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कितना मुश्किल होता है राम रहीम जैसों को दोषी साबित करना?

    • मृगांक शेखर
    • Updated: 27 अगस्त, 2017 01:56 PM
  • 27 अगस्त, 2017 01:56 PM
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कभी सोचा है, कितना खतरनाक होता है सपनों को मार डालने वाले को सजा दिलाना? बता वही सकता है जिसने अपने सपनों के कातिल को सजा दिलाने का सपना देखा हो.

पाश ने तो बस इतना ही कहा था - बहुत खतरनाक होता है सपनों का मर जाना. कभी सोचा है, कितना खतरनाक होता है सपनों को मार डालने वाले को सजा दिलाना? बता वही सकता है जिसने अपने सपनों के कातिल को सजा दिलाने का सपना देखा हो. बिलकुल, जानता तो वही है जिसने सबसे बड़ा जोखिम उठाते, गुमनाम रहते हुए, बाबा का चोला ओढ़े भगवान बन कर घूम रहे एक सीरियल रेपिस्ट को दुनिया के सामने बेनकाब करने का सपना देखा हो - और उसे हकीकत में बदलते दुनिया देख रही हो.

बड़ा मुश्किल होता है कोई जंग अकेले जीतना, लेकिन उसे जिसे कानून में विश्वास होता है कुदरत कभी अकेले नहीं छोड़ती. बात बस हिम्मत जुटाने की होती है. मदद के हाथ अपनेआप बढ़े चले आते हैं.

बीए पास उस साध्वी के पास गुमनाम खत के अलावा कोई रास्ता भी नहीं था. नाम जो भी हो आखिरी अस्त्र ब्रह्मास्त्र ही होता है - और वो गुमनाम खत ब्रह्मास्त्र साबित हुआ. तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी को संबोधित वो खत अकेला ही चला था, लेकिन मददगार आते गये और कारवां बनता गया.

क्या राम रहीम 'गिल्टी' का मतलब भी नहीं जानता?

फैसला सुनाने के लिए मुजरिम की मौजूदगी जरूरी होती है. मुजरिम हाजिर हो फिर फैसला सुनाने में देर नहीं लगती. राम रहीम के साथ भी स्पेशल कोर्ट में ऐसा ही हुआ.

तब तो जैसे तोते उड़ ही गये

जज ने फैसला सुना दिया. राम रहीम हाथ जोड़े सामने खड़ा रहा. उसे मालूम भी न हुआ कि क्या हुआ. शायद उसने सपने में भी नहीं सोचा था कि किसी के आगे उसे हाथ जोड़ कर खड़ा होना पड़ेगा. खड़ा होना पड़े भी तो कोई ऐसा भी पैदा हुआ होगा जो उसे जेल भेजने के बारे में सोच भी सकता हो. सीबीआई के स्पेशल जज जगदीप सिंह के कोर्ट में बिलकुल ऐसा ही हुआ.

जज के फैसला सुनाने के बाद भी मुजरिम के वकील ने राम रहीम के शरीर...

पाश ने तो बस इतना ही कहा था - बहुत खतरनाक होता है सपनों का मर जाना. कभी सोचा है, कितना खतरनाक होता है सपनों को मार डालने वाले को सजा दिलाना? बता वही सकता है जिसने अपने सपनों के कातिल को सजा दिलाने का सपना देखा हो. बिलकुल, जानता तो वही है जिसने सबसे बड़ा जोखिम उठाते, गुमनाम रहते हुए, बाबा का चोला ओढ़े भगवान बन कर घूम रहे एक सीरियल रेपिस्ट को दुनिया के सामने बेनकाब करने का सपना देखा हो - और उसे हकीकत में बदलते दुनिया देख रही हो.

बड़ा मुश्किल होता है कोई जंग अकेले जीतना, लेकिन उसे जिसे कानून में विश्वास होता है कुदरत कभी अकेले नहीं छोड़ती. बात बस हिम्मत जुटाने की होती है. मदद के हाथ अपनेआप बढ़े चले आते हैं.

बीए पास उस साध्वी के पास गुमनाम खत के अलावा कोई रास्ता भी नहीं था. नाम जो भी हो आखिरी अस्त्र ब्रह्मास्त्र ही होता है - और वो गुमनाम खत ब्रह्मास्त्र साबित हुआ. तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी को संबोधित वो खत अकेला ही चला था, लेकिन मददगार आते गये और कारवां बनता गया.

क्या राम रहीम 'गिल्टी' का मतलब भी नहीं जानता?

फैसला सुनाने के लिए मुजरिम की मौजूदगी जरूरी होती है. मुजरिम हाजिर हो फिर फैसला सुनाने में देर नहीं लगती. राम रहीम के साथ भी स्पेशल कोर्ट में ऐसा ही हुआ.

तब तो जैसे तोते उड़ ही गये

जज ने फैसला सुना दिया. राम रहीम हाथ जोड़े सामने खड़ा रहा. उसे मालूम भी न हुआ कि क्या हुआ. शायद उसने सपने में भी नहीं सोचा था कि किसी के आगे उसे हाथ जोड़ कर खड़ा होना पड़ेगा. खड़ा होना पड़े भी तो कोई ऐसा भी पैदा हुआ होगा जो उसे जेल भेजने के बारे में सोच भी सकता हो. सीबीआई के स्पेशल जज जगदीप सिंह के कोर्ट में बिलकुल ऐसा ही हुआ.

जज के फैसला सुनाने के बाद भी मुजरिम के वकील ने राम रहीम के शरीर में कोई हरकत नहीं देखी तो जाहिर है उसे शक हुआ होगा. हर मुजरिम की जिंदगी में ये वो लम्हा होता है कि उसकी रूह तक कांप उठती है. आखिर राम रहीम किस मिट्टी का बना है कि कोई सिहरन तक न दिखी. तस्दीक के मकसद से वकील ने राम रहीम की ओर सवालिया निगाह से देखा. राम रहीम ने भी उसी अंदाज में देखा. वकील को भी बात समझ आ चुकी थी. राम रहीम को गिल्टी होने का मतलब शायद पता नहीं था.

जब वकील ने राम रहीम को बताया कि जज के कहने का मतलब था कि उसे दोषी करार दिया गया है तो उसकी हवा खराब हो गयी. चेहरे से हवाइयां उड़ गयीं.

एक गुमनाम खत और कुछ मददगार

साध्वी का गुमनाम खत भले ही देश के प्रधानमंत्री को संबोधित था, लेकिन मदद तो दूर सियासी हुक्मरानों ने ही उसमें रोड़े अटकाये. गनीमत यही थी कि उस खत की मंजिल सिर्फ विधायिका तक सीमित न थी, उसकी कