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इंदौर और अफगानिस्तान से आई गुरु ग्रंथ साहब की दो तस्वीरों का दुख एक जैसा, मगर कहानी विपरीत!

    • आईचौक
    • Updated: 14 जनवरी, 2023 06:15 PM
  • 14 जनवरी, 2023 02:03 PM
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निहंगों ने इंदौर में सिंधी मंदिरों को विवश कर दिया कि वे हिंदू देवी देवताओं के साथ गुरुग्रन्थ साहिब की पूजा ना करें. सिखों को हिंदुओं से काटने की एक पूरी मुहिम नजर आती है. जबकि सिखों के धार्मिक टेक्स्ट में उनकी जड़े हिंदुओं में कुछ इस तरह नजर आती हैं जैसे दूध में चीनी घुली हो.

ऊपर दिख रही दोनों तस्वीरें भावुक करने वाली हैं. इनमें से एक इंदौर की और दूसरी अफगानिस्तान की है. इंदौर की तस्वीर नई है. दोनों तस्वीरों में सिर के ऊपर लोगों ने असल में गुरुग्रंथ साहिब को उठा रखा है. अफगानिस्तान में तालिबान की सत्ता में वापसी के बाद वहां गुरुग्रंथ साहिब के लिए जगह नहीं बची. इंदौर में कोई तालिबान नहीं आया. लेकिन निहंग सिखों को आपत्ति थी कि भला किसी मंदिर या घर में 'दूसरे' देवी देवताओं के साथ गुरुग्रंथ साहिब को रखकर कोई कैसे पूज सकता है? या तो वहां गुरुग्रंथ साहिब की पूजा होगी या फिर देवी देवताओं की. असल में निहंगों की आपत्ति सिंधी समाज और उनके मंदिरों को लेकर थी. वहां गुरुग्रंथ साहिब और गुरुओं की पूजा को लेकर थी. पाकिस्तान से विस्थापित हुआ सिंधी समाज भारत का आख़िरी सीमावर्ती सनातन समाज था, हजार साल से आक्रमणकारी इस्लाम ने उन्हें जो जख्म दिया वह आज भी भर नहीं पाया है. बावजूद आपत्ति के बाद सिंधियों ने जिस श्रद्धा और सम्मान से गुरुग्रंथ साहिब को अपने घर में पूजा, ससम्मान लेकिन भारी मन से गुरुद्वारे तक पहुंचा आए.

बावजूद कि सिंधियों की ऐतिहासिक पीड़ा आंसू के रूप में उनकी आंखों से टपककर जमीन की धूल में अस्तित्वहीन हो रही थी. ठीक 75 साल पहले जैसे यह समाज कुछ इसी तरह मरते-कटते, रोते, चीखते, चिल्लाते सिंध से भागा था. उसके पास कुल जमा एक पोटली थी. उसमें झूलेलाल के साथ सबसे जरूरी चीज के रूप में गुरुओं की तस्वीरें और गुरुग्रन्थ साहिब भी था. दृश्य एक बार फिर उसी तरह नजर आया जैसे था. बस खून खराबे की घटनाएं नहीं थी. यह लगभग वैसा 'बंटवारा' दिखा जैसे घर के दो सगे भाई अलग हो जाते हैं और आपस में माता पिता और रिश्तेदारों को अपनी सहूलियत के हिसाब से बांट लेते हैं. वैसे सिंधियों की तरह पंजाब के अन्य हिंदू समुदाय भी गुरुओं और उनकी वाणी को वैसे ही पूजते आए हैं जैसे सनातन के दूसरे देवी-देवताओं, ऋषि, मुनि और संतों को. सीमावर्ती राज्यों को छोड़कर अन्य इलाकों का भी हिंदू समाज गुरुओं के सामने श्रद्धा से ही शीश झुकाता नजर आता है.

