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समाज

एक अल्लाह, दूसरा सुर और तीसरे बिस्मिल्लाह खां

    • विवेक चौरसिया
    • Updated: 21 मार्च, 2018 04:25 PM
  • 21 मार्च, 2018 04:24 PM
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शहनाई वादक उस्ताद बिस्मिल्लाह खां को हमारे बीच से गए हुए एक लंबा वक़्त हो चुका है, मगर इसके बावजूद ऐसा बहुत कुछ है जिसके लिए हमें उस्ताद बिस्मिल्लाह खां को याद करना चाहिए.

उस दिन का वह प्रभात मेरी प्रतीक्षा की रात का भी प्रभात था. शब-ए-मालवा के राही की सुबह-ए-बनारस! मैं भारतरत्न उस्ताद बिस्मिल्लाह खां के घर में था और उस्ताद रह-रहकर कह रहे थे, 'एक अल्लाह, दूसरा सुर'. और मैं लाख चाहकर भी न कह पा रहा था, 'उस्तादजी! मेहरबानी कर जुमले को ज़रा दुरुस्त कर लीजिए. एक अल्लाह, दूसरा सुर और तीसरे बिस्मिल्लाह खां'.

वह 20 मार्च 2006 की सुबह थी. उस्ताद से मिलने की मुराद मुझे डेढ़ साल में दूसरी बार बनारस खींच लाई थी. पहली बार दो दिन रूका था लेकिन मुलाकात न हो सकी. उस्ताद 'प्रोग्राम' करने कोलकाता चले गए थे. तब निराश लौट आया था. इसी से खुश था कि मैं उस्ताद का घर देख आया हूं. एक अक्लमंदी जरूर की थी कि उनके पीए जावेद भाई का मोबाइल नम्बर नोट कर लिया था. फिर डेढ़ बरस इंतजार के बाद दर्शन का मुहूर्त निकला. जावेद भाई से खरी-पक्की कर दोस्त संदीप पाटिल के साथ मैंने बनारस की ट्रेन पकड़ ली.

भारतीय शास्त्रीय संगीत में बिस्मिल्लाह खां के योगदान को भूला नहीं जा सकता

19 मार्च की शाम बनारस पहुंचते ही मैंने जावेद भाई को आने की इत्तला दी और उधर से जवाब मिला, 'उस्तादजी यही हैं. कल सुबह घर आ जाइए'. विश्वास कीजिए उस रात मैं यात्रा की थकान के बावजूद भावी भेंट की कल्पना में ठीक से सो न सका. संगीत का 'स' भी मुझे समझ नहीं आता है पर स्वभाव का सखा है इसलिए उससे प्रेम है. संगीत प्रेमियों के प्रति आदर और साधकों के प्रति श्रद्धा है. उस्ताद बिस्मिल्लाह खां तो संगीत-परमात्मा के महासाधक थे. स्वभावतः उनके प्रति मेरी श्रद्धा बनारस की गंगा जितनी ही अगाध थी.

फिर उस्ताद जैसे 'ख़ुदा के सच्चे और अच्छे बंदे' तीर्थ ही तो होते हैं.सयाने जानते हैं उनके दर्शन से क्या फल मिलता है. आखिर रात गई सुबह हुई. वही बनारसी सुबह जब गंगा की लहरों पर अरुणोदय की...

उस दिन का वह प्रभात मेरी प्रतीक्षा की रात का भी प्रभात था. शब-ए-मालवा के राही की सुबह-ए-बनारस! मैं भारतरत्न उस्ताद बिस्मिल्लाह खां के घर में था और उस्ताद रह-रहकर कह रहे थे, 'एक अल्लाह, दूसरा सुर'. और मैं लाख चाहकर भी न कह पा रहा था, 'उस्तादजी! मेहरबानी कर जुमले को ज़रा दुरुस्त कर लीजिए. एक अल्लाह, दूसरा सुर और तीसरे बिस्मिल्लाह खां'.

