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मुस्लिम महिलाओं की बात संविधान के मुताबिक होनी चाहिए, कुरान के नहीं

    • तुफैल अहमद
    • Updated: 08 अक्टूबर, 2016 11:08 AM
  • 08 अक्टूबर, 2016 11:08 AM
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भारत में मुस्लिम महिलाओं की आजादी और अधिकारों की बात करने वाले कई ऐसे लोग हैं, जिन्होंने चोला तो उदारवादी मुस्लिम का पहन रखा है. लेकिन बात कुरान की करते हैं. अब जरूरी है कि भारतीय संविधान के हिसाब से बात की जाए...

लैंगिक समानता पर दो मुस्लिम महिलाओं के लेख मेरे सामने हैं. एक हैं - सईदा सैयदैन हमीद और दूसरी फरहा फैज.

हमीद दकियानूसी विचारों को मानती हैं लेकिन सत्ता के गलियारों में खुद को एक उदारवादी महिला के तौर पर पेश करती रही हैं. उन्होंने मुस्लिम महिलाओं की और आजादी या समानता के प्रश्न को महत्वपूर्ण नहीं माना. दूसरी ओर फैज हैं जो एक वकील हैं और अलग राय रखती हैं. वो भी तब, जब वे एक हाफिज की बेटी हैं. हाफिज मतलब वो जिन्हें पूरा कुरान याद होता है.

फैज सुप्रीम कोर्ट में 'मुस्लिम महिलाओं की बराबरी की मांग बनाम जमात उलेमा-ए-हिंद और दूसरे पक्ष' की चल रही सुनवाई में दूसरे नंबर की रेसपोंडेंट (प्रतिवादी) हैं.

बुद्धिजीवी

हमीद राष्ट्रीय महिला आयोग और योजना आयोग (अब नीति आयोग) की सदस्य रह चुकी हैं. 16 सितंबर को उन्होंने लिखा कि 1998 में वे अबुल हसन अली नदवी से मिलीं और एक नीति बनाने पर बात की. अबुल तब ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड (AIMPLB) के अध्यक्ष थे.

उन्होंने तब 'इस्लाम में महिलाओं के अधिकार' पर अपनी बात रखी और फिर इस्लाम में मौजूद हिदायतों के मुताबिक उसमें सुधार को लेकर एक रोड मैप रखा.

ये अपने आप में आपत्तिजनक है कि राष्ट्रीय महिला आयोग की एक सदस्या किसी धार्मिक नेता और मौलवी से सलाह ले रही है. हम भारतीय संविधान के युग में रह रहे हैं, न कि औरंगजेब के काल में.

हमीद की तरह कई भारतीय मुस्लिम बुद्धिजीवी ऐसे ही इस्लामी गुरुओं के साथ आंख मूंद कर चल रहे हैं. उन्हीं के कारण भारत आज भी मुस्लिम शादियों, तलाक, विरासत, मदरसा, वक्फ और दूसरे मुद्दों पर शरिया के नियमों को तरजीह देने वाला देश बनकर रह गया है.

 मुस्लिम रूढ़िवादी...

लैंगिक समानता पर दो मुस्लिम महिलाओं के लेख मेरे सामने हैं. एक हैं - सईदा सैयदैन हमीद और दूसरी फरहा फैज.

हमीद दकियानूसी विचारों को मानती हैं लेकिन सत्ता के गलियारों में खुद को एक उदारवादी महिला के तौर पर पेश करती रही हैं. उन्होंने मुस्लिम महिलाओं की और आजादी या समानता के प्रश्न को महत्वपूर्ण नहीं माना. दूसरी ओर फैज हैं जो एक वकील हैं और अलग राय रखती हैं. वो भी तब, जब वे एक हाफिज की बेटी हैं. हाफिज मतलब वो जिन्हें पूरा कुरान याद होता है.

फैज सुप्रीम कोर्ट में 'मुस्लिम महिलाओं की बराबरी की मांग बनाम जमात उलेमा-ए-हिंद और दूसरे पक्ष' की चल रही सुनवाई में दूसरे नंबर की रेसपोंडेंट (प्रतिवादी) हैं.