ऊपर दिख रही दोनों तस्वीरें भावुक करने वाली हैं. इनमें से एक इंदौर की और दूसरी अफगानिस्तान की है. इंदौर की तस्वीर नई है. दोनों तस्वीरों में सिर के ऊपर लोगों ने असल में गुरुग्रंथ साहिब को उठा रखा है. अफगानिस्तान में तालिबान की सत्ता में वापसी के बाद वहां गुरुग्रंथ साहिब के लिए जगह नहीं बची. इंदौर में कोई तालिबान नहीं आया. लेकिन निहंग सिखों को आपत्ति थी कि भला किसी मंदिर या घर में 'दूसरे' देवी देवताओं के साथ गुरुग्रंथ साहिब को रखकर कोई कैसे पूज सकता है? या तो वहां गुरुग्रंथ साहिब की पूजा होगी या फिर देवी देवताओं की. असल में निहंगों की आपत्ति सिंधी समाज और उनके मंदिरों को लेकर थी. वहां गुरुग्रंथ साहिब और गुरुओं की पूजा को लेकर थी. पाकिस्तान से विस्थापित हुआ सिंधी समाज भारत का आख़िरी सीमावर्ती सनातन समाज था, हजार साल से आक्रमणकारी इस्लाम ने उन्हें जो जख्म दिया वह आज भी भर नहीं पाया है. बावजूद आपत्ति के बाद सिंधियों ने जिस श्रद्धा और सम्मान से गुरुग्रंथ साहिब को अपने घर में पूजा, ससम्मान लेकिन भारी मन से गुरुद्वारे तक पहुंचा आए.

बावजूद कि सिंधियों की ऐतिहासिक पीड़ा आंसू के रूप में उनकी आंखों से टपककर जमीन की धूल में अस्तित्वहीन हो रही थी. ठीक 75 साल पहले जैसे यह समाज कुछ इसी तरह मरते-कटते, रोते, चीखते, चिल्लाते सिंध से भागा था. उसके पास कुल जमा एक पोटली थी. उसमें झूलेलाल के साथ सबसे जरूरी चीज के रूप में गुरुओं की तस्वीरें और गुरुग्रन्थ साहिब भी था. दृश्य एक बार फिर उसी तरह नजर आया जैसे था. बस खून खराबे की घटनाएं नहीं थी. यह लगभग वैसा 'बंटवारा' दिखा जैसे घर के दो सगे भाई अलग हो जाते हैं और आपस में माता पिता और रिश्तेदारों को अपनी सहूलियत के हिसाब से बांट लेते हैं. वैसे सिंधियों की तरह पंजाब के अन्य हिंदू समुदाय भी गुरुओं और उनकी वाणी को वैसे ही पूजते आए हैं जैसे सनातन के दूसरे देवी-देवताओं, ऋषि, मुनि और संतों को. सीमावर्ती राज्यों को छोड़कर अन्य इलाकों का भी हिंदू समाज गुरुओं के सामने श्रद्धा से ही शीश झुकाता नजर आता है.

इंदौर और अफगानिस्तान में दिखी एक जैसी चीजें मगर उनकी पृष्ठभूमि अलग है.फोटो- ट्विटर से साभार.

बावजूद अब बंटवारे की एक लहर चलाई जा रही है. यह कृतिम लहर है और वक्त जरूर इसे भी भोथरा कर देगा. जैसे उसने तमाम नकली विचारों को किया है. भारतीय सनातन समाज में सहअस्तित्व सामजस्य की सबसे बेहतरीन और आख़िरी मिसाल को बांटने की यह लहर 100 साल पहले भारत विभाजन की नींव पड़ने के साथ शुरू हुई थी और इसका सबसे वीभत्स रूप 1971 में पाकिस्तान की हार और बाग्लादेश विभाजन के बाद दिखा था. 80 के दशक में. जब भिंडरावाले के नेतृत्व में अलग सिख राष्ट्र की मांग खड़ी हुई और वोटबैंक की किलेबंदी में मशगूल स्वर्गीय इंदिरा गांधी की तमाम बेवकूफ़ियों की वजह से नासूर बन गया. कांग्रेसी राज में सिखों के खिलाफ व्यक्तिगत आक्रोश से उपजी हिंसा में क्या कुछ नहीं हुआ- बहुत ज्यादा बताने की जरूरत नहीं. नागारिकगता क़ानून, और कृषि कानूनों पर आंदोलन के दौरान वह नासूर फिर से बार-बार लगातार कुरेदा जा रहा है. इंदौर उसी सिलसिले की कड़ी है. बेशक विभाजन की कोशिशों के पीछे पाकिस्तान ही है. समझदार को बताने की जरूरत नहीं- पाकिस्तान का मतलब क्या, ला इलाहा इल्ललाहा.

