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पानी बचाने की याद

    • आनंद कुमार
    • Updated: 01 अप्रिल, 2016 08:54 PM
  • 01 अप्रिल, 2016 08:54 PM
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आम तौर पर होली के दौरान कुछ लोगों को पानी बचाने की याद आ ही जाती है. त्योहारों के मौके पर ऐसी बातें याद दिलाने का नुकसान ज्यादा होता है और फायदा कम.

आम तौर पर होली के दौरान कुछ लोगों को पानी बचाने की याद आ ही जाती है. त्योहारों के मौके पर ऐसी बातें याद दिलाने का नुकसान ज्यादा होता है और फायदा कम. ज्यादातर लोग इसे प्रोपोगंडा मानकर पढने से ही इनकार कर देंगे. वैसे अगर आम तौर पर देखा जाए तो भारत में जल संरक्षण की व्यवस्था कोई नयी चीज़ नहीं है. लगभग हर समय में इसकी व्यवस्था दिखती है.

सिन्धु घाटी सभ्यता के काल से ही ढके हुए नालियों और पानी के उचित निकास की व्यवस्थाएं की जाती रही हैं. गुजरात की रण के खदिर बेट में धोलावीरा भी एक अच्छा उदाहरण है. दक्षिणी घाट कहलाने वाले इलाके में पुणे से करीब सवा सौ किलोमीटर दूर नानेघाट के इलाके में सफर कर रहे व्यापारियों के लिए पीने का पानी उपलब्ध करवाने के लिए बरसों पहले व्यवस्था की गई थी. ये अभी भी है.

यहाँ पत्थरों को काट कर पानी जमा करने के कई छोटे छोटे कुंड बना दिए गए हैं. इस से व्यापारिक मार्ग का इस्तेमाल करने वाले यात्रियों को पीने का पानी हमेशा उपलब्ध हो जाता था. ऐसे ही महाराष्ट्र और गुजरात, राजस्थान के लगभग हर किले में देखने को मिल जाता है. किले से आस पास के इलाकों में भी पानी की व्यवस्था की जाती थी. रायगढ़ के किले में ऐसे कई कुंड हैं जिनमें बारिश का पानी जमा होता है.

' टांका' राजस्थान में जल संरक्षण करने की पारंपरिक तकनीक है

पश्चिमी राजस्थान के पुराने बने मकानों में भी ऐसी ही व्यवस्था दिख जाती है. वहां छतों पर जमा होने वाला बारिश का पानी एक नाली के जरिये सीधा एक भूमिगत टैंक में जमा किया जाता है. महलों और किलों में ही नहीं ये व्यवस्था वहां के लगभग सभी पुराने घरों में दिखती है. ऐसी ही एक व्यवस्था मध्य प्रदेश के बुरहानपुर में है....

आम तौर पर होली के दौरान कुछ लोगों को पानी बचाने की याद आ ही जाती है. त्योहारों के मौके पर ऐसी बातें याद दिलाने का नुकसान ज्यादा होता है और फायदा कम. ज्यादातर लोग इसे प्रोपोगंडा मानकर पढने से ही इनकार कर देंगे. वैसे अगर आम तौर पर देखा जाए तो भारत में जल संरक्षण की व्यवस्था कोई नयी चीज़ नहीं है. लगभग हर समय में इसकी व्यवस्था दिखती है.

सिन्धु घाटी सभ्यता के काल से ही ढके हुए नालियों और पानी के उचित निकास की व्यवस्थाएं की जाती रही हैं. गुजरात की रण के खदिर बेट में धोलावीरा भी एक अच्छा उदाहरण है. दक्षिणी घाट कहलाने वाले इलाके में पुणे से करीब सवा सौ किलोमीटर दूर नानेघाट के इलाके में सफर कर रहे व्यापारियों के लिए पीने का पानी उपलब्ध करवाने के लिए बरसों पहले व्यवस्था की गई थी. ये अभी भी है.

