प्लास्टिक सर्जरी मेडिकल साइंस की वो उपलब्धि है जिसने न सिर्फ जरूरतमंदों की मदद की, बल्कि उन लोगों के लिए तो ये किसी चमत्कार से कम नहीं है जो मनचाहे नैन नक्श न होने से परेशान थे. अब तक लोग अपने पसंदीदा सेलिब्रिटी की तस्वीरें लेकर डॉक्टर्स के पास जाया करते थे और अपने फीचर्स उनके पसंसीदा सितारों की तरह करवा लेते थे. और इस बदलाव के लिए लाखों रुपए लुटाना भी इनके लिए कोई बड़ी बात नहीं थी.
लेकिन अब समय के साथ कुछ बदलाव आया है. नहीं...ऐसा नहीं कि अब लोगों का विश्वास प्लास्टिक सर्जरी से उठ गया है, बल्कि अब लोग सर्जन के पास सैलिब्रिटी के फोटो नहीं बल्कि अपनी ही तस्वीरें लेकर जा रहे हैं. वो तस्वीरें जो स्मार्टफोन कैमरे से ऑटोमैटिक ही फिल्टर होकर आती हैं. यानी लोगों को अब अपना ही फिल्टर्ड वर्जन चाहिए.
हाल ही में JAMA Facial Plastic Surgery में प्रकाशित एक शोध से एक नए ट्रेंड का पता चला है जिसे “Snapchat dysmorphia” कहा गया है. इसमें लोग ऐसी कॉस्मैटिक सर्जरी की तलाश कर रहे हैं जो उन्हें वही रिजल्ट दे जो स्नैपचैट जैसे सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर शेयर किए गए फ़िल्टर्ड और एडिटिड तस्वीरों में दिखता है.
स्मार्ट फोन में सैकड़ों फिल्टर उपलब्ध होते हैं जिनका इस्तेमाल करके चेहरा पतला लगता है, रंग साफ दिखता है, दाग-धब्बे गायब हो जाते हैं, आंखे बड़ी दिखाई देने लगती हैं वगैरह-वगैरह. अब प्लास्टिक सर्जन्स का कहना है कि लोग अपने इसी रूप को लेकर उनके पास आते हैं इस उम्मीद के साथ कि वो असल में भी वैसे ही दिखने लग जाएं. शोध...
प्लास्टिक सर्जरी मेडिकल साइंस की वो उपलब्धि है जिसने न सिर्फ जरूरतमंदों की मदद की, बल्कि उन लोगों के लिए तो ये किसी चमत्कार से कम नहीं है जो मनचाहे नैन नक्श न होने से परेशान थे. अब तक लोग अपने पसंदीदा सेलिब्रिटी की तस्वीरें लेकर डॉक्टर्स के पास जाया करते थे और अपने फीचर्स उनके पसंसीदा सितारों की तरह करवा लेते थे. और इस बदलाव के लिए लाखों रुपए लुटाना भी इनके लिए कोई बड़ी बात नहीं थी.
लेकिन अब समय के साथ कुछ बदलाव आया है. नहीं...ऐसा नहीं कि अब लोगों का विश्वास प्लास्टिक सर्जरी से उठ गया है, बल्कि अब लोग सर्जन के पास सैलिब्रिटी के फोटो नहीं बल्कि अपनी ही तस्वीरें लेकर जा रहे हैं. वो तस्वीरें जो स्मार्टफोन कैमरे से ऑटोमैटिक ही फिल्टर होकर आती हैं. यानी लोगों को अब अपना ही फिल्टर्ड वर्जन चाहिए.
हाल ही में JAMA Facial Plastic Surgery में प्रकाशित एक शोध से एक नए ट्रेंड का पता चला है जिसे “Snapchat dysmorphia” कहा गया है. इसमें लोग ऐसी कॉस्मैटिक सर्जरी की तलाश कर रहे हैं जो उन्हें वही रिजल्ट दे जो स्नैपचैट जैसे सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर शेयर किए गए फ़िल्टर्ड और एडिटिड तस्वीरों में दिखता है.
स्मार्ट फोन में सैकड़ों फिल्टर उपलब्ध होते हैं जिनका इस्तेमाल करके चेहरा पतला लगता है, रंग साफ दिखता है, दाग-धब्बे गायब हो जाते हैं, आंखे बड़ी दिखाई देने लगती हैं वगैरह-वगैरह. अब प्लास्टिक सर्जन्स का कहना है कि लोग अपने इसी रूप को लेकर उनके पास आते हैं इस उम्मीद के साथ कि वो असल में भी वैसे ही दिखने लग जाएं. शोध के मुताबिक ये स्थिति पहले से ज्यादा खतरनाक है. ये लोगों के मन को काफी गहराई तक प्रभावित कर सकता है.
