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तृप्ति देसाई को इतिहास क्या राजा राम मोहन रॉय वाला दर्जा देगा?

    • स्वाति अर्जुन
    • Updated: 12 मई, 2016 09:09 PM
  • 12 मई, 2016 09:09 PM
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तृप्ति देसाई ने कुछ पूजा स्थलों में महिलाओं को रोके जाने की व्यवस्था को ताकतवर चुनौती दी है. उनके विरोधी इसमें तृप्ति का राजनीतिक एजेंडा ढूंढते हैं, क्या इतिहास में यह सब इसी नजरिए से दर्ज होगा.

महिला अधिकारों के लिए आंदोलन करने वाली भूमाता रणरागिनी ब्रिगेड की नेता तृप्ति देसाई ने गुरुवार की सुबह मुंबई की हाजी अली दरगाह़ में न सिर्फ़ प्रवेश किया बल्कि वहां मन्नत भी मांगी.

हालांकि तृप्ति का ये प्रवेश पूरी तरह से पुलिस सुरक्षा के बीच हुआ और उन्हें वहीं तक जाने की अनुमति मिल सकी जहां तक अमूमन महिलाएं जा पाती हैं. लेकिन तृप्ति का कहना है कि वो अगले 15 दिनों के भीतर फिर से दरगाह़ में आएंगी और बग़ैर किसी को बताए मज़ार तक चली जाएंगी. उन्होंने दरग़ाह के ट्रस्टियों से आग्रह किया है कि वे इससे पहले महिलाओं का मज़ार तक जाना सुनिश्चित करें.

यह भी पढ़ें: शनि मंदिर में महिलाओं का प्रवेश, और तिलमिला गई पुरुष सत्ता

हाजी अली दरगाह़ में 2011 तक महिलाओं को मज़ार तक जाने दिया जाता था लेकिन उसके बाद इसे गैरइस्लामिक बताते हुए, इस पर रोक लगा दी गई. तृप्ति ने इससे पहले महाराष्ट्र के अहमदनगर स्थित शनि शिंगणापुर मंदिर के गर्भगृह में भी न सिर्फ़ प्रवेश किया बल्कि मंदिर प्रशासन के इस फैसले के ख़िलाफ़ लंबा अभियान भी चलाया था. बाद में हाईकोर्ट के फैसले और सरकार की दख़ल के बाद महिलाओं को मंदिर के गर्भगृह तक जाने और वहां पूजा करने की इजाज़त मिली. उसके बाद उन्होंने महाराष्ट्र के ही त्रयंबकेश्वर मंदिर में भी महिलाओं के साथ प्रवेश किया.

शनि शिंगणापुर के बाद तृप्ति देसाई की अगली मुहिम हाजी अली दरगाह को लेकर है, जहां अपवित्र मानकर महिलाओं का प्रवेश वर्जित कर दिया गया...

महिला अधिकारों के लिए आंदोलन करने वाली भूमाता रणरागिनी ब्रिगेड की नेता तृप्ति देसाई ने गुरुवार की सुबह मुंबई की हाजी अली दरगाह़ में न सिर्फ़ प्रवेश किया बल्कि वहां मन्नत भी मांगी.

हालांकि तृप्ति का ये प्रवेश पूरी तरह से पुलिस सुरक्षा के बीच हुआ और उन्हें वहीं तक जाने की अनुमति मिल सकी जहां तक अमूमन महिलाएं जा पाती हैं. लेकिन तृप्ति का कहना है कि वो अगले 15 दिनों के भीतर फिर से दरगाह़ में आएंगी और बग़ैर किसी को बताए मज़ार तक चली जाएंगी. उन्होंने दरग़ाह के ट्रस्टियों से आग्रह किया है कि वे इससे पहले महिलाओं का मज़ार तक जाना सुनिश्चित करें.

