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सबरीमाला विवाद: जबरदस्ती पूजा करके मिलेगा भी क्या?

    • पारुल चंद्रा
    • Updated: 17 अक्टूबर, 2018 04:36 PM
  • 17 अक्टूबर, 2018 04:36 PM
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भगवान अय्यप्पा के लिए इतने रिस्क लेने से क्या भगवान ज्यादा प्रसन्न होंगे? या जबरदस्ती मंदिर में प्रवेश करने से ही आप उनकी सच्ची भक्त साबित होंगी? आपको क्यों लगता है कि भगवान अय्यप्पा की प्रतिमा के ऊपर फूल फेंकने से या उनके पैरों को हाथ लगाने से ही आपके दुख दूर होंगे.

हिंदू धर्म की बात करूं तो मैंने धार्मिक मामलों की ठेकेदार हमेशा महिलाओं को ही पाया है. आप कोई भी घर में देखिए, पुरुषों से ज्यादा महिलाएं धार्मिक दिखाई देंगी. और तो और घर में बहू भी ऐसी लाई जाती है जिसकी पूजा-पाठ में रुचि हो और तीज-त्योहार अच्छे से जानती-समझती हो. इन सबके अलावा वो अगर पढ़ी-लिखी हो तो और भी बढ़िया. असल में आदर्श महिला वही है जो अपने धर्म और आराध्य को सर्वोपरि रखे. समाज में ऐसी ही महिलाओं को अच्छी महिला कहा गया है. और इसका सर्टिफिकेट घर की महिलाओं ने ही जारी किया है.

धर्म ने महिलाओं को कमजोर बनाया है

कभी-कभी ये महसूस होता है कि धर्म ने महिलाओं को कमजोर बनाया है. वो धर्म कोई भी हो सकता है. महिलाओं ने अपने धर्म को अपने जीवन से इस तरह जोड़ लिया कि दुनिया चाहे इधर की उधर हो जाए लेकिन धर्म पर आंच नहीं आनी चाहिए. वो धर्म को कट्टरता की हद तक निभाती आईं और अपनी आने वाली पीढ़ी में भी वही रोपती रहीं. पर सोचिए महिलाओं का ये धर्म जिसके लिए वो इतनी अनुशासित और कट्टर रहीं वो कितना शक्तिशाली होगा. लेकिन अफसोस तब होता है जब हमारे उसी शक्तिशाली धर्म को ये महिलाएं इतना छणभंगुर बना देती हैं कि वो हर छोटी से छोटी चीज से भ्रष्ट हो जाता है. कभी छोटी जाति वाले या विधवा की परछाईं पड़ जाने पर, तो कभी मुस्लिम के छू जाने पर, कभी-कभी तो लहसुन प्याज से, कभी बच्चे को जन्म देने वाली मां से, कभी माहवारी वाली महिला के रसोई और मंदिर में प्रवेश करने पर. पर मजाल है आप ये सवाल किसी धार्मिक महिला से कर लें कि 'आपका धर्म इतना कमजोर क्यों है कि वो हर छोटी सी चीज से भ्रष्ट हो जाता है?'.

धर्म को लेकर महिलाएं इतनी कट्टर क्यों?

आस्था और कट्टरता में फर्क समझिए

सुप्रीम कोर्ट ने...

हिंदू धर्म की बात करूं तो मैंने धार्मिक मामलों की ठेकेदार हमेशा महिलाओं को ही पाया है. आप कोई भी घर में देखिए, पुरुषों से ज्यादा महिलाएं धार्मिक दिखाई देंगी. और तो और घर में बहू भी ऐसी लाई जाती है जिसकी पूजा-पाठ में रुचि हो और तीज-त्योहार अच्छे से जानती-समझती हो. इन सबके अलावा वो अगर पढ़ी-लिखी हो तो और भी बढ़िया. असल में आदर्श महिला वही है जो अपने धर्म और आराध्य को सर्वोपरि रखे. समाज में ऐसी ही महिलाओं को अच्छी महिला कहा गया है. और इसका सर्टिफिकेट घर की महिलाओं ने ही जारी किया है.