यहाँ पत्थरों को काट कर पानी जमा करने के कई छोटे छोटे कुंड बना दिए गए हैं. इस से व्यापारिक मार्ग का इस्तेमाल करने वाले यात्रियों को पीने का पानी हमेशा उपलब्ध हो जाता था. ऐसे ही महाराष्ट्र और गुजरात, राजस्थान के लगभग हर किले में देखने को मिल जाता है. किले से आस पास के इलाकों में भी पानी की व्यवस्था की जाती थी. रायगढ़ के किले में ऐसे कई कुंड हैं जिनमें बारिश का पानी जमा होता है.

' टांका' राजस्थान में जल संरक्षण करने की पारंपरिक तकनीक है

पश्चिमी राजस्थान के पुराने बने मकानों में भी ऐसी ही व्यवस्था दिख जाती है. वहां छतों पर जमा होने वाला बारिश का पानी एक नाली के जरिये सीधा एक भूमिगत टैंक में जमा किया जाता है. महलों और किलों में ही नहीं ये व्यवस्था वहां के लगभग सभी पुराने घरों में दिखती है. ऐसी ही एक व्यवस्था मध्य प्रदेश के बुरहानपुर में है. कर्णाटक के गोलकुंडा और बीजापुर में भी दिखती है और महाराष्ट्र के औरंगाबाद में भी. इन सभी जगहों पर जैसे मिटटी के पके हुए बर्तन होते हैं वैसी ही पका कर बनी मिटटी की पाइप लाइन इस्तेमाल होती है. ऐसी ही सुरंगों और नालों से पानी की धारा को जरुरत के हिसाब से मोड़कर पूरे इलाके में पानी की व्यवस्था सुनिश्चित की जाती थी. ये बरसों पहले बनी व्यवस्थाएं आज भी काम करती हैं.आज भारत को ऐसी और व्यवस्थाओं की जरुरत है.

जब बारिश के पानी की बात चली है तो आपको चेरापूंजी का नाम जरूर याद आ गया होगा. ये इलाका दुनिया में सबसे ज्यादा बारिश के लिए जाना जाता है. ज्यादा बारिश का यहां एक नतीजा ये भी होता है कि उसके साथ काफी मिटटी बह जाती है. भू स्खलन आम बात है. अगर आज चेरापूंजी के इलाके को देखेंगे तो वहां बारिश तो जमकर होती है लेकिन पीने के पानी की किल्लत बहुत आम है. लोगों को पीने योग्य पानी के लिए काफी दूर दूर जाकर पानी इकठ्ठा करना पड़ता है. लगातार होती बारिश का कोई खास फायदा इलाके के लोगों को नहीं होता.

इसके विपरीत राजस्थान के रुपारेल नदी का इलाका है. यहाँ बारिश चेरापूंजी के मुकाबले आधी भी नहीं होती. नदी के पानी का स्तर जब घटने लगा और 1980 के दशक में लगभग सूखे जैसे हालात हो गए तो कुछ स्वयंसेवी संगठनो और सरकार के सम्मिलित प्रयासों से इस इलाके की महिलाओं को जोहड़ बनाने के लिए फिर से प्रेरित किया गया. जोहड़ पुरानी राजस्थानी परंपरा ही थी जिसे लोग भूल चले थे. गोल अकार के कुंड और बारिश का पानी मोड़ने के छोटे छोटे बांधों की मदद से बारिश का पानी इन कुंडों में जमा किया जाने लगा.

नदी के तटबंधों के इलाकों में जंगलों के कम होने और खेती के बढ़ने से जो पानी की कमी हो रही थी आज तीस सालों में उसकी भरपाई हो पाई है.चाहे जितनी बार जितने इलाकों में देखा जाए एक बात हमेशा सिद्ध होती है. मनुष्य प्रकृति का स्वामी नहीं है. मनुष्य केवल प्रकृति का एक छोटा सा हिस्सा है. जो नुकसान हम कर रहे हैं उसकी भरपाई भी हमें ही करनी होगी. बीते हुए कल में जो महाराष्ट्र का हिस्सा आप देख रहे थे वो आने वाले कल में आपका गाँव, आपका शहर भी हो सकता है. समय रहते चेत जाएँ तो नुकसान की भरपाई की जा सकती है. पानी की एक एक बूंद कीमती है. पानी की हर बूँद बचाइये.

इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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