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मध्य प्रदेश के इस क्षेत्र में नहीं है एक भी विधवा, जानिए क्यों

    • आईचौक
    • Updated: 23 जून, 2018 12:52 PM
  • 10 मई, 2016 04:59 PM
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जिस देश में करोड़ विधवाएं हों उसी देश के एक राज्य के एक इलाके में एक भी विधवा नहीं हैं, आप शायद इस पर यकीन न करें लेकिन ये बिल्कुल सच है, जानिए क्या है इसकी वजह.

जिस देश में 5.6 करोड़ से ज्यादा विधवा हों उसी देश के एक किसी क्षेत्र में अगर एक भी विधवा न होने की बात बताई जाए तो ज्यादातर लोग शायद यकीन नहीं करेंगे. लेकिन ये बात बिल्कुल सच है. मध्यप्रदेश के मंडला जिले में एक क्षेत्र ऐसा है जहां एक भी विधवा नहीं हैं. आप सोचेंगे भला ऐसा कैसे संभव है, तो इसकी वजह यहां वर्षों से चली आ रही एक परंपरा है. आइए जानें आखिर क्यों मध्य प्रदेश के इस इलाके में नहीं होती हैं विधवाएं.

मध्य प्रदेश के इस इलाके में नहीं हैं विधवाएं: 

टाइम्स ऑफ इंडिया की रिपोर्ट के मुताबिक मध्य प्रदेश के मांडला जिले में गोंड समुदाय में विधवाएं नहीं पाई जाती हैं. इसका कराण है वह परंपरा जिसके किसी औरत के पति की मौत हो जाने पर उसका विवाह परिवार के अन्य कुंवारे व्यक्ति से करा दिया जाता है, फिर चाहे वह औरत का नाती या पोता ही क्यों न हो.

अगर ऐसी औरत से विवाह करने के लिए कोई पुरुष तैयार या उपलब्ध नहीं होता है तो उस औरत को उसके पति की मौत के दसवें दिन समुदाय के उम्रदराज लोग विशेष तौर पर डिजाइन की गई चांदी के कंगन पहनाते हैं, जिसे 'पाटो' कहते हैं. जिसके बाद उस औरत को शादी-शुदा माना जाता है और वह उसे चूड़ी पहनाने वाली औरत के घर में रहती है.

2011 की जनगणना के मुताबिक भारत में 5.6 करोड़ से ज्यादा विधवाएं हैं

पतिराम वरखाड़े जब महज छह वर्ष के थे तो उनके दादा जी की मौत हो गई. ऐसे में उनका विवाह उनकी दादी से कर दिया गया, जिसे 'नाती पाटो' कहा जाता है. पतिराम बताते हैं कि शादी के बाद उन्होंने अपना दादी के साथ कई धार्मिक कार्यक्रमों में पति-पत्नी के रूप में भाग लिया. जब वे बड़े हुए तो अपनी पसंद की लड़की...

जिस देश में 5.6 करोड़ से ज्यादा विधवा हों उसी देश के एक किसी क्षेत्र में अगर एक भी विधवा न होने की बात बताई जाए तो ज्यादातर लोग शायद यकीन नहीं करेंगे. लेकिन ये बात बिल्कुल सच है. मध्यप्रदेश के मंडला जिले में एक क्षेत्र ऐसा है जहां एक भी विधवा नहीं हैं. आप सोचेंगे भला ऐसा कैसे संभव है, तो इसकी वजह यहां वर्षों से चली आ रही एक परंपरा है. आइए जानें आखिर क्यों मध्य प्रदेश के इस इलाके में नहीं होती हैं विधवाएं.

मध्य प्रदेश के इस इलाके में नहीं हैं विधवाएं: 

टाइम्स ऑफ इंडिया की रिपोर्ट के मुताबिक मध्य प्रदेश के मांडला जिले में गोंड समुदाय में विधवाएं नहीं पाई जाती हैं. इसका कराण है वह परंपरा जिसके किसी औरत के पति की मौत हो जाने पर उसका विवाह परिवार के अन्य कुंवारे व्यक्ति से करा दिया जाता है, फिर चाहे वह औरत का नाती या पोता ही क्यों न हो.

अगर ऐसी औरत से विवाह करने के लिए कोई पुरुष तैयार या उपलब्ध नहीं होता है तो उस औरत को उसके पति की मौत के दसवें दिन समुदाय के उम्रदराज लोग विशेष तौर पर डिजाइन की गई चांदी के कंगन पहनाते हैं, जिसे 'पाटो' कहते हैं. जिसके बाद उस औरत को शादी-शुदा माना जाता है और वह उसे चूड़ी पहनाने वाली औरत के घर में रहती है.

2011 की जनगणना के मुताबिक भारत में 5.6 करोड़ से ज्यादा विधवाएं हैं

पतिराम वरखाड़े जब महज छह वर्ष के थे तो उनके दादा जी की मौत हो गई. ऐसे में उनका विवाह उनकी दादी से कर दिया गया, जिसे 'नाती पाटो' कहा जाता है. पतिराम बताते हैं कि शादी के बाद उन्होंने अपना दादी के साथ कई धार्मिक कार्यक्रमों में पति-पत्नी के रूप में भाग लिया. जब वे बड़े हुए तो अपनी पसंद की लड़की से शादी भी की, क्योंकि हमारा समुदाय इस प्रथा के तहत विवाहित होने वाले नाबालिगों को फिर से विवाह करने की इजाजत देता है.

बेहंगा गाव में रहने वाले 24 वर्षीय पतिराम की पत्नी को पांच साल पहले उनकी दादी की मौत तक 'दूसरी पत्नी' के नाम से रहना पड़ा.

आमतौर पर इस समुदाय में होने वाली ऐसी शादियों में महिला और पुरुष की उम्र के अंतर को देखते हुए उनके बीच कोई शारीरिक संबंध नहीं बनता है लेकिन अगर ऐसा हो जाए तो समुदाय इसमें हस्तक्षेप नहीं करता और न हीं इसके प्रति अपनी असहमति जताता है.

अपने से पांच साल बड़ी अपनी भाभी हंसू बाई से शादी करने वाले 55 वर्षीय किरपाल सिंह वारखेड़े कहते हैं, 'यह हमारी परंपरा है तो वह विधवा क्यों रहें?' हालांकि यहां कुछ लोग ऐसे भी हैं जो इस परंपरा को नहीं मानते. 28 वर्षीय भगवती वारखेड़े दो बच्चों की मां हैं और दो साल पहले उनके पति का निधन हो गया था. लेकिन उन्होंने फिर से शादी नहीं की. हालांकि उन्हें भी सुहागिन का दर्जा प्राप्त है. वह बताती हैं कि उन्हें यह दर्जा 'पंच पाटो' परंपरा के तहत मिला है, जिसे देने का अधिकार गांव के पंचों को है.

गोंड्स अपने गांव से बाहर जाने के बाद भी इस परंपरा को बरकरार रखते हैं. उनका कहना है कि उनकी यह परंपरा उनके पढ़े-लिखे युवकों के बीच भी जिंदा है. यहां तक कि भोपाल जैसे बड़े शहर में नौकरी कर रहे इस समुदाय के युवा भी इस परंपरा को मानते हैं.

ये प्रथा सही है या गलत इस पर बहस हो सकती है लेकिन अपने अलग अंदाज के कारण ये सबका ध्यान अपनी ओर खींच रही है.

इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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