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अंबेडकर को हम कैसे याद करते हैं?

    • राठौर विचित्रमणि सिंह
    • Updated: 14 अप्रिल, 2017 05:20 PM
  • 14 अप्रिल, 2017 05:20 PM
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जीवन के 65वें साल में, अपनी मृत्यु से 7 महीने पहले अगर कोई अपमान, अवज्ञा और अनादर में अपना धर्म छोड़ने को मजबूर हो तो हमें बार-बार अपने अंदर झांकने की जरूरत है कि कमी कहां रह गई. वो कमी आज भी है.

समाजवादी नेता डॉक्टर राम मनोहर लोहिया कहते थे कि किसी के व्यक्तित्व का मूल्यांकन उसकी मृत्यु के सौ साल बाद होना चाहिए. भारतीय संविधान के निर्माता बाबा साहब डॉक्टर भीम राव अंबेडकर की मृत्यु के 60 साल ही हुए हैं लेकिन उनके व्यक्तित्व के मूल्यांकन से ज्यादा प्रासंगिकता का प्रश्न आज हम सबके सामने है. क्या अंबेडकर की सिर्फ वही पहचान है जो अखबारों, किताबों, सेमिनारों और चुनावी मौसम में नेताओं की जुबानों से हम सुनते हैं? क्या उनका सारा व्यक्तित्व सिर्फ उनकी दलित अस्मिता की चौहद्दी में सिमटा हुआ है? क्या अंबेडकर की पहचान एक दलित नेता के रूप में ही होगी?

इन सारी पहचानों से आगे अंबेडकर की पहचान समाज की जड़ता तोड़ने वाले एक ऐसे नेता की है, जिसके सीने में हमारे समय और समाज का पाखंड लावा की तरह उबलता रहा है. अंबेडकर समाज के उस तबके से आते थे, जिसको आज भी हम इंसान मानने को तैयार नहीं हैं. जो जमाने से हाशिए पर खड़े रहे और आज भी हैं. जिन्हें हमारी वर्णवादी व्यवस्था में ब्रह्मा के पैरों से पैदा हुआ माना जाता है. और आज भी क्या हम अपने दिल पर हाथ रखकर कह सकते हैं कि उन्हें पैरों से हटाकर बराबरी का हक दे सकते हैं.

अंबेडकर को पता था कि मांगने से भीख तक नहीं मिलती, इसलिए लड़कर अपना हक लेना होगा. इसीलिए अछूतों को लगी सामाजिक छुआछूत की बीमारी से बचाने के लिए 1931 में वो गोलमेज सम्मेलन में इंग्लैंड गए. अंग्रेजों को अंबेडकर की पीड़ा में अपनी धूर्त राजनीति का एक हथियार मिला. उन्होंने दलितों के लिए अलग से चुनाव क्षेत्र का प्रस्ताव रखा. लेकिन इसके खिलाफ गांधी जी अड़ गए. वो आमरण अनशन पर बैठ गए. गांधी जी जानते थे कि अगर दलितों को पृथक कर दिया गया तो फिर हिंदू समाज के ठेकेदार चाहे जितना गाल बजा लें, वो इस धर्म को बचा नहीं सकते. इसीलिए गांधी ने ये प्रस्ताव रखे कि छुआछूत को जड़ से खत्म...

समाजवादी नेता डॉक्टर राम मनोहर लोहिया कहते थे कि किसी के व्यक्तित्व का मूल्यांकन उसकी मृत्यु के सौ साल बाद होना चाहिए. भारतीय संविधान के निर्माता बाबा साहब डॉक्टर भीम राव अंबेडकर की मृत्यु के 60 साल ही हुए हैं लेकिन उनके व्यक्तित्व के मूल्यांकन से ज्यादा प्रासंगिकता का प्रश्न आज हम सबके सामने है. क्या अंबेडकर की सिर्फ वही पहचान है जो अखबारों, किताबों, सेमिनारों और चुनावी मौसम में नेताओं की जुबानों से हम सुनते हैं? क्या उनका सारा व्यक्तित्व सिर्फ उनकी दलित अस्मिता की चौहद्दी में सिमटा हुआ है? क्या अंबेडकर की पहचान एक दलित नेता के रूप में ही होगी?