गुरुओं की तलवार पर देवी का चित्र

खालिस्तानी नेताओं का पाकिस्तानी गठबंधन सिखों का इस्लामीकरण कर रहा है

सिखों का कट्टरपंथी धड़ा जिसपर पूरी तरह से अलगाववादी खालिस्तानी नेताओं का नियंत्रण है- वह पाकिस्तान और इस्लामिक ताकतों के इशारे पर भारत को अस्थिर कर पाकिस्तान के विभाजन का बदला लेना चाहता है. इसमें ड्रग चैनल भी है. यह भी बताने की जरूरत नहीं. पाकिस्तान और खालिस्तानी नेताओं के गठबंधन में कुछ हुआ हो या नहीं, बावजूद सिखों के तगड़े इस्लामीकरण की कोशिशें साफ़-साफ़ जरूर दिखने लगी हैं. बंटवारे की एक पूरी पटकथा लिखी गई है. ठीक वैसे ही जैसे अस्थिर करने के लिए भारत में तमाम धार्मिक और सामाजिक रूप से संवेदनशील मुद्दों को खड़ा किया जाता है. सिखों के पूरे इतिहास में फेरबदल किया जा रहा है. उन्हें उनकी जड़ों से काटा जा रहा है. बात यहां तक पहुंच चुकी है कि पाकिस्तान के मौलाना, सिख धर्म को इस्लाम से प्रभावित तक सिद्ध कर चुके हैं. और एकतरह से उसे इस्लाम का ही हिस्सा बताते फिरते हैं. गूगल कर लीजिए या फिर यूट्यूब पर जाइए. पाकिस्तानी मौलानाओं की तकरीरों से पता चल जाएगा सिख किस तरह इस्लाम के नजदीक है और एकतरह से वह उन्हें इस्लाम का हिस्सा कैसे मानते हैं.

बात दूसरी है कि कथित रूप से इस्लाम के बहुत करीब होने के बावजूद 'इस्लामिस्ट अमीरात' (अफगानिस्तान) से जो तस्वीर आई वह भयावह है और खतरनाक भविष्य का साफ संकेत देने वाली है. जिक्र ऊपर किया गया है. समझ नहीं आता कि सिख जब इतना ही नजदीक थे, फिर उन्हें अफगानिस्तान के अलग-अलग हिस्सों से गुरुग्रंथ साहिब को सिर पर लेकर भागना क्यों पड़ा? उस अफगानिस्तान से भागना पड़ा जहां हरि सिंह नलवा की तलवार ने कट्टरपंथी इस्लाम की कमर पर जो घनघोर पलटवार किया वैसा उदाहरण इतिहास में दुर्लभ है.

घटनाओं की क्रोनोलाजी से समझें पाकिस्तान और उसका सिंडिकेट कर क्या रहा है?

पाकिस्तान में सिखों का तगड़ा बेस है, बावजूद समझ में नहीं आता कि इस्लाम से नजदीक होने के बावजूद हर रोज वहां रह रहे हिंदुओं के साथ ही सिखों की बहन-बेटियां अगवा क्यों की जाती हैं? इस रहस्य का भी खुलासा अब तक नहीं हो पाया है कि पाकिस्तान में जो खालिस्तानी सिख हैं, क्या वे वही सिख तो नहीं- जिन्होंने महाराज रणजीत सिंह की तलवार मजबूत होने के बाद घर वापसी की थी या फिर आर्यसमाज के आंदोलन की वजह से उनकी घर वापसी हुई. भारत विभाजन से पूर्व आर्य समाज का सबसे ज्यादा असर पंजाब और दिल्ली के आसपास के इलाकों में रहा. आर्य समाज की वजह से बड़े पैमाने पर घरवापसियां हुई थीं. वह कौन लोग थे, बहुत खुलकर बात नहीं होती.

बंटवारे की कोशिशें महज इंदौर या अफगानिस्तान भर में नहीं दिखती. बल्कि तमाम यूरोपीय देशों में भी नजर आ रहा है जहां भारतवंशी हैं. अभी ऑस्ट्रेलिया का ही एक ताजा मामला इंदौर की घटना के साथ-साथ सामने आया है. वहां एक हिंदू मंदिर पर कथित भिंडरावाले समर्थकों ने हमला किया. बावजूद आईचौक को यह शक है कि हमला सिखों ने ही किया होगा. बहुत आशंका है कि इसके पीछे भी पाकिस्तानी सिंडिकेट की ही शरारत है. सीधे-सीधे आईएसआई की शरारत है. इसलिए किसी प्रतिक्रिया से पहले पाकिस्तानी एंगल का पर्याप्त अध्ययन करें.

150 साल पहले कहीं कोई बंटवारा नहीं दिखता, आखिर सिख थे कौन?

