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समाज

हां बाबू, ये सर्कस है....शो तीन घंटे का!

    • प्रीति अज्ञात
    • Updated: 09 अगस्त, 2017 07:21 PM
  • 09 अगस्त, 2017 07:21 PM
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ये कटु सत्य हम सबको निगलना ही होगा कि वृद्ध हर जगह उपेक्षित हैं, घर के भीतर भी और बाहर भी!

एक आईटी प्रोफेशनल लड़का करीब एक साल बाद अमेरिका से मुंबई अपने घर लौटता है. जैसे ही वह घर में दाखिल होता है, उसके रौंगटे खड़े हो जाते हैं. घर के अंदर उसे उसकी मां आशा साहनी का कंकाल मिलता है.

आशा साहनी जी की मौत की खबर सिर्फ़ उनके बेटे की व्यस्त जिंदगी की ही नहीं बल्कि इस अति संवेदनशील और सभ्य समाज की आत्म-केन्द्रीयता का भी प्रत्यक्ष प्रमाण देती है. समाज, जो जरा-जरा सी बात पर आहत होता है, धरने पर बैठ जाता है, मोमबत्तियां जला जुलूस निकाल अपने कोमल ह्रदय और संवेदनशीलता का परिचय देता है. दुर्गन्ध के आते ही नाक-भौंह चढ़ा स्वच्छता की दुहाई दे पछाड़ें खा-खाकर गिरता है. उसे इस बात की भनक तक न लग सकी? घर अंदर से बंद हो और महीनों न खुले, तो किसी को चिंता न हुई? किसी का मन विचलित न हुआ?

एक साल पहले फोन पर बात की थी बेटे ने जबकि कितनी ऐसी बातें हैं, जो हर घर से सम्बंधित होती हैं-

- लाइट on या off रहती है.

- घर के कामकाज में सहायक व्यक्तियों का आना-जाना होता है.

- दरवाजे पर अखबार जमा होने लगते हैं.

- टेलीफोन, बिजली के बिल आते हैं. जमा न होने पर कनेक्शन काटने की सूचना देने भी विभाग के लोग आते हैं.

- वैसे भले ही न मिलें पर होली, दीवाली और कितने ही त्यौहार होते हैं जहां पडोसी के घर पर नज़र पड़ती ही है. दीवाली में अगर पड़ोस में अंधेरा हो तो कोई न कोई एक दिया रखने ही सही, पर वहां जाता ही है.

- अरे! लाश की बदबू तो आती है! दसवें माले पर घर भले ही हो, पर वॉचमैन और सफाईकर्मी का जाना तो फिर भी होता है. अगर नहीं गए तो यह भी एक बड़ा प्रश्नचिह्न खड़ा करता है.

क्या हम इतने पाषाण हो गए हैं कि किसी की अनुपस्थिति हमें चिंतित नहीं करती?

कहते हैं कि करोड़ों का अपार्टमेंट था. उसमें रहने वाली वृद्ध...

एक आईटी प्रोफेशनल लड़का करीब एक साल बाद अमेरिका से मुंबई अपने घर लौटता है. जैसे ही वह घर में दाखिल होता है, उसके रौंगटे खड़े हो जाते हैं. घर के अंदर उसे उसकी मां आशा साहनी का कंकाल मिलता है.

आशा साहनी जी की मौत की खबर सिर्फ़ उनके बेटे की व्यस्त जिंदगी की ही नहीं बल्कि इस अति संवेदनशील और सभ्य समाज की आत्म-केन्द्रीयता का भी प्रत्यक्ष प्रमाण देती है. समाज, जो जरा-जरा सी बात पर आहत होता है, धरने पर बैठ जाता है, मोमबत्तियां जला जुलूस निकाल अपने कोमल ह्रदय और संवेदनशीलता का परिचय देता है. दुर्गन्ध के आते ही नाक-भौंह चढ़ा स्वच्छता की दुहाई दे पछाड़ें खा-खाकर गिरता है. उसे इस बात की भनक तक न लग सकी? घर अंदर से बंद हो और महीनों न खुले, तो किसी को चिंता न हुई? किसी का मन विचलित न हुआ?

