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असली फ़ेमिनिज़म तो कमला चट्टोपाध्याय से प्रेरणा लेकर समझना चाहिए!

    • अनु रॉय
    • Updated: 03 अप्रिल, 2021 03:19 PM
  • 03 अप्रिल, 2021 03:15 PM
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आज भले ही फ़ेमिनिज़्म को लेकर बड़ी बड़ी बातें हो रही हों लेकिन अगर इस बात को समझना हो कि असली और सही फेमिनिज्म है क्या तो हमें कमलादेवी चट्टोपाध्याय का रुख करना चाहिए जो तमाम महिलाओं के लिए प्रेरणा हैं.

फ़ेमिनिज़्म के नाम पर जो रायता फैलाया जा रहा है और सोशल मीडिया पर जो खुद को फ़ेमिनिस्ट प्रूव करने में लगे हैं, उनसे अलग मेरे लिए फ़ेमिनिस्ट हैं, कमलादेवी चट्टोपाध्याय जैसी स्त्रियां. विधवा विवाह, तलाक़, शादी में कंसेंट ये सारे ऐसे मुद्दें हैं जिन पर आज भी हमारा समाज ख़ामोश रहना पसंद करता है और जब कोई इन मुद्दों को उठाता है या परम्परा के ख़िलाफ़ जा कर कुछ करता है, तो उसे विद्रोही, समाज़ की बनी-बनाई व्यवस्था में ख़लल डालने वाला क़रार दे दिया जाता है. अपने आस-पास नज़र दौड़ाइए तो आपको न जाने ऐसे कितने केस दिखेंगे, जहां पत्नी की मौत के साल भर के अंदर ही पति ने दूसरी शादी कर ली या घरवालों ने करवा दी. आख़िर एक पुरुष अकेले उम्र कैसे गुज़ार सकता है. उसे एक अदद हमसफ़र की ज़रूरत तो होती ही है. कई बार तो पत्नी की मौत के बाद बच्चों का भी ख़्याल रख इनको शादी करनी पड़ती है. आख़िर बच्चा संभालने का काम तो औरतों का होता है, तो ऐसी स्थिति में अपने लिए पत्नी नहीं, उन बच्चों के लिए बस मां ला रहे होते हैं. उसके बाद की कहानी तो सबको पता ही है कि वो मां कितना मां बन पाती है उन बच्चों की. अपवादों की बात यहां नहीं की जा रही है.

कमलादेवी ने देश को बताया कि सही मायनों में नारीवाद है क्या

खैर, वही अगर पति की मौत हो जाती है तो बारहा स्त्रियां ताउम्र विधवा बन कर निकाल देती हैं या फिर ये समाज उन्हें ऐसा करने पर मज़बूर करता है. एकाध बार शादी हो भी जाती है इनकी अगर बच्चें वगरैह न हो. बच्चों के साथ इन्हें कोई अपनाने को तैयार नहीं होता. अगर कभी कोई तैयार भी होता है तो समाज होने नहीं देता. यही हाल तलाक़शुदा लड़कियों का है. समानता और अधिकार की बड़ी-बड़ी बातें तो होती हैं मगर धरातल पर हक़ीक़त कुछ और है.

तो ऐसे में सोचिये 1923 में जब किसी विधवा ने अपनी...

