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बस अब बंद हो नारी की पुरुष से तुलना

    • कुलदीप सुमन शर्मा
    • Updated: 08 मार्च, 2017 06:34 PM
  • 08 मार्च, 2017 06:34 PM
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दुःख की बात यह है कि आज स्त्री भी अपनी मौलिकता को छोड़ अपने को पुरुषों से श्रेष्ठ बनाना ही अपनी जीत समझती है.

‌इस बार भी महिला दिवस आते ही हर तरफ महिलाओं पर लेखों कथाओं आदि की बाढ़ सी आ गई है. पिछले कुछ वर्षों से यह देखा जा रहा है कि महिला दिवस आते ही लोग सोशल मीडिया और अन्य माध्यमों पर नारी विमर्श चालू कर देते हैं. हर तरफ नारी की प्रसंशा का गान होने लगता है और ढूंढ-ढूंढ कर अनेक पक्षों पर नारी को पुरुष से श्रेष्ठ बताया जाने लगता है.

नारी को लेकर होने वाली इन सारी चर्चाओं के मूल में जो बात होती है वह है पुरुष से उसकी तुलना. इस तुलना के चलते पुरुष द्वारा किये गए कार्यों को मानक बनाया जाता है और फिर स्त्री द्वारा किये गए कार्य से उसकी तुलना की जाती है. इस तुलना में पुरुष के बराबर या उससे श्रेष्ठ काम करना नारी की प्रतिभा का मानदंड होता है. जबकि हम चिंतन करें तो नारी और पुरुष की एक दूसरे से तुलना हो ही नहीं सकती. यहां तक की इस प्रकृति के किसी भी एक जीव की तुलना दूसरे जीव से नहीं की जा सकती. प्रकृति ने हर जीव को एक अलग विशेषता दी है और वही उसकी श्रेष्ठता को मापने का मानदंड हो सकता है.

‌नारी को लेकर आज तक की सबसे बड़ी विडम्बना यह है कि समाज नारी को एक बंधी-बंधाई दृष्टी से ही देखता है. अशिक्षित, पिछड़ा और ग्रामीण वर्ग जहां उसे एक पर्दे में सजा कर रखने वाली रचना समझता है वहीं पढ़ा लिखा और बुद्धिमान समझा जाने वाला शहरी वर्ग इसे पुरुष के समकक्ष बनाना चाहता है. यह दोनों नजरिए ही स्त्री से उसकी मौलिकता छीनते हैं. और दुःख की बात यह है कि आज स्त्री भी अपनी मौलिकता को छोड़ अपने को पुरुषों से श्रेष्ठ बनाना ही अपनी जीत समझती है.

‌प्रेम, ममत्व, सुंदरता, आकर्षण, कोमलता, भावुकता, सहजता और सौन्दर्यबोध यह सब नारी को प्रकृति की देन हैं. लेकिन नारी की इन विशेषताओं का लोप हो जाता है पुरुष से उसकी तुलना में. हां यह बात सही है कि समाज में रहने वाले हर लिंग को सामान अवसर...

‌इस बार भी महिला दिवस आते ही हर तरफ महिलाओं पर लेखों कथाओं आदि की बाढ़ सी आ गई है. पिछले कुछ वर्षों से यह देखा जा रहा है कि महिला दिवस आते ही लोग सोशल मीडिया और अन्य माध्यमों पर नारी विमर्श चालू कर देते हैं. हर तरफ नारी की प्रसंशा का गान होने लगता है और ढूंढ-ढूंढ कर अनेक पक्षों पर नारी को पुरुष से श्रेष्ठ बताया जाने लगता है.

नारी को लेकर होने वाली इन सारी चर्चाओं के मूल में जो बात होती है वह है पुरुष से उसकी तुलना. इस तुलना के चलते पुरुष द्वारा किये गए कार्यों को मानक बनाया जाता है और फिर स्त्री द्वारा किये गए कार्य से उसकी तुलना की जाती है. इस तुलना में पुरुष के बराबर या उससे श्रेष्ठ काम करना नारी की प्रतिभा का मानदंड होता है. जबकि हम चिंतन करें तो नारी और पुरुष की एक दूसरे से तुलना हो ही नहीं सकती. यहां तक की इस प्रकृति के किसी भी एक जीव की तुलना दूसरे जीव से नहीं की जा सकती. प्रकृति ने हर जीव को एक अलग विशेषता दी है और वही उसकी श्रेष्ठता को मापने का मानदंड हो सकता है.

