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श्रीदेवी के निधन का कवरेज और 'न्यूज़ की मौत' पर बकवास बहस

    • रोहित सरदाना
    • Updated: 01 मार्च, 2018 09:01 PM
  • 01 मार्च, 2018 12:20 AM
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सबसे आसान होता है ये कह देना कि टीआरपी के लिए कर रहे हैं ये तो! जबकि न तो कोई टीवी संपादक आज तक टीआरपी का कोई श्योर शॉट फार्मूला निकाल पाया, और न ही कोई टीवी आलोचक इसकी तह तक पहुंच पाया कि किस खबर की टीआरपी आती है, किसकी नहीं!

4 दिन से श्रीदेवी की मौत पर चल रहा ‘सबसे बड़ा कवरेज’ (लगभग हर चैनल ने यही दावा किया था) श्रीदेवी के अंतिम संस्कार के साथ खत्म हो गया.

बहुत लोगों को डर था, श्रीदेवी की मौत की कवरेज में भारतीय मीडिया नीरव मोदी को भूल जाएगा. लेकिन नहीं भूला. कार्ति चिदंबरम को भी भारतीय मीडिया नहीं भूला. बिहार के मुज़फ्फरपुर में नौ बच्चों पर गाड़ी चढ़ा देने का आरोपी मनोज बैठा भी भारतीय मीडिया की नज़र से भाग नहीं सका, भले ही मीडिया में श्रीदेवी की कवरेज लगातार चल रही थी.

इसलिए कोई ये कहे कि श्रीदेवी की कवरेज के दौरान ‘न्यूज़’ की मौत हो गई, तो मैं कम से कम उससे सहमत नहीं. दिलचस्प ये है कि जब तक आप नौकरी पर रहें, वही सब करें, लेकिन नौकरी हाथ से जाते ही आपको लगने लगे कि आपके अलावा जितने लोग काम कर रहे हैं– वो न्यूज़ की हत्या करने में लगे हैं– तो सवाल पूछना ज़रूरी हो जाता है.

श्रीदेवी को अंदिम विदाई देने के लिए उमड़े फैन्स

अगर किसी फिल्मी सितारे की मौत, देश से हज़ारों किलोमीटर दूर, असामान्य परिस्थितियों में हुई है, जिसकी पोस्टमार्टम रिपोर्ट आने में दो दिन लग जाते हैं, जिसके बारे में डेथ सर्टीफिकेट साफ तौर पर कुछ बता नहीं पाता, जिससे जुड़ी ख़बरें छन-छन कर विदेशी मीडिया के सहारे ही बाहर आ रही हैं – लेकिन जिसके बारे में आपके देश की आबादी का एक बड़ा हिस्सा जानना चाहता है – उसे आप कैसे नज़रअंदाज़ कर देंगे ?

किसी ने लिखा है, कि श्रीदेवी एक पीढ़ी के लिए चांदनी थीं तो एक पीढ़ी ने मॉम के ज़रिए उनसे रिश्ता जोड़ा था– उनकी मौत के बारे में जानना हर कोई चाहता था. क्योंकि भारतीय सिनेमा के चाहने वालों के दिलों में श्रीदेवी की अपनी एक जगह थी, ऐसे में मीडिया ने हर गली-नुक्कड़-चौराहे-चाय-पान की...

4 दिन से श्रीदेवी की मौत पर चल रहा ‘सबसे बड़ा कवरेज’ (लगभग हर चैनल ने यही दावा किया था) श्रीदेवी के अंतिम संस्कार के साथ खत्म हो गया.

बहुत लोगों को डर था, श्रीदेवी की मौत की कवरेज में भारतीय मीडिया नीरव मोदी को भूल जाएगा. लेकिन नहीं भूला. कार्ति चिदंबरम को भी भारतीय मीडिया नहीं भूला. बिहार के मुज़फ्फरपुर में नौ बच्चों पर गाड़ी चढ़ा देने का आरोपी मनोज बैठा भी भारतीय मीडिया की नज़र से भाग नहीं सका, भले ही मीडिया में श्रीदेवी की कवरेज लगातार चल रही थी.

इसलिए कोई ये कहे कि श्रीदेवी की कवरेज के दौरान ‘न्यूज़’ की मौत हो गई, तो मैं कम से कम उससे सहमत नहीं. दिलचस्प ये है कि जब तक आप नौकरी पर रहें, वही सब करें, लेकिन नौकरी हाथ से जाते ही आपको लगने लगे कि आपके अलावा जितने लोग काम कर रहे हैं– वो न्यूज़ की हत्या करने में लगे हैं– तो सवाल पूछना ज़रूरी हो जाता है.

श्रीदेवी को अंदिम विदाई देने के लिए उमड़े फैन्स

अगर किसी फिल्मी सितारे की मौत, देश से हज़ारों किलोमीटर दूर, असामान्य परिस्थितियों में हुई है, जिसकी पोस्टमार्टम रिपोर्ट आने में दो दिन लग जाते हैं, जिसके बारे में डेथ सर्टीफिकेट साफ तौर पर कुछ बता नहीं पाता, जिससे जुड़ी ख़बरें छन-छन कर विदेशी मीडिया के सहारे ही बाहर आ रही हैं – लेकिन जिसके बारे में आपके देश की आबादी का एक बड़ा हिस्सा जानना चाहता है – उसे आप कैसे नज़रअंदाज़ कर देंगे ?

किसी ने लिखा है, कि श्रीदेवी एक पीढ़ी के लिए चांदनी थीं तो एक पीढ़ी ने मॉम के ज़रिए उनसे रिश्ता जोड़ा था– उनकी मौत के बारे में जानना हर कोई चाहता था. क्योंकि भारतीय सिनेमा के चाहने वालों के दिलों में श्रीदेवी की अपनी एक जगह थी, ऐसे में मीडिया ने हर गली-नुक्कड़-चौराहे-चाय-पान की गुमटी-दफ्तर-रेल-बस में हो रही चर्चा को देखते हुए श्रीदेवी की मौत का कवरेज चार दिन चला दिया तो क्या अपराध किया ?

सलमान खान के हिट एंड रन केस का टीवी ट्रायल किसी को याद है कितने दिन चला था ? सलमान खान के ही हिरण शिकार मामले की पेशियों को कितना टीवी कवरेज मिलेगा, ये तय करने वाले ज़्यादातर टीवी संपादक आज रिटायर हो गए होंगे– लेकिन अपने समय में उन्होंने कौन सी समय सीमाएं तय की थीं ? संजय दत्त की पेशियों के समय क्या किसी टीवी चैनल को ये याद रहता था कि कोई और ख़बर भी चलनी है ?

शशि थरूर की पत्नी सुनंदा पुष्कर का शव होटेल के कमरे में ऐसी ही रहस्यमय परिस्थितियों में मिला था, कितने दिन तक कवरेज चली थी, याद है किसी को? आरूषि केस महीनों तक टीवी पर चलता रहा था, क्योंकि हर मां-बाप, हर बच्चा उस केस से खुद को जुड़ा महसूस करता था. निठारी में मासूम बच्चों के कातिल की कहानी हफ्तों तक टीवी पर छाई रही थी. हाल ही में गुड़गांव के रेयान स्कूल में प्रद्युम्न मर्डर केस भी कितने दिनों तक टीवी पर लगातार चलता रहा, तब तो किसी को नहीं चुभा?

और सिर्फ सितारे ही नहीं – भारत के टीवी चैनल्स ने तो मेरठ की गुड़िया की शादी की कहानी को हफ्ते भर चौबीसों घंटे तक दिखाया था. मॉडल निकाहनामे की वजह बनी इमराना की कहानी के दौरान टीवी चैनलों पर बाकायदे पंचायतें बैठी थीं, और घंटों घंटों तक चर्चाएं होती रही थीं. प्रिंस नाम का बच्चा गड्ढे में गिर गया था, बहत्तर घंटे लगातार टीवी कैमरे खड़े रहे थे तो बच्चा ज़िंदा निकाला जा सका था, किसी को याद है ?

श्रीदेवी की अंतिम यात्रा

सबसे आसान होता है ये कह देना कि टीआरपी के लिए कर रहे हैं ये तो! जबकि न तो कोई टीवी संपादक आज तक टीआरपी का कोई श्योर शॉट फार्मूला निकाल पाया, और न ही कोई टीवी आलोचक इसकी तह तक पहुंच पाया कि किस खबर की टीआरपी आती है, किसकी नहीं! आप जनसरोकार की अच्छी से अच्छी ख़बर चला लीजिए, कोई भरोसा नहीं लोग ये देखें या नहीं. इस तरह के दावे करने वाले कितने चैनल्स हैं और उनकी क्या स्थिति है, किसी से छिपा नहीं है.

अमिताभ बच्चन को फिल्म कुली की शूटिंग के दौरान चोट लग गई थी. न टीवी था, न चौबीस घंटे के चैनल. लेकिन रेडियो अखबार में ही कोहराम मच गया था. हर आदमी जानना चाहता था कि क्या हुआ, और अखबारों ने उस समय उस खबर को प्रमुखता दी भी. तब कौन सी टीआरपी गिनी जा रही थी?

26/11 के आतंकी हमले की कवरेज के दौरान, न रिपोर्टर्स ने दिन-रात देखा न टीवी चैनल्स ने. मसला देश की सुरक्षा का था. उसी दौरान पूर्व प्रधानमंत्री वी पी सिंह चल बसे थे, लेकिन कवरेज आतंकी हमले को ही मिली. जो आज पूछ रहे हैं जज लोया की मौत पर क्यों कवरेज नहीं किया श्रीदेवी पर क्यों किया, वही उस समय पूछते थे वी पी सिंह पर कवरेज क्यों नहीं किया फाइव स्टार होटल पर हमले का कवरेज क्यों किया ? क्योंकि सिर्फ एक पांच सितारा होटल पर हमले का नहीं था, भारत की संप्रभुता पर हमले का था.

सवाल तब भी उठे थे, सवाल अब भी उठ रहे हैं. कवरेज कीजिए, बाथटब क्यों दिखा रहे हैं ? क्या इस देश का हर आदमी जानता है कि बाथटब क्या है ? सबके घरों में बाथटब बने हैं ? किसी के मन में ये सवाल नहीं आएगा कि बाथटब में भला कैसे मौत हो सकती है ? ऐसे में बाथटब की तस्वीर दिखाना कैसे अपराध हो गया ?

या कि खुद को Holy Cow दिखाने के लिए ज़रूरी है कि दूसरे जो कर रहे हैं, उसे न्यूज़ की मौत क़रार दे दिया जाए, और अपने सारे कर्म-कांडों पर परदा डाल दिया जाए!

न्यूज़ की मौत उस दिन नहीं हुई थी क्या जिस रोज़ मीडिया रिपोर्टिंग के चक्कर में देश एक जवान फौजी अफसर ने जान गंवा दी थी ?

न्यूज़ की मौत उस दिन नहीं हुई थी जिस रोज़ नामी पत्रकार कॉरपोरेट लॉबिस्ट नीरा राडिया के साथ मिल कर मंत्रिमंडल के नाम तय करने का दावा कर रही थीं ?

न्यूज़ की मौत उस दिन नहीं हुई थी जिस रोज़ एक टीवी चैनल पर रिपोर्टिंग की आड़ में देश की सुरक्षा को ख़तरे में डालने के लिए बैन का फैसला हो गया था ?

न्यूज़ की मौत उस दिन नहीं हुई थी जिस दिन एक पॉलिटिकल पार्टी के प्रवक्ता बन चुके पत्रकार का एक निजी कंपनी के पक्ष में लेख लिखना पकड़ा गया था ?

न्यूज़ की मौत उस दिन नहीं हुई थी जिस दिन सच दिखाने का दावा करने वाले चैनल पर पत्रकार की पत्नी के ज़रिए रिश्वत दे कर घोटाले का केस सेटल करने की कोशिश का मामला उजागर हो गया था ?

सरकारी अफसर तो चलिए समझ में आता है कि रिटायर होने के बाद सारे सवाल उठाते हैं वरना ट्रांसफर-पोस्टिंग और सीआर बिगड़ने का खौफ रहता है, पत्रकार तो बड़े ‘निष्पक्ष’ कहे जाते हैं न? फिर संपादक की कुर्सी पर बैठे रहते न्यूज़ की मौत से पल्ला काहे झाड़ लेते हैं? या रिटायरमेंट के बाद उंगली कटा के शहीद का दर्जा चाहिए ?

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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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