इन सारी पहचानों से आगे अंबेडकर की पहचान समाज की जड़ता तोड़ने वाले एक ऐसे नेता की है, जिसके सीने में हमारे समय और समाज का पाखंड लावा की तरह उबलता रहा है. अंबेडकर समाज के उस तबके से आते थे, जिसको आज भी हम इंसान मानने को तैयार नहीं हैं. जो जमाने से हाशिए पर खड़े रहे और आज भी हैं. जिन्हें हमारी वर्णवादी व्यवस्था में ब्रह्मा के पैरों से पैदा हुआ माना जाता है. और आज भी क्या हम अपने दिल पर हाथ रखकर कह सकते हैं कि उन्हें पैरों से हटाकर बराबरी का हक दे सकते हैं.

अंबेडकर को पता था कि मांगने से भीख तक नहीं मिलती, इसलिए लड़कर अपना हक लेना होगा. इसीलिए अछूतों को लगी सामाजिक छुआछूत की बीमारी से बचाने के लिए 1931 में वो गोलमेज सम्मेलन में इंग्लैंड गए. अंग्रेजों को अंबेडकर की पीड़ा में अपनी धूर्त राजनीति का एक हथियार मिला. उन्होंने दलितों के लिए अलग से चुनाव क्षेत्र का प्रस्ताव रखा. लेकिन इसके खिलाफ गांधी जी अड़ गए. वो आमरण अनशन पर बैठ गए. गांधी जी जानते थे कि अगर दलितों को पृथक कर दिया गया तो फिर हिंदू समाज के ठेकेदार चाहे जितना गाल बजा लें, वो इस धर्म को बचा नहीं सकते. इसीलिए गांधी ने ये प्रस्ताव रखे कि छुआछूत को जड़ से खत्म किया जाए. मंदिरों में दलितों को जाने की अनुमति मिले और दलितों को चुनावी सीटों पर आरक्षण मिले. तब अंबेडकर और गांधी में पुना में समझौता हुआ, जिसे इतिहास पुना पैक्ट के नाम से जानता है.

गांधी और अंबेडकर के बीच रिश्तों में खींचाव भी था, लगाव भी था. आजादी मिली और पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू अपने कैबिनेट के मंत्रियों की सूची लेकर गांधी के पास पहुंचे तो गांधी जी ने पूछा कि अंबेडकर का नाम क्यों नहीं है. नेहरू चुप रह गए. गांधी ने कहा कि जाओ अंबेडकर का नाम जोड़ो और इस तरह वो आजाद भारत के पहले कानून मंत्री बने.

अंबेडकर का बचपन बेबसी के गोद में बीता था. उनको अपना व्यक्तित्व और भविष्य अपमान की आंच पर पकाकर निखारना था. कई बार निराश हुए. कई बार समाज का भेदभाव उनके मानसिक संबल को तोड़ता भी था. लेकिन वो जानते थे कि उनका टूटना समाज के एक बड़े तबके के भविष्य का टूटना होगा. इसीलिए वो जुटे रहे. डटे रहे. लेकिन अपनी बेबाकी और सैद्धांतिक मूल्यों से कभी समझौता नहीं किया.

1951 मे संसद में अपने हिन्दू कोड बिल के मसौदे को रोके जाने के बाद अम्बेडकर ने मंत्रिमंडल से इस्तीफा दे दिया. उस मसौदे मे उत्तराधिकार, विवाह और अर्थव्यवस्था के कानूनों में लैंगिक समानता की मांग की गयी थी. हालांकि प्रधानमंत्री नेहरू, कैबिनेट और कई अन्य कांग्रेसी नेताओं ने इसका समर्थन किया लेकिन सांसदों की एक बड़ी संख्या इसके खिलाफ थी. वैसे ही अंबेडकर ने मुस्लिम समाज की कुरीतियों पर भी खुलकर अपनी राय रखी. उन्होंने लिखा कि मुस्लिम समाज मे तो हिंदू समाज से भी अधिक सामाजिक बुराइयां हैं और मुसलमान उन्हें “भाईचारे” जैसे नरम शब्दों के प्रयोग से छुपाते हैं. उन्होंने मुसलमानो द्वारा दूसरे वर्गों के खिलाफ भेदभाव के साथ ही महिलाओं के खिलाफ दमनकारी प्रथा का भी जमकर विरोध किया. आज होते तो ट्रिपल तलाक पर उनका रुख इस समाज को बदलने वाला होता.

