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कातिल भागते-भागते गौरी लंकेश की 'अंतिम इच्‍छा' पूरी कर गए !

    • अरविंद मिश्रा
    • Updated: 06 सितम्बर, 2017 01:53 PM
  • 06 सितम्बर, 2017 01:53 PM
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क्या हमारा समाज इतना असहिष्णु हो गया है जो विद्वान लेखकों के विचारों से निपटने के लिए अपने विचारों का नहीं बल्कि बंदूक का सहारा लेता है? लेकिन ऐसी बंदकें विचारकों के नजरिए को और ताकत ही देती हैं.

बीजेपी की घोर आलोचक व वरिष्ठ पत्रकार गौरी लंकेश को बंगलुरू में उनके घर में घुसकर गोली मारकर हत्या कर दी गई. अज्ञात शख्स ने उन्हें तीन गोलियां मारी जिसके बाद उनकी मौके पर ही मौत हो गई. उन्हें हिंदुत्ववादी राजनीति का घोर आलोचक माना जाता था. पिछले साल सांसद प्रहलाद जोशी की तरफ से दायर मानहानि मामले में उन्हें दोषी करार दिया गया था जिन्होंने भाजपा नेताओं के खिलाफ एक खबर पर आपत्ति जताई थी. गौरी लंकेश साप्ताहिक मैग्जीन 'लंकेश पत्रिके' की संपादक थीं. वो अखबारों में कॉलम लिखने के साथ ही टीवी न्यूज चैनलों के डिबेट्स में भी एक्टिविस्ट के तौर पर शामिल होती थीं. गौरी ने लंकेश पत्रिका के जरिए 'कम्युनल हार्मनी फोरम' को काफी बढ़ावा दिया था.

ये पहला मौका नहीं है कि जब किसी एक विचारधारा के मानने वाले को मौत के नींद सुला दिया गया हो. नरेंद्र दाभोलकर को 2013 में पुणे में हत्या कर दी गयी थी. गोविंद पानसरे को 2015 में कोल्हापुर में और उसी साल एमएम कलबुर्गी को धारवाड़ में गोली मार कर हत्या कर दी गयी थी. पिछले महीने ही नरेंद्र दाभोलकर और गोविंद पानसरे की हत्या को बॉम्बे उच्च न्यायालय ने सुनियोजित करार देते हुए जांच अधिकारियों से कहा था कि वे अपराधियों को पकड़ने के लिये अपनी जांच की मौजूदा दिशा से इतर भी देखें.

हालांकि अभी तक वरिष्ठ पत्रकार गौरी लंकेश के हत्या के पीछे के मकसद का पता नहीं चल पाया है. लेकिन ज़ेहन में एक सवाल ज़रूर उठता है कि आखिर क्यों इन विचारकों के विचारों को बंदूक की गोलियों के सहारे शांत किया जाता रहा है. भारत को दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र कहा जाता है. लेकिन लगातार तर्कशील विचारकों और कार्यकर्ताओं की हत्या कई अनसुलझे सवाल छोड़ जाता है.

इंसान को मारने से क्या सोच भी मर जाएगी?

क्या हमारा समाज इतना असहिष्णु हो गया है जो...

बीजेपी की घोर आलोचक व वरिष्ठ पत्रकार गौरी लंकेश को बंगलुरू में उनके घर में घुसकर गोली मारकर हत्या कर दी गई. अज्ञात शख्स ने उन्हें तीन गोलियां मारी जिसके बाद उनकी मौके पर ही मौत हो गई. उन्हें हिंदुत्ववादी राजनीति का घोर आलोचक माना जाता था. पिछले साल सांसद प्रहलाद जोशी की तरफ से दायर मानहानि मामले में उन्हें दोषी करार दिया गया था जिन्होंने भाजपा नेताओं के खिलाफ एक खबर पर आपत्ति जताई थी. गौरी लंकेश साप्ताहिक मैग्जीन 'लंकेश पत्रिके' की संपादक थीं. वो अखबारों में कॉलम लिखने के साथ ही टीवी न्यूज चैनलों के डिबेट्स में भी एक्टिविस्ट के तौर पर शामिल होती थीं. गौरी ने लंकेश पत्रिका के जरिए 'कम्युनल हार्मनी फोरम' को काफी बढ़ावा दिया था.