धर्म ने महिलाओं को कमजोर बनाया है

कभी-कभी ये महसूस होता है कि धर्म ने महिलाओं को कमजोर बनाया है. वो धर्म कोई भी हो सकता है. महिलाओं ने अपने धर्म को अपने जीवन से इस तरह जोड़ लिया कि दुनिया चाहे इधर की उधर हो जाए लेकिन धर्म पर आंच नहीं आनी चाहिए. वो धर्म को कट्टरता की हद तक निभाती आईं और अपनी आने वाली पीढ़ी में भी वही रोपती रहीं. पर सोचिए महिलाओं का ये धर्म जिसके लिए वो इतनी अनुशासित और कट्टर रहीं वो कितना शक्तिशाली होगा. लेकिन अफसोस तब होता है जब हमारे उसी शक्तिशाली धर्म को ये महिलाएं इतना छणभंगुर बना देती हैं कि वो हर छोटी से छोटी चीज से भ्रष्ट हो जाता है. कभी छोटी जाति वाले या विधवा की परछाईं पड़ जाने पर, तो कभी मुस्लिम के छू जाने पर, कभी-कभी तो लहसुन प्याज से, कभी बच्चे को जन्म देने वाली मां से, कभी माहवारी वाली महिला के रसोई और मंदिर में प्रवेश करने पर. पर मजाल है आप ये सवाल किसी धार्मिक महिला से कर लें कि 'आपका धर्म इतना कमजोर क्यों है कि वो हर छोटी सी चीज से भ्रष्ट हो जाता है?'.

धर्म को लेकर महिलाएं इतनी कट्टर क्यों?

आस्था और कट्टरता में फर्क समझिए

सुप्रीम कोर्ट ने बुधवार यानी 17 अक्टूबर से सबरीमाला मंदिर के पट महिलाओं के लिए खुलवा दिए. जब से ये फैसला आया था तभी से इस फैसले का विरोध हो रहा था. और सबसे बड़ा आश्चर्य इस बात से था कि विरोध करने वालों में कट्टरपंथियों के अलावा कुछ महिलाएं भी शामिल थीं. स्वाभाविक है, वो जो रोपा गया वो दिखाई दे रहा है. ईश्वर ने जब इंसान को बनाया तो ये सोचकर स्त्री को हर महीने की माहवारी नहीं दी थी कि इसी के लिए उसे तिरस्कृत किया जाए, बल्कि इसलिए दी क्योंकि उसने स्त्री को सृजन करने के लिए बनाया था. लेकिन तब क्या किया जाए जब महिलाओं ने ही खुद को कमजोर समझ लिया. मां बनने की शक्ति तो भूल गईं और बच्चा पैदा करने को महज एक काम समझ लिया जो सिर्फ महिलाएं ही कर सकती हैं और इसीलिए वो मंदिर में प्रवेश भी नहीं कर सकतीं.

कहा जाता है कि भगवान अय्यप्पा ब्रह्मचारी थे, इसलिए 10 साल की बच्चियों से लेकर 50 साल की महिलाएं सबरीमाला मंदिर नहीं जा सकती थीं. लेकिन जब कानून उन्हें उनके खिलाफ हुए इस भेदभाव को मिटाकर मंदिर जाने को कह रहा है तो वो आत्महत्या की धमकियां दे रही हैं. वो खुद ही मंदिर में नहीं जाना चाहतीं. क्योंकि उनके धर्म ने उनकी आंखों पर जो पट्टी बांधी है उसकी वजह से उनकी स्थिति और ये सारे भेदभाव धुंधला गए हैं. खैर इनपर कोई टिप्पणी नहीं करना चाहते क्योंकि ये उनकी आस्था है और आस्था पर सवाल नहीं उठाते. लेकिन वो किसी और महिला को भी नहीं जाने देना चाहतीं. ये आस्था नहीं, उनकी कट्टरता है.

