से कोई लेना-देना नहीं है. नकाब पहनना मेरा निजी फैसला था. मैं वयस्क हूं और अपनी जिंदगी के फैसले लेना जानती हूं."

खतीजा के इस जवाब पर खूब तालियां बजाई जा रही हैं

खतीजा के फैसले से हर कोई सहमत है कि अगर लड़कियां छोटे कपड़े पहनने का अधिकार रखती हैं तो उन्ही लड़कियों को नकाब में रहने का भी पूरा अधिकार है. होना भी चाहिए. लेकिन अधिकारों की लड़ाई का मतलब तो तभी है जब समाज आग्रसर हो. ऐसे अधिकार किस काम के जो समाज को पीछे ले जाएं. महिलाओं को अधिकार, और बराबरी का दर्जा इसीलिए दिया गया जिससे समाज में उनकी स्थित सुधरे. पति को परमेश्वर का दर्जा देना, मंगलसूत्र पहनना, सिंदूर लगाना, पति के लिए करवाचौथ का व्रत करना, पीरियड में अछूत हो जाना, पर्दा या घूंघट करना, तीन तलाक, हलाला आदि. इन सभी बातों को गौर से समझें तो ये सब हमारी आस्था का हिस्सा हैं. इस पितृसत्तात्मक समाज ने इन सभी चीजों को धर्म, आस्था और विश्वास से जोड़ दिया जिससे सवाल न किए जा सकें. और महिलाएं इसे ईश्वर या अल्लाह की मर्जी समझकर पालन करती रहें. यही होता आया है, और यही हो भी रहा है.

बुर्के को अपनी चॉइस कहकर खतीजा बहुत सारे लोगों की आंखों का तारा हो गई. हर तरफ खतीजा की वाहवाही हो रही है. लेकिन यही वाहवाही तो रतलाम की उस लड़की की भी हुई थी. फर्क सिर्फ इतना था कि खतीजा के मामले में ये फ्रीडम ऑफ चॉइस था और रतलाम की लड़की के मामले में एक प्रोग्रेसिव सोच.

समाज के बारे में एक बात हमेशा याद रखनी चाहिए कि समाज के दो हिस्से हैं- एक प्रगतिशील और एक पिछड़ा. जब हमारा प्रगतिशील समाज किसी महिला को ऐसी ही कुरीतियों को धर्म और आस्था के नाम पर ढोते हए देखता है तो सिर्फ निराश होता है और इसीलिए वो घूंघट न करने वाली लड़की के साथ खड़ा होता है. जबकि पिछड़ा समाज उन महिलाओं के लिए तालियां बजाता है जो सदियों पुरानी कुप्रथाओं को परंपरा मानकर जी रही हैं.

खतीजा इसी तरह सोशल मीडिया पर भी एक्टिव हैं, लेकिन इस्लाम तो इसकी भी इजाज़त नहीं देता!

खैर रहमान ने अपने परिवार की महिलाओं की तस्वीर शेयर कर ये तो साबित कर दिया वो रूढ़िवादी नहीं हैं. जबकि उन्होंने अपने परिवार की महिलाओं को अपने हिसाब से कपड़े पहनने की आजादी दे रखी है. लेकिन एक समझदार और प्रगतिशील पिता होने के नाते रहमान की ये जिम्मेदारी भी थी कि वो अपनी बेटी को ये बताते कि बुर्के में रहना पर्सनल चॉइस तो हो सकती है लेकिन प्रोग्रेसिव नहीं.

खतीजा के लिए सिर्फ एक ही बात कही जा सकती है कि खतीजा एक आम लड़की नहीं हैं वो एक ऐसे शख्स की बेटी हैं जिनके करोड़ों मुरीद हैं. और इसीलिए उनपर समाज के प्रति नैतिक जिम्म्देारी भी बनती है कि वो जो भी करें बहुत सोच समझकर करें. लाखों लड़कियों और उनके मां-बाप के लिए वो उदाहरण होंगी. तो कम से कम उन लड़कियों के बारे में सोचें जिन्हें अनजाने में वो बुर्के से फिर बंधने के लिए मजबूर कर रही हैं. 'फ्रीडम ऑफ चॉइस' अगर आपकी है, तो 'सेंस ऑफ रिस्पॉन्सिबिलिटी' भी आप ही की होनी चाहिए.

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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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