सिख का मतलब होता है शिष्य. गुरुओं का शिष्य. और गुरुओं के शिष्य सिर्फ वही नहीं रहें जिन्होंने केश, कड़ा और कृपाण आदि धारण किए. बल्कि सीमावर्ती इलाके में सनातन की रक्षा के लिए हर घर से सिख निकले. किसी के पांच बच्चे थे तो उसमें से एक को गुरुओं का सिख बना दिया गया. वे लडे. महाराजा रणजीत सिंह तक का इतिहास उठाकर देख ,लीजिए. 150 से 175 साल पहले कोई बंटवारा नहीं दिखता जैसे आज खड़ा करने की कोशिश है. बंटवारा यह कि सिख सनातन का हिस्सा ही नहीं है. सिखों में मूर्तिपूजा नहीं है. सनातनी कर्मकांड का विरोध है. सिख, हिंदुओं से अलग हैं. और भी तमाम बाते हैं. बावजूद कि आज जिस तरह बंटवारे का कुतर्क गढ़ा जाता है-  150 से 175 साल पहले उसका एक भी सबूत नहीं मिलता, लेकिन असंख्य सबूत हैं जो बंटवारे के तर्कों को भोथरा करने के लिए पर्याप्त हैं.

उदहारण के दशमग्रंथ को ही लीजिए. इसे रचा, दसवें गुरु गुरु गोविंद सिंह महाराज जी ने. अब सवाल है कि या तो गुरुगोविंद सिंह महाराज मूर्तिपूजा विरोधी नहीं थे, या सिखों को अलग बताने वालों में पाकिस्तानी' मूल के बहरुपिया सिख हैं. देवी भगवती का एक रूप नैनादेवी गुरु गोविंद सिंह महाराज की कुल देवी थीं. वह संत थे. उन्होंने धर्मार्थ तलवार उठाई और क्षत्रीय हुए. उनकी तलवार पर भी देवी का नाम और उनका चित्र अंकित था. उन्होंने तमाम तलवारे अपने समकालीन राजपूत राजाओं- जो उनके शिष्य थे, भेंट की है. आज भी तमाम राजपूत घराने उनके प्रसाद को पूजते हैं. गुरु महाराज, गुरु परंपरा में आख़िरी गुरु थे. 'दशम ग्रन्थ' का चौबीस अवतार तो उन्होंने नैना देवी की पहाड़ी पर ही लिखा था. दशमग्रंथ का ज्यादातर हिस्सा उनके समय में और उनके दरबार के विद्वान पंडितों ने लिखा.

सिखों में गुरुग्रंथ साहिब और दशमग्रंथ का महत्व

सिखों में दो धर्मग्रंथ बहुत पवित्र माने जाते हैं. गुरुग्रंथ साहिब और दशम ग्रन्थ. ग्रंथ साहिब ईश्वरीय किताब है जो मनुष्य को वाहेगुरु के साथ एकाकार करती है. जबकि दशमग्रंथ मनुष्य को मनुष्य के साथ एकाकार करती है. दशम ग्रंथ असल में साहस, शत्रुओं के खिलाफ बहादुरी, शक्ति, न्याय आदि पर बात करती है. दशम ग्रंथ में कई अध्याय हैं जिसमें व्रज, हिंदी, पंजाबी, संकृत का जबरदस्त असर है. दसवें गुरु के बाद इसमें फारसी और अरबी असर भी खूब दिखा. इसमें मार्कंडेय पुराण से प्रेरित देवी की स्तुति में चंडी चरित्तर दो हिस्सों में, वार भगवती जी की, चौबीस अवतार, ब्रह्म अवतार, रूद्र अवतार जैसे अध्याय शामिल हैं. जैसा कि नाम से जाहिर है और असल में यह देवी देवताओं की स्तुतिगान ही है. दशम ग्रंथ में गुरु गोविंद सिंह के बाद 1706 तक कुछ और हिस्से लिखे गए. अब सवाल है कि गुरु गोविंद सिंह क्या थे? मजेदार यह है SGPC के नियंत्रण वाले गुरुद्वारों में कृष्ण अवतार जैसे तमाम हिस्सों को पढ़ाना बंद कर दिया गया है. जबकि यही प्राचीन परंपरा थी. क्यों? यह पूछना चाहिए. क्या इसलिए कि सनातन से सिखों के विभाजन का मकसद था? गुरुओं के समय से ही उन्हें अनिवार्य रूप से पढ़ने की परंपरा मिलती है.