मंदिर में प्रवेश करने जा रही महिलाओं के लिए भी कुछ कहना है

वो महिलाएं भी हैं जो सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले से खुश हैं, और मंदिर में प्रवेश के लिए तैयार बैठी हैं. वो बहुत खुश हैं कि अब वो मंदिर में जा सकेंगी. लेकिन उनके लिए ये इतना आसान नहीं है.

कन्नूर की एक महिला ने शिकायत की है कि जब उसने सोशल मीडिया पर बताया कि वो मंदिर में प्रवेश करने जा रही है तो लोगों ने उसे अपमानित किया, गालियां और धमकियां दीं. और ऐसी वो अकेली नहीं हैं.

सबरीमाला मंदिर से 20 किलोमीटर पहले मंदिर जाने वाले रास्ते पर अय्यपा भक्त लोगों की गाड़ियां और बसें रोक-रोक कर ये चेक कर रहे हैं कि 10 से 50 साल तक की महिलाएं तो नहीं. और अगर हैं तो उन्हें मंदिर तक जाने नहीं दिया जा रहा, उन्हें भला बुरा कहा जा रहा है.

मंदिर के रास्ते जाने वाले लोगों को इस तरह रोका जा रहा है

और पुरुष अपनी राजनीतिक पार्टियों के झंडों से साथ धर्म के नाम पर इस तरह डोल रहे हैं.

इन्हें देखकर आप अंदाजा लगा सकते हैं कि ये किस तरह के माइंडसेट में हैं. और ऐसे में भी महिलाएं शिद्दत से निकल रही हैं कि आज तो वो मंदिर में घुसकर ही दम लेंगी. एक-एक महिला को कई-कई पुलिस वाले प्रोटेक्शन दे रहे हैं कि उनके साथ रास्ते में कुछ हो न जाए. क्योंकि भक्तों में अब आस्था नहीं गुस्से की आग नजर आ रही है.

तो मैं इन्हीं महिलाओं से ये सवाल करना चाहती हूं कि भगवान अय्यप्पा के लिए इतने रिस्क लेने से क्या भगवान ज्यादा प्रसन्न होंगे? या जबरदस्ती मंदिर में प्रवेश करने से ही आप उनकी सच्ची भक्त साबित होंगी? आपको क्यों लगता है कि भगवान अय्यप्पा की प्रतिमा के ऊपर फूल फेंकने से या उनके पैरों को हाथ लगाने से ही आपके दुख दूर होंगे. जबरदस्ती पूजा करके आपको मिलेगा क्या?

पुलिस प्रोटेक्शन में मंदिर में प्रवेशकरने जा रही महिला

पूजा अर्चना इसलिए की जाती है कि मन शांत रहे, मंदिर इसलिए जाते हैं कि वहां के सात्विक वातावरण में जाकर मन भी सात्विक हो. लेकिन झगड़े-झंझट करके, लोगों की गालियां सुनकर, अय्यप्पा के भक्तों की चीख-पुकार सुनकर वो अपने मन में अशांति लेकर जा रही हैं. क्या इस तरह की पूजा सफल पूजा कहलाएगी? ऐसा करके तो वो खुद ही उन कट्टरपंथी महिलाओं की फेहरिस्त में शामिल हो जाती हैं जिनकी आंखों पर वो पट्टी बंधी है.

अपने विश्वास को अहमियत दें और उससे पहले खुद को. कानून ने बराबरी का आधिकार दिया है तो उसी ने मंदिर के दरवाजे भी खोले हैं. वक्त तो दें कि लोग उसे समझें. रास्ते थोड़े सुगम तो होने दें. फिर चले जाना. क्योंकि इतनी जिल्लत बर्दाश्त करने के बाद मैं तो किसी मंदिर में प्रवेश नहीं कर पाउंगी. क्योंकि मेरा मानना है कि ईश्वर हमारे दिल में बसते हैं, हमारी सोच में बसते हैं. और अपनी आस्था को साबित करने के लिए मुझे मंदिर में ही प्रवेश करना है ये जरूरी नहीं है.

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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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