ये पहला मौका नहीं है कि जब किसी एक विचारधारा के मानने वाले को मौत के नींद सुला दिया गया हो. नरेंद्र दाभोलकर को 2013 में पुणे में हत्या कर दी गयी थी. गोविंद पानसरे को 2015 में कोल्हापुर में और उसी साल एमएम कलबुर्गी को धारवाड़ में गोली मार कर हत्या कर दी गयी थी. पिछले महीने ही नरेंद्र दाभोलकर और गोविंद पानसरे की हत्या को बॉम्बे उच्च न्यायालय ने सुनियोजित करार देते हुए जांच अधिकारियों से कहा था कि वे अपराधियों को पकड़ने के लिये अपनी जांच की मौजूदा दिशा से इतर भी देखें.

हालांकि अभी तक वरिष्ठ पत्रकार गौरी लंकेश के हत्या के पीछे के मकसद का पता नहीं चल पाया है. लेकिन ज़ेहन में एक सवाल ज़रूर उठता है कि आखिर क्यों इन विचारकों के विचारों को बंदूक की गोलियों के सहारे शांत किया जाता रहा है. भारत को दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र कहा जाता है. लेकिन लगातार तर्कशील विचारकों और कार्यकर्ताओं की हत्या कई अनसुलझे सवाल छोड़ जाता है.

इंसान को मारने से क्या सोच भी मर जाएगी?

क्या हमारा समाज इतना असहिष्णु हो गया है जो विद्वान लेखकों के विचारों से निपटने के लिए अपने विचारों का नहीं बल्कि बंदूक का सहारा लेता है? विचारों से जब उन्हें परास्त नहीं कर पाए तो बंदूक की गोलियों का सहारा लिया और उन्हें समाप्त कर दिया? लेकिन यहां पर शायद हमलावर भूल जाते हैं कि विचारक मर सकते हैं लेकिन विचार कभी नहीं मरते.

आइये जानते हैं इसके पहले किन्हें और क्यों हत्या की गयी?

नरेंद्र दाभोलकर: इन्हें 20 अगस्त 2013 को पुणे के सड़कों पर हत्या कर दी गयी. वो लगातार अंधविश्वासों और रूढ़ियों पर चोट करते रहे थे और यही बात कुछ रूढ़िवादियों को नागवार गुजरी थी. वे अंधविश्वासों और काले जादू के खिलाफ कानून बनाने के लिए लंबी लड़ाई लड़े थे.

गोविंद पानसरे: 16 फरवरी 2015 को जब कोल्हापुर की सड़क पर वो अपनी पत्नी के साथ टहलकर लौट रहे थे, उसी वक़्त उन्हें गोली मारकर हत्या कर दी गयी थी. उन्होंने शिवाजी की हिन्दुत्ववादी तस्वीर से अलग सेकुलर रूप में व्याख्या की थी और जाति से बाहर विवाह को प्रोत्साहन दिया था.

एमएम कलबुर्गी: 30 अगस्त 2015 को धारवाड़ में जैसे ही उन्होंने अपने घर का दरवाज़ा खोला था, उन्हें गोलियों से छलनी कर दिया गया था. तर्कवादी कलबुर्गी लिंगायत समुदाय के आलोचक थे. 2014 में उन्होंने खुले रूप से मूर्ति पूजा का विरोध किया था.

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वरिष्‍ठ पत्रकार गौरी लंकेश की उनके ही घर में हत्‍या कर दी गई. कायर अपराधी उन्‍हें दूर से गोली मारकर फरार हो गए. यह तो पता नहीं कि हत्‍यारों की गौरी से कोई सीधी दुश्‍मनी थी, या उन्‍होंने सुपारी लेकर यह काम किया. लेकिन, इतना तय यह है कि इस हत्‍या ने गौरी के उस काम को इतना बढ़ा दिया, जिसकी मशाल वे जिंदगी भर और अंतिम सांस तक थामे रहीं. अपनी पत्रकारिता से गौरी ने जिन विचारों को आगे बढ़ाया, उसे उनकी मौत ने घर-घर पहुंचा दिया है. हत्‍यारों को लग रहा होगा कि उन्‍होंने अपना काम पूरा कर दिया. जी नहीं, उन्‍होंने गौरी का ही काम आगे बढ़ाया है.

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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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