फ़ेमिनिज़्म के नाम पर जो रायता फैलाया जा रहा है और सोशल मीडिया पर जो खुद को फ़ेमिनिस्ट प्रूव करने में लगे हैं, उनसे अलग मेरे लिए फ़ेमिनिस्ट हैं, कमलादेवी चट्टोपाध्याय जैसी स्त्रियां. विधवा विवाह, तलाक़, शादी में कंसेंट ये सारे ऐसे मुद्दें हैं जिन पर आज भी हमारा समाज ख़ामोश रहना पसंद करता है और जब कोई इन मुद्दों को उठाता है या परम्परा के ख़िलाफ़ जा कर कुछ करता है, तो उसे विद्रोही, समाज़ की बनी-बनाई व्यवस्था में ख़लल डालने वाला क़रार दे दिया जाता है. अपने आस-पास नज़र दौड़ाइए तो आपको न जाने ऐसे कितने केस दिखेंगे, जहां पत्नी की मौत के साल भर के अंदर ही पति ने दूसरी शादी कर ली या घरवालों ने करवा दी. आख़िर एक पुरुष अकेले उम्र कैसे गुज़ार सकता है. उसे एक अदद हमसफ़र की ज़रूरत तो होती ही है. कई बार तो पत्नी की मौत के बाद बच्चों का भी ख़्याल रख इनको शादी करनी पड़ती है. आख़िर बच्चा संभालने का काम तो औरतों का होता है, तो ऐसी स्थिति में अपने लिए पत्नी नहीं, उन बच्चों के लिए बस मां ला रहे होते हैं. उसके बाद की कहानी तो सबको पता ही है कि वो मां कितना मां बन पाती है उन बच्चों की. अपवादों की बात यहां नहीं की जा रही है.

कमलादेवी ने देश को बताया कि सही मायनों में नारीवाद है क्या

खैर, वही अगर पति की मौत हो जाती है तो बारहा स्त्रियां ताउम्र विधवा बन कर निकाल देती हैं या फिर ये समाज उन्हें ऐसा करने पर मज़बूर करता है. एकाध बार शादी हो भी जाती है इनकी अगर बच्चें वगरैह न हो. बच्चों के साथ इन्हें कोई अपनाने को तैयार नहीं होता. अगर कभी कोई तैयार भी होता है तो समाज होने नहीं देता. यही हाल तलाक़शुदा लड़कियों का है. समानता और अधिकार की बड़ी-बड़ी बातें तो होती हैं मगर धरातल पर हक़ीक़त कुछ और है.

तो ऐसे में सोचिये 1923 में जब किसी विधवा ने अपनी मर्ज़ी से दूसरी शादी कर ली होगी तो उसका कितना विरोध हुआ होगा? और सिर्फ अपनी ही शादी नहीं बाक़ी की बाल-विधवाओं की भी शादी करवाने की कोशिशें की हो. औरतों को नौकरी में, ऑफिस में, घर में भी बराबरी का हक़ मिले. हर उस काम के लिए जो मर्द कर रहे हैं और अगर औरत भी वही काम कर रही है तो बराबर तनख़्वाह मिले इसकी वक़ालत की हो तो समझिये उसे कितना विरोध झेलना पड़ा होगा.

आज बात कर रही हूं कमलादेवी चट्टोपाध्याय की. जी हां, वही कमलादेवी चट्टोपाध्याय जिन्होंने नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा, संगीत नाटक एकेडमी, सेंट्रल कॉटेज इंडस्ट्रीज इम्पोरियम और क्राफ्ट काउंसिल ऑफ इंडिया का सपना देखा और नींव रखी. इतना ही नहीं वो पहली महिला फ़्रीडम-फाइटर थी जिन्हें अंग्रेज़ों ने गिरफ़्तार किया था नमक बना कर बेचने के जुर्म में. चाहे असहयोग-आंदोलन हो या नमक-सत्याग्रह उनका नाम पहली पंक्ति में आता है. आज़ादी के बाद शरणार्थियों को बसाने की मुहिम हो या औरतों की हक़ की बात हो हर फ्रंट पर वो अकेली खड़ी लड़ती नज़र आयी.

लेकिन उनके लिए ये राहें कभी से आसान नहीं रही. 3 अप्रैल 1903 में जन्मी कमलादेवी जब सात साल की थी तो सिर से पिता का साया हट गया. ये पिता के दूसरे विवाह से हुई चौथी संतान थी, तो पिता की मौत के बाद तब के सम्पति कानून के अंतर्गत, उनकी समूची सम्पति पहली पत्नी से जन्में बेटे को मिल गयी. ऐसे में कमला देवी की मां ने अपने बुते पर बेटियों को बड़ा किया. जब मां इतनी मज़बूत और स्वाभिमानी हो तो, बेटियों में वो बात आ ही जाती है.