वह 20 मार्च 2006 की सुबह थी. उस्ताद से मिलने की मुराद मुझे डेढ़ साल में दूसरी बार बनारस खींच लाई थी. पहली बार दो दिन रूका था लेकिन मुलाकात न हो सकी. उस्ताद 'प्रोग्राम' करने कोलकाता चले गए थे. तब निराश लौट आया था. इसी से खुश था कि मैं उस्ताद का घर देख आया हूं. एक अक्लमंदी जरूर की थी कि उनके पीए जावेद भाई का मोबाइल नम्बर नोट कर लिया था. फिर डेढ़ बरस इंतजार के बाद दर्शन का मुहूर्त निकला. जावेद भाई से खरी-पक्की कर दोस्त संदीप पाटिल के साथ मैंने बनारस की ट्रेन पकड़ ली.

भारतीय शास्त्रीय संगीत में बिस्मिल्लाह खां के योगदान को भूला नहीं जा सकता

19 मार्च की शाम बनारस पहुंचते ही मैंने जावेद भाई को आने की इत्तला दी और उधर से जवाब मिला, 'उस्तादजी यही हैं. कल सुबह घर आ जाइए'. विश्वास कीजिए उस रात मैं यात्रा की थकान के बावजूद भावी भेंट की कल्पना में ठीक से सो न सका. संगीत का 'स' भी मुझे समझ नहीं आता है पर स्वभाव का सखा है इसलिए उससे प्रेम है. संगीत प्रेमियों के प्रति आदर और साधकों के प्रति श्रद्धा है. उस्ताद बिस्मिल्लाह खां तो संगीत-परमात्मा के महासाधक थे. स्वभावतः उनके प्रति मेरी श्रद्धा बनारस की गंगा जितनी ही अगाध थी.

फिर उस्ताद जैसे 'ख़ुदा के सच्चे और अच्छे बंदे' तीर्थ ही तो होते हैं.सयाने जानते हैं उनके दर्शन से क्या फल मिलता है. आखिर रात गई सुबह हुई. वही बनारसी सुबह जब गंगा की लहरों पर अरुणोदय की लाली पसरती है तो धाराओं पर बिखरे 'सोने और सुहागे' को देख जी करता है, 'बस! अभी इसी घड़ी दम निकल जाए'. पुराने बनारस में किसी का पता पूछने का मतलब है, बताने वाला घर छोड़कर आएगा. इस बार मुझे केवल गली का पता ही पूछना पड़ा. डेढ़ साल पहले देखा घर जेहन में था.

उस्ताद बेमिसाल बनारस के 'ब्रांड एम्बेसडर' थे. जीते जी उनके घर के रास्ते उनके नाम कर दिए गए थे. उस्ताद बिस्मिल्लाह खां मार्ग! गलियों के बनारस में उस्ताद के नाम वाली संकरी सड़क पकड़ आखिर मैं 'शहनाई के आशियाने' पहुंच ही गया. हाड़ा सराय की सघन मुस्लिम बस्ती में उनका घर अति साधारण था. इतना कि पहली नज़र में यकीन करना मुश्किल हो जाए कि इसी चारदीवारी में शहनाई का शहंशाह बसता हैं.

हल्के अंधेरे वाली बेहद मामूली बैठक और भीतरी सीढ़ियों के नीचे मिमियाती बकरी भी. कमरे की अधकच्ची अधपक्की नमी सनी दीवारों पर उस्ताद के जवानी से बुढ़ापे तक की यादगार तस्वीरों की दिलजीत नुमाइश थी.उस्ताद को मिले पदम् सम्मानों और भारत रत्न के तमगे भी. वह फोटो भी जब 2001 में भारत रत्न ग्रहण करने उस्ताद व्हील चेयर पर संसद भवन पहुंचे है और देश के सारे 'पंच' उनके सम्मान में खड़े हैं. अटलजी के अलावा पांच पूर्व प्रधानमंत्री भी.