‌नारी को लेकर आज तक की सबसे बड़ी विडम्बना यह है कि समाज नारी को एक बंधी-बंधाई दृष्टी से ही देखता है. अशिक्षित, पिछड़ा और ग्रामीण वर्ग जहां उसे एक पर्दे में सजा कर रखने वाली रचना समझता है वहीं पढ़ा लिखा और बुद्धिमान समझा जाने वाला शहरी वर्ग इसे पुरुष के समकक्ष बनाना चाहता है. यह दोनों नजरिए ही स्त्री से उसकी मौलिकता छीनते हैं. और दुःख की बात यह है कि आज स्त्री भी अपनी मौलिकता को छोड़ अपने को पुरुषों से श्रेष्ठ बनाना ही अपनी जीत समझती है.

‌प्रेम, ममत्व, सुंदरता, आकर्षण, कोमलता, भावुकता, सहजता और सौन्दर्यबोध यह सब नारी को प्रकृति की देन हैं. लेकिन नारी की इन विशेषताओं का लोप हो जाता है पुरुष से उसकी तुलना में. हां यह बात सही है कि समाज में रहने वाले हर लिंग को सामान अवसर मिलें, लेकिन यह कहां तक जायज है कि उन अवसरों को पाने के लिए एक लिंग विशेष की विशेषताओं को सब के लिए मानदंड बना दिया जाए. क्या एक नारी प्रेम के बल पर अच्छी प्रशासक नहीं हो सकती? क्या वह अपनी ममता के बल पर अच्छी नेता नहीं बन सकती? मैं कहूंगा बिलकुल बन सकती है. आप चाहें तो वर्तमान देख लें या इतिहास खंगाल ले आपको अनेक उदाहरण मिल जायेंगे. क्या द्रोपदी का प्रेम ही आताताई कौरवों के नाश का कारण नहीं बना? क्या जीजा बाई की ममता ने ही बिखरे मराठों को एक नहीं किया और क्या जय ललिता बिना ममत्व के इतनी बड़ी नेता होती की उनके देहावसान से दुखी लोग अपनी जान तक दे जाते?

‌ये नारियां और इन जैसी कई जिन्हें मैं और आप नहीं जानते वो महान हैं क्योंकि उस समाज ने उन्हें नारी रूप में स्वीकार किया. बिना किसी पुरुष से तुलना किये.

‌आज भी नारी की मौलिकता को सम्मान मिलना चाहिए. यह जरुरी नहीं की वह पुरुषों की तरह वजन उठाये या अखाड़ों में पहलवानों को पटके तब वह महान होगी बल्कि हमें यह मानना होगा कि सारे परिवार को प्यार परोसने वाली और बच्चों को पोषित करने वाली महिला भी महान है. मैं चूल्हा चौका, बच्चों को पैदा करना या किसी कार्य विशेष से नारी को जोड़ने की दकियानूसी सोच की बात नहीं कर रहा बल्कि नारी के अंदर जो विशेषताएं है उन विशेषताओं के बल पर उन्हें कार्य करने की आजादी हो ऐसी व्यवस्था और सोच की बात कर रहा हूं.

‌एक ऐसी सोच जो नारी के कार्य करने के तरीके की मौलिकता का सम्मान करे. जो उसके कार्य का मूल्यांकन उसकी विशेषताओं की दृष्टि से करे पुरुष से तुलना की निगाह से नहीं. यदि कहीं कोई तुलना ना हो स्त्री पुरुष के बीच तथा दोनों की मौलिकताओं का सम्मान हो तो कोई घृणित संघर्ष ही ना रह जाएगा.

‌विश्वास कीजिये अगर एक बार हम नारी को उसकी मौलिकता में देखने की दृष्टि विकसित कर लें तो हम कितना सम्मान और प्रेम उसे दे पाएंगे. हम उसकी विशेषताएं और उनके समाज के लिए महत्त्व को सहज ही स्वीकार लेंगे.

विश्व में बढ़ती हिंसा, अवसाद, असुरक्षा और भूख के बीच आज स्त्री की मौलिकता को सम्मान देने की महती आवश्यकता है. क्योंकि मूलतः वह प्रेम, ऊर्जा, संरक्षण और पोषण की प्रतिमूर्ति है. नारी में  वह क्षमता है जो इन समस्याओं पर दुनिया को विजय दिला सके. आइए हम और आप मिलकर नारी के साथ चलें  फिर से इस दुनिया को रचने की यात्रा पर. एक ऐसी दुनिया जहां कोई तुलना न हो और प्रकृति की हर रचना की तरह नारी की भी मौलिकता का सम्मान हो.

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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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