अंबेडकर ने जन्म तो हिंदू धर्म में लिया था. लेकिन दलितों की गैर बराबरी, शोषण और मर्यादाहीन जिंदगी उन्हें बार-बार हिंदू धर्म छोड़ने को मजबूर करती थी. 1935 से वो बार बार कहने लगे थे कि मैं हिंदू धर्म छोड़ना चाहता हूं और नियति का चक्र देखिए कि मृत्यु से कुछ समय पहले ही उन्होंने बौद्ध धर्म स्वीकार कर लिया.

अंबेडकर का बनाया संविधान हमारा सबसे बड़ा ईमान है. लेकिन उस संविधान निर्माता को क्या हम सच्चे दिल से सम्मान देते हैं? पूर्व प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह जब संसद के सेंट्रल हॉल में उनकी तस्वीर लगाना चाहते थे तो कई सांसदों और बड़े नेताओं ने कहा कि जगह कहां है. वीपी सिंह ने कहा कि दिल में जगह बनाओगे तो दीवार में जगह बन ही जाएगी. 1990 में वीपी सरकार ने ही आजादी के 43 साल बाद उन्हें भारत रत्न दिया.

आज जो लोग अंबेडकर के नाम की दुहाई दे रहे हैं, जिनकी जुबान पर अंबेडकर का नाम रहता है, क्या उनके दिल में भी अंबेडकर हैं? अगर होते तो ऊना में दलितों की खाल नहीं उधेड़ दी जाती. कोई रोहित वेमुला आत्महत्या करने को विवश नहीं होता और दलितों के आरक्षण पर ही सवाल नहीं उठाया जाता, जैसा हो रहा है.

आज अंबेडकर की दीक्षा भूमि हिंदुत्व का गौरव केंद्र बन गया है, जबकि ये हम सब हिंदुओं के लिए लज्जा की बात होनी चाहिए थी कि जिसने देश की आजादी की लड़ाई लड़ी, जिसने देश का संविधान बनाया, जिसने आधुनिका भारत को एक सभ्य कायदे कानून की पवित्र पुस्तक दी, वो बाबा साहेब अंबेडकर आज ही के दिन 61 साल पहले हिंदू धर्म छोड़कर बौद्ध हो जाने को मजबूर हो गए. जीवन के 65वें साल में, अपनी मृत्यु से 7 महीने पहले अगर कोई अपमान, अवज्ञा और अनादर में अपना धर्म छोड़ने को मजबूर हो तो हमें बार-बार अपने अंदर झांकने की जरूरत है कि कमी कहां रह गई. वो कमी आज भी है.

हमारी परंपरा में सौ साल जीने की उम्मीद रखी जाती है. अंबेडकर आज होते तो आज वो126 साल के होते. लेकिन इससे क्या होता है. वो दैहिक रूप से हमारे बीच नहीं हैं लेकिन उनका संविधान, उनकी विचारधारा, उनकी राजनीतिक सोच और समझ और उनका संघर्ष हमें रास्ता दिखाता है. वो हमें प्रेरणा देता है कि मानव मर्यादा किसी दमन और शोषण की बंदिनी नहीं होती.

संविधान निर्माता बाबा साहब डॉ. भीमराव अंबेडकर को सच्ची श्रद्धांजलि तभी होगी जब समाज और शासन ये तय कर ले कि अब कोई गुरु द्रोण किसी एकलव्य का अंगूठा नहीं कटवाएगा और कोई परशुराम किसी कर्ण को दी हुई शिक्षा वापस नहीं ले लेगा.

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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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