बुद्धिजीवी

हमीद राष्ट्रीय महिला आयोग और योजना आयोग (अब नीति आयोग) की सदस्य रह चुकी हैं. 16 सितंबर को उन्होंने लिखा कि 1998 में वे अबुल हसन अली नदवी से मिलीं और एक नीति बनाने पर बात की. अबुल तब ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड (AIMPLB) के अध्यक्ष थे.

उन्होंने तब 'इस्लाम में महिलाओं के अधिकार' पर अपनी बात रखी और फिर इस्लाम में मौजूद हिदायतों के मुताबिक उसमें सुधार को लेकर एक रोड मैप रखा.

ये अपने आप में आपत्तिजनक है कि राष्ट्रीय महिला आयोग की एक सदस्या किसी धार्मिक नेता और मौलवी से सलाह ले रही है. हम भारतीय संविधान के युग में रह रहे हैं, न कि औरंगजेब के काल में.

हमीद की तरह कई भारतीय मुस्लिम बुद्धिजीवी ऐसे ही इस्लामी गुरुओं के साथ आंख मूंद कर चल रहे हैं. उन्हीं के कारण भारत आज भी मुस्लिम शादियों, तलाक, विरासत, मदरसा, वक्फ और दूसरे मुद्दों पर शरिया के नियमों को तरजीह देने वाला देश बनकर रह गया है.

 मुस्लिम रूढ़िवादी विचार के खिलाफ आवाज उठाने की जरूरत

ऐसे ही मुसलमान आज भी जारी कांग्रेस की 'खिलाफत' पॉलिटिक्स में पले बढ़े. सत्ता के केंद्र में रहे और इसकी कीमत आम मुस्लिम महिलाओं को चुकानी पड़ी.

हमीद कहती हैं कि कुरान का 'एक पूरा' चैप्टर लैंगिक अधिकारों को समर्पित है और 'हम मुस्लिम' उसी दृष्टिकोण को आगे बढ़ाना चाहते हैं... प्रसारित करना चाहते हैं.

लेकिन नहीं, हम मुसलमान उस दृष्टिकोण को नहीं चाहते. मुस्लिम महिलाओं की आजादी कुरान के हवाले से नहीं की जा सकती.

हामिद खुद ही दावा करती हैं कि उन्हें कुरान की समझ है. उन्होंने 20 साल कुरान पढ़ा. फिर वो ये भी कहती हैं कि उत्तराखंड की शायरा बानो को तीन तलाक, बहुविवाह और दूसरे मुद्दों को चुनौती देने की जरूरत नहीं थी.

वो कहती हैं कि इस्लाम ने '1500 साल पहले महिलाओं को इज्जत और प्रतिष्ठा दी'. यह सच नहीं है.

परिदृश्‍य

दरअसल, इस्लामिक उदारपंथ का चोला ओढ़ने वाले कई लोगों की तरह, हमीद भी कुरान के दृष्टिकोण को लेकर ज्यादा फिक्रमंद रहती हैं. न कि प्रभावित मुस्लिम महिलाओं की सोच को लेकर. ऐसे लोग भारतीय संविधान का भी ख्याल नहीं करते जो आर्टिकल-14 के तहत नागरिकों के साथ बराबरी के मौलिक अधिकार और आर्टिकल-15 के तहत भेदभाव के खिलाफ मौलिक अधिकार की बात करती हैं.

यही शायरा बानो का भी दृष्टिकोण है न कि कुरान का. और ये बात मजबूती से रखी जानी चाहिए.

सभी दूसरे धर्मों की तरह इस्लाम ने भी महिलाओं की आजादी को कमतर करने का काम किया है. और इस लिहाज से धर्म किसी अनुशंसा के लिए मानदंड नहीं हो सकते.

ऐसे में, इस संदर्भ में फरहा फैज प्रासंगिक हो जाती हैं.