रिपोर्ट के अनुसार "इन फ़िल्टर की गई तस्वीरों की व्यापकता किसी भी व्यक्ति के आत्म-सम्मान पर चोट कर सकती है. एक व्यक्ति को सही न दिखने को लेकर कमतर या हीन महसूस करवा सकती है. यहां तक कि ये भावना उन्हें बॉडी डिस्मोर्फिक डिसऑर्डर(BDD) की तरफ भी ले जा सकती हैं.
जो लोग BDD से पीड़ित होते हैं वो अक्सर अपनी कमियों को छिपाने के लिए किसी भी हद तक चले जाते हैं, वो ग्रूमिंग के लिए अपने शरीर पर तरह-तरह के प्रयोग करते हैं, स्किन के डॉक्टर और प्लास्टिक सर्जन के पास ज्यादा जाने लगते हैं, इस उममीद में कि वो उनके लुक्स को बदल सकते हैं.
रूप भी वही चाहिए और उतनी ही जल्दी-
अब स्नेपचैट डिस्मॉर्फिया से पीड़ित लोग स्किन के डॉक्टर और प्लास्टिक सर्जन के पास आकर चाहते हैं कि उनका रूप एकदम वैसे ही बदल जाए जितना तेजी से उनके स्मार्टफोन में फोटो खींचने पर बदल जाता है.
"स्नैपचैट डिस्मोर्फिया" वास्तव में, बॉडी डिस्मोर्फिया का ही एक रूप है. ये एक डिसॉर्डर या विकार है जो आबादी के करीब दो प्रतिशत लोगों को प्रभावित करता है. इसकी वजह से लोग छोटी-छोटी कमियों की वजह से खुद से असंतुष्ट रहते हैं.
बॉस्टन यूनिवर्सिटी में डर्मेटोलॉजी की असिस्टेंट प्रोफेसर डॉ. नीलम वाशी का कहना है कि- 'कभी-कभी मेरे पास ऐसे मरीज़ आते हैं जो कहते हैं कि- मुझे चेहरे पर एक छोटा सा दाग भी नहीं चाहिए और मैं चाहती हूं कि ये सब एक हफ्ते में ही चले जाएं. ऐसा इसलिए कि उनके फिल्टर्ड फोटो ने उन्हें ऐसा करके दिखाया है. ये सिर्फ एक बटन दबाने से नहीं होता कि बटन दबाया और हो गया. ये सच नहीं है. ये मेरे लिए मुश्किल है. मैं लोगों को बेहतर तो बना सकती हूं लेकिन उसके लिए एक हफ्ते से काफी ज्यादा समय लगता है और तब भी ऐसा नहीं कि वो सौ प्रतिशत सही ही हो जाए.'
रिपोर्ट की मानें तो- 55 प्रतिशत सर्जन्स ने माना है कि उनके पास ऐसे लोग आते हैं जो अपनी सेल्फी की तरह का लुक चाहते हैं और ऐसे लोग 2016 से लेकर अब तक 13 प्रतिशत बढ़ गए हैं.
सोशल मीडिया पर लोग अपनी वो तस्वीरें शेयर करते हैं जो पूरी तरह से एडिट होती हैं और जो खुद से ज्यादा अच्छी दिखाई देती हैं. यानी असली और नकली के बीच एक बारीक सी रेखा है, जिसे ये कैमरे धुंधला कर देते हैं. और उसी नकली रूप को पाने के लिए आज के युवा अपना असली रूप खोने पर तुले हैं. जिस तरह स्मार्टफोन के फ्रंट कैमरों ने लोगों को सेल्फी का क्रेजी बनाया, अब पैसे वालों को यही सेल्फियां सेल्फी लुक का क्रेजी बना रही हैं. वर्चुअल वर्ल्ड में रहने वाले लोगों से आज की तकनीक उनकी असलियत भी छीनती जा रही है, जो किसी के लिए भी अच्छा नहीं है.
ये भी पढ़ें-
सेल्फी लेना सेहत के लिए क्यों अच्छा है
खूबसूरती के लिए मौत से मुकाबला भी मंजूर !
क्या खुद को आर्टिफीशियल दिखाने की भी कोई हद होती है?
इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.