आज भी उन गुरुद्वारों में जहां SGPC का नियंत्रण नहीं है, परंपरा पहले की तरह चल रही है. पटना साहिब और हुजुर साहिब में अवतार वाला हिस्सा अब भी पढ़ाया जाता है. हरिद्वार में गुरुओं के परिवार का ब्यौरा उनके पुरोहितों के पारंपरिक बही खाते में दर्ज हुआ है. वहां भी ना सिर्फ गुरु गोविंद सिंह बल्कि उनके पुरखों के ब्यौरे में उनकी कुल देवी का जिक्र है. और भी तीर्थस्थलों में. हिंदू तीर्थस्थलों में पुरोहित यजमान का पारिवारिक ब्यौरा दर्ज रखते हैं. अब गुरु साहब क्या थे, यह इंदौर में आपत्ति करने वाले निहंग ज्यादा बेहतर बता सकते हैं.

गुरु महाराज शाक्त थे, शक्ति के उपासक, महाराजा रणजीत सिंह का बैटल फ्लैग चेक करिए एक बार   गुरु परिवार शाक्त था. वे संत भी थे. तलवार उन्होंने साम्राज्य बनाने के लिए नहीं धर्मार्थ और समाज कल्याण के लिए हाथ में लिया. और उस वक्त जिस तरह का माहौल था- पंजाब के सीमावर्ती इलाकों में हर घर से दीवानों की फ़ौज गुरुओं के पीछे खड़ी हुई. उन सनातनियों में जैनी भी थे, बुद्धिष्ट भी थे, शैव शाक्त और वैष्णव तो थे ही. दमदमा टकसाल है क्या? उसे पंजाब का काशी कहकर पूजा गया. आज भी पूजा जाता है. ठीक वैसे ही जैसे दक्षिण में काशी के एक प्रतिरूप की पूजा होती है. उसे दक्षिण का काशी कहा जाता है.

महाराजा रणजीत सिंह का बैटल फ्लैग ही देख लीजिए

और बहुत दूर क्यों जाना? खालसा राज में महाराजा रणजीत सिंह के उस झंडे को ही देख लीजिए जो युद्ध के दौरान इस्तेमाल होता था. बीच में दुर्गा जी का चित्र और उसके दोनों किनारों पर हनुमान जी और भैरव अंकित थे. यह बंटवारा 18वीं सदी के बाद खड़ा करने की कोशिश हुई. मनमानी व्याख्याएं की जाने लगीं. यह सब जड़ों के मूल को ख़त्म करने की साजिश थी. सुविधाजनक कोट उठा लिए गए और बता दिया गया कि सिख मूर्तिपूजक नहीं थे. जबकि गुरु महाराज के हवाले से जो तथ्य रखा गया वह किस संदर्भ में है उसका जवाब नहीं दिया जाता. चर्चा तक नहीं की जाती.

नागरिकता क़ानून से ही अलगाववाद को हवा देने की कोशिश, भारत में कामयाब होना नामुमकीन

सिखों को अलग-थलग करने की कोशिशें नागरिकता क़ानून और किसान क़ानून पर आंदोलन के बाद शुरू हुईं. पाकिस्तान से सोशल मीडिया पर ना जाने कितने फर्जी प्रोफाइल्स के जरिए झूठ परोसा जाता है. किसी सिख सेलिब्रिटी के बहाने खालिस्तान का नारा गाहे बगाहे उछाल दिया जाता है. अर्शदीप के मामले में देख लीजिए. एक मैच में वह फेल हुआ तो भारतीयों की फर्जी प्रोफाइल से उसे खालिस्तानी कहा जाने लगा. जबकि कौन करता है यह छिपी बात नहीं है. कुछ लोग चाह रहे हैं कि किसी ना किसी तरीके माहौल बिगड़ जाए. माहौल है कि बिगड़ता नहीं. सिंधियों के दिल से गुरुओं और गुरुगंथ साहिब को कभी बेदखल नहीं किया जा सकता. भारत की आत्मा में गुरुओं की जो छवि अंकित है, गुरुग्रंथ साहिब पर जो श्रद्धा है- वह कभी मिटाई नहीं जा सकती.

बावजूद कि पाकिस्तानी खालिस्तानियों की वजह से सिखों का जिस तेजी से इस्लामीकरण हो रहा, वह सिर्फ सिखों नहीं भारत की भी चिंता का विषय है. पंजाब सीमावर्ती राज्य है. वहां पाकिस्तानी विचार का पनपना किसी भी लिहाज से उचित नहीं है.

इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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