एक साल पहले फोन पर बात की थी बेटे ने जबकि कितनी ऐसी बातें हैं, जो हर घर से सम्बंधित होती हैं-

- लाइट on या off रहती है.

- घर के कामकाज में सहायक व्यक्तियों का आना-जाना होता है.

- दरवाजे पर अखबार जमा होने लगते हैं.

- टेलीफोन, बिजली के बिल आते हैं. जमा न होने पर कनेक्शन काटने की सूचना देने भी विभाग के लोग आते हैं.

- वैसे भले ही न मिलें पर होली, दीवाली और कितने ही त्यौहार होते हैं जहां पडोसी के घर पर नज़र पड़ती ही है. दीवाली में अगर पड़ोस में अंधेरा हो तो कोई न कोई एक दिया रखने ही सही, पर वहां जाता ही है.

- अरे! लाश की बदबू तो आती है! दसवें माले पर घर भले ही हो, पर वॉचमैन और सफाईकर्मी का जाना तो फिर भी होता है. अगर नहीं गए तो यह भी एक बड़ा प्रश्नचिह्न खड़ा करता है.

क्या हम इतने पाषाण हो गए हैं कि किसी की अनुपस्थिति हमें चिंतित नहीं करती?

कहते हैं कि करोड़ों का अपार्टमेंट था. उसमें रहने वाली वृद्ध महिला की भूख से मौत?? ऐसी मृत्यु अचानक तो नहीं होती! बेटा अमेरिका में था पर क्या उनका पूरे भारत में एक भी रिश्तेदार या मित्र नहीं था जो उनका हालचाल पूछता?

कहा जा रहा है कि बेटे ने अप्रैल 2016 के बाद फोन नहीं किया. किया भी तो पिक नहीं हुआ. जब फोन न उठे तो इंसान कुछ देर रुक, दोबारा कॉल करता है. फिर बार-बार करता है. उसके बाद मन विचलित होता ही है. हम सोसाइटी के लोगों, मित्रों से कहते ही हैं कि जरा पता करके आओ! कोई भी न हो तो पुलिस का सहारा लिया जाता है. क्या मां इतनी समर्थ और शक्तिशाली थीं कि पुत्र को परेशान होने की आवश्यकता ही महसूस न हुई? हैरत है! और यह पूरा घटनाक्रम अत्यंत दुःखद भी.

ये लिखने में भी मुझे संकोच हो रहा है कि आशा जी के स्थान पर अगर कोई जवान लड़की या लड़का वहां अकेला रह रहा होता, तो शायद दूसरे-तीसरे दिन ही सबको सूचना मिल गई होती. ये कटु सत्य हम सबको निगलना ही होगा कि वृद्ध हर जगह उपेक्षित हैं, घर के भीतर भी और बाहर भी! ख़ासतौर से तब जब वो अपनी शारीरिक विषमताओं से संघर्षरत हैं.

राजकपूर जी की फिल्म 'मेरा नाम जोकर' में एक गीत में कहा गया है,

"हां बाबू, ये सर्कस है, और ये सर्कस है....शो तीन घंटे का

पहला घंटा बचपन, दूसरा जवानी और तीसरा बुढ़ापा

और उसके बाद......

मां नहीं बाप नहीं, बेटा नहीं, बेटी नहीं, तू नहीं, मैं नहीं

ये नहीं, वो नहीं, कुछ भी नहीं रहता है

रहता है जो कुछ....वो खाली-खाली कुर्सियां हैं

खाली-खाली तम्बू है, खाली-खाली घेरा है, बिन चिड़िया का बसेरा है

न तेरा है न मेरा है.....

आशा जी को विनम्र श्रद्धांजलि!

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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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