अब कमला देवी अपने मामा के घर पर रह पढाई करने लगी. तब के समाज में बेटियों की शादी सात-आठ साल में कर दी जाती थी, ऐसे में उनकी शादी चौदह साल की उम्र में हुई. क़िस्मत ने एक बार फिर धोख़ा दिया और दो साल के बाद ही पति की मृत्यु हो गयी.

बज़ाय विधवा-धर्म निभाने के कमला देवी ने पढाई जारी रखी और Queen Mary's College में ग्रेजुएशन के लिए दाख़िला ले लिया. वहां उनकी दोस्ती 'सरोजनी नायडू' की छोटी बहन सुहासनी चट्टोपाध्याय से हुई. सुहासनी के ज़रिये ही वो 'हरीरंद्रनाथ चट्टोपाध्याय' यानि 'हरिं' से मिली. ये जान-पहचान बाद में प्रेम में तब्दील हुई और 1923 में कमला देवी ने दूसरी शादी कर ली. वो भी अंतर्जातीय. सारा समाज इस बात के ख़िलाफ़ खड़ा हो गया मगर उन्होंने किसी की एक नहीं सुनी.

शादी के तुरंत बाद पति के साथ लंदन चली गयी. वहां जा कर ड्रामा और एक्टिंग का कोर्स किया. उन्हीं दिनों महात्मा गांधी ने असहयोग आंदोलन की घोषणा कि तो सब छोड़ कर वापिस भारत चली आयीं और यहां से उनके कैरियर में एक और नया आयाम जुड़ गया. आज़ादी की लड़ाई के साथ-साथ कला में उनकी रूचि उन्हें फिल्मों में भी खींच लायी. उन दिनों जब अच्छे घरों की लड़कियों का यूं फिल्मों में काम करना बुरा समझा जाता था, तब उन्होंने पहली कन्नड़ मूक मृच्छकटिका (1931) में अभिनय किया.

इसके अलावा आर्ट और क्राफ्ट में भी उनकी काफी रूचि थी और उसी का नतीजा है दिल्ली का क्रॉफ्ट म्यूजियम. उनका मानना था कि हथकरघा उद्योग या कुटीर उद्योग से जुड़ महिलायें आर्थिक रूप से संबल होंगी और फिर उन्हें डिस्क्रिमिनेशन नहीं सहना होगा. ताउम्र उन्होंने ने महिलाओं की बराबरी के लिए, उनके हक़ के लिए आवाज़ बुलंद किया. वो सही मायने में 'फ़ेमनिस्ट' थी.

उनकी उपलब्धियों के बारे में जितनी भी बातें की जाये कम है. पदम् भूषण (1955) से लेकर, पदम् विभूषण (1987), Ramon Magsaysay (1966) पुरस्कार, तो साहित्य-नाटक एकेडमी पुरस्कार (1974) से उन्हें सम्मानित किया गया है. हां ये दीगर वाली बात है कि आज की जनरेशन को उनके बारे में या फिर ऐसी रोलमॉडल के बारे में जानकारी नहीं है. कितना कुछ सीखा जा सकता है ऐसी शख़्सियतों से मगर इनके बारे में बातें नहीं के बराबर होती है.

सोशल मिडिया पर फ़र्ज़ी के टॉपिक ट्रेंड करते हैं, न्यूज़ चैनल TRP वाली खबरें परोसते हैं. ऐसे में हमारे ये रियल हीरो 'nsung' रह जाते हैं. वैसे आप सोच रहे होंगे कि आपको आज इनकी ये कहानी क्यों सुना रही हूं तो, आज इनका जन्मदिन है. मेरी आदर्श, मेरी फ़ेमिनिस्ट इन्स्परेशन!

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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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