उन्होंने सुप्रीम कोर्ट से अपील की है कि सुप्रीम कोर्ट भारतीय मुस्लिमों को मुस्लिम रूढ़िवादियों से बचाने के लिए AIMPLB और भारतीय मुस्लिम महिला आंदोलन (BMMA) जैसे संगठनों पर बैन लगाए. क्योंकि इन रूढ़िवादियों की सोच, इनकी विचारधार जमात-उद-दावा के हाफिज मोहम्मद सईद जैसे लोगों से मेल खाती है.

 क्या मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड को खत्म करने की बारी आ गई है...

बहुत हिम्मत के साथ फैज मदरसा में दी जाने वाली शिक्षा में बदलाव की बात करती हैं और ये भी कहती हैं कि BMMA दरअसल AIMPLB की कठपुतली है. दोनों संगठन शरिया के हिमायती हैं.

यह भी पढ़ें- मुस्लिम महिलाएं नहीं चाहती हैं 'तलाक-तलाक-तलाक'

भारतीय मुस्लिम महिला आंदोलन गैर-मुस्लिम पत्रकारों को उदार नजर आता है क्योंकि इसे महिलाएं चलाती हैं. लेकिन ये काम इस्लामिक शरिया के मुताबिक ही करती है न कि संविधान के अनुसार. AIMPLB की ही तरह BMMA इस्लामिक जजों को ट्रेनिंग देती है और शरिया अदालतें चलाती है. यानी भारत के न्यायिक व्यवस्था के बराबर चलने वाली एक और व्यवस्था!

इस व्यवस्था को ऐसे ही चलते रहने की इजाजत नहीं मिलनी चाहिए. भारत में केवल एक संविधान होना चाहिए और जज भी जो उसी संविधान के अनुसार काम करें.

अधिकार

आलोचक ये दलील दे सकते हैं कि अनुच्छेद-25 के तहत भारत का संविधान ही किसी भी धर्म को मानने की आजादी देता है. हालांकि, सभी मौलिक अधिकारों में धर्म का अधिकार सबसे गौण या कहें कम महत्वपूर्ण है.

सब-क्लॉज 25 (1) कहता है- 'ये पब्लिक ऑर्डर, नैतिकता और स्वास्थ्य सहित दूसरी शर्तों और अन्य प्रावधानों के अधीन होगा'. जबकि सब-क्लॉज 25 (2) कहता है- 'इस अनुच्छेद में शामिल कोई भी बात किसी मौजूद दूसरे कानून को प्रभावित करती है और न ही राज्य को कोई दूसरा कानून बनाने से रोकती है.'

इसप्रकार, बराबरी का अधिकार इससे कहीं ऊपर है और उसे निरस्त करता है.

जहां, सर सैयद ने भारत में लोकतंत्र के आने से पहले (आजादी से पहले) परिस्थिति में बदलाव की बात की थी, फराह फैज (और उनके पहले हामिद दलवाई) ने लोकतंत्र के इस युग में उसे इस्लामिक सुधार से जोड़ दिया.

फैज का मानना है कि महिलाओं की संपूर्ण आजादी के लिए अब संविधान नया मानदंड है.

यह भी पढ़ें- मुस्लिम महिलाओं का आधा धर्म और आधी नागरिकता

फैज कहती हैं, 'भारत एक लोकतांत्रिक देश है और इसकी खुबसूरती इसके लोकतंत्र में है.' वे अपनी इस बात को कुछ इस तरह समझाती भी है- 'भारत का संविधान अपने सभी लोगों को बिना किसी जात-पात, पंथ, लिंग, धर्म या स्थान के आधार पर भेदभाव किए हुए एक अधिकार और सम्मान देता है.'

इस आजाद देश में फराह फैज जैसे वास्तविक सोच वालों को नीति आयोग का सदस्य बनना चाहिए जबकि उदारवाद सोच का चोला पहने हामिद जैसों को दारुल उलूम देवबंद में पढ़ाने का कार्य करना चाहिए.

इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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