पूरे बनारस में बिस्मिल्लाह खां अपना जीवन बेहद सादगी से बिताने के लिए जाने जाते थे मैंने 'भारतरत्न' की प्रत्यक्ष प्रशस्ति इसी कक्ष में देखी थी. वह कक्ष बिस्मिल्लाह की तप:स्थली था, जहां सरगम के शकुंतों से पली शहनाई शकुंतला बन गई थी. उस्ताद शहनाई को अपनी दूसरी बेगम कहते थे. दीवानी ऐसी 'मुंह लगी' के फिर साज़ों की साम्राज्ञी बन कर ही मानी. ये कक्ष इसी मोहब्बत की मधुशाला था. मैं तस्वीरों में खोया था कि छज्जे की तरफ जाती सीढ़ियों से आवाज़ आई, 'ज़नाब ऊपर आ जाइए. सीढ़ी के आखरी सिरे पर मेरी 'कल्पनाओं के उस्ताद' ने 'वास्तविक उस्ताद' से मेरा परिचय कराया. मैं चौंका! ये उस्ताद हैं! उस्ताद बिस्मिल्लाह खां.

अधखुली छत पर एक छोटी-सी कोठरी में पुरानी खाट पर 90 बरस के उस्ताद मलीन बंडी और तेहमत पहने बैठे थे. न टोपी न शेरवानी! शहनाई बजा-बजाकर 66 लोगों के कुनबे का पेट भरते देह थक गई थी. घर की बेनूरी में कुछ माली हालत जिम्मेदार थी और उससे ज्यादा बनारसी फक्कड़पन. वे जहां जैसे बैठे थे वही उनकी असल अदा थी. सिर से पैर तक बुढ़ापा हावी था, सिवाय जीभ को छोड़कर. मुंह में शब्द शहनाई में सुरों-से भरे थे.

उस्ताद इस कदर बतरसिया निकले कि मुझ बातूनी का मुँह थककर मौन हो गया मगर उस्ताद की बातें खत्म न हुई. महाकाल से विश्वनाथ तक, भारत से पाकिस्तान तक, हिंदू से मुसलमान तक और शहनाई से इंसान तक कोई दो घण्टे बातें ही बातें हुईं. उस्ताद एक हाथ से दूसरी हथेली पर ताली दे-देकर तकियाकलाम-सा एक ही जुमला बार-बार दोहराते रहे, 'एक अल्लाह, दूसरा सुर'.

एक बात और थी जो उस्ताद बिस्मिल्लाह खां को खास बनाती थी और वो थी उनकी साफगोही

मैं दावा कर सकता हूं कि एक पत्रकार के नाते उस्ताद का यही आखरी 'इंटरव्यू' था. थी तो मुलाकात पर जब पीए जावेद भाई ने बताया कि अगले दिन यानी 21 मार्च को उस्ताद का जन्मदिन है तब वह 'जन्मदिन की पूर्व संध्या पर दैनिक भास्कर से खास बातचीत' वाला इंटरव्यू बन गया. जो अगले दिन सारे संस्करणों के पहले पन्ने पर छपा भी.

इसके 5 माह बाद ही उस्ताद का इंतकाल हो गया. 21 अगस्त 2006 को उस्ताद ने फानी दुनिया को अलविदा कह दिया. बनारस की गलियों में पान मुँह में दबाए रिक्शे पर बैठ अपनी मौज में घूमने और विश्वनाथ के आंगन से लेकर गंगा के घाटों तक, लालकिले की प्राचीर से दुनिया के नामचीन मंचों तक शहनाई का जादू बिखरने वाला जादूगर परमात्मा के आंगन में शहनाई बजाने निकल पड़ा.

अपनी जिंदगी में उन दो घण्टों से ज्यादा गरिमामय लम्हें न इससे पहले मैंने जीए थे, न ही इसके बाद. इसलिए कि कोई दूसरा उस्ताद बिस्मिल्लाह खाँ फिर कभी कहीं मिला ही नहीं. कसक केवल यह रह गई कि महाबातूनी होने के बावज़ूद मैं उन्हें न कह पाया, 'एक अल्लाह, दूसरा सुर और तीसरे आप! हमारे उस्ताद बिस्मिल्लाह खाँ!

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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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