यह भी पढ़ें: शनि मंदिर में महिलाओं का प्रवेश, और तिलमिला गई पुरुष सत्ता

हाजी अली दरगाह़ में 2011 तक महिलाओं को मज़ार तक जाने दिया जाता था लेकिन उसके बाद इसे गैरइस्लामिक बताते हुए, इस पर रोक लगा दी गई. तृप्ति ने इससे पहले महाराष्ट्र के अहमदनगर स्थित शनि शिंगणापुर मंदिर के गर्भगृह में भी न सिर्फ़ प्रवेश किया बल्कि मंदिर प्रशासन के इस फैसले के ख़िलाफ़ लंबा अभियान भी चलाया था. बाद में हाईकोर्ट के फैसले और सरकार की दख़ल के बाद महिलाओं को मंदिर के गर्भगृह तक जाने और वहां पूजा करने की इजाज़त मिली. उसके बाद उन्होंने महाराष्ट्र के ही त्रयंबकेश्वर मंदिर में भी महिलाओं के साथ प्रवेश किया.

शनि शिंगणापुर के बाद तृप्ति देसाई की अगली मुहिम हाजी अली दरगाह को लेकर है, जहां अपवित्र मानकर महिलाओं का प्रवेश वर्जित कर दिया गया है.

तृप्ति देसाई की इन कोशिशों को राजनैतिक और धार्मिक रंग भी देने की कोशिश की गई. कई नेता उनकी इस आंदोलन को राजनैतिक स्टंट भी मान रहे हैं, उनके मुताबिक तृप्ति ऐसा अपनी राजनैतिक ज़मीन तैयार करने के लिए कर रही हैं. हाजी अली दरगाह़ में उनके जाने के बाद AIMIM नेता हाजी रफ़त हुसैन ने तृप्ति को चुनौती देते हुए कहा है कि अगर उनका कोई राजनैतिक एजेंडा नहीं है और अगर वे सिर्फ़ महिलाओं के उत्थान के लिए ये आंदोलन कर रही हैं तो अब वे किसी पारसी मंदिर में घुसकर दिखाएं जहां महिलाओं का जाना वर्जित है.

इस चुनौती के जवाब में तृप्ति के अगले कदम का सभी को इंतज़ार रहेगा लेकिन जैसा कि वे कहती आईं हैं कि ये महिलाओं के अधिकारों के लिए किया जा रहा आंदोलन है, और इससे लंबे अर्से के बाद फिर से महिलाओं के साथ हो रहे भेदभाव को लेकर एक मुख़र आवाज़ सामने आयी है.

यह भी पढ़ें: महिलाओं के लिए फिजूल है शनि मंदिर में प्रवेश की लड़ाई, क्योंकि...

भारतीय समाज में शुरु से धर्म और धार्मिक कर्मकांडों की आड़ में महिलाओं के साथ भेदभाव होता रहा है, जिसके लिए समय-समय पर कई तरह के सामाजिक आंदोलनों का जन्म हुआ है, फिर चाहे वो सती प्रथा या बाल विवाह को ख़त्म करने के लिए किया गया आंदोलन हो या विधवा विवाह करने की. 18वीं सदी में बंगाल में ब्रह्म समाज के संस्थापक राजा राम मोहन रॉय ने इन कुप्रथाओं को ख़त्म करने के लिए अपनी ही जाति, समाज और लोगों के ख़िलाफ़ विरोध का स्वर बुलंद किया था, लंबी लड़ाई और संघर्ष के बाद अंत में तब की ब्रितानी सरकार ने भारत में सती प्रथा पर रोक लगा दी थी. बाद में राममोहन रॉय की ही कोशिशों के बल पर महिलाओँ की अंग्रेज़ी शिक्षा पर भी ज़ोर दिया गया.

तृप्ति देसाई हो सकता है कोई बड़ा जन-जागरण नहीं कर रहीं हो, लेकिन महिलाओं के लेकर समाज के हर वर्ग, समुदाय और धर्म में जो भेदभाव की नीति है, उसके ख़िलाफ़ किया जाने वाला उनका ये संघर्ष निस्संदेह एक संदेश तो देता ही है. तमाम आरोपों और शंकाओं के बावजूद हम इस बात को तो नकार नहीं सकते कि वे एक बड़ा काम कर रही हैं, जिसका संज्ञान सरकारें ही नहीं अदालतें भी ले रहीं हैं और उसके अच्छे परिणाम भी बेहतर बदलाव के रूप में सामने आ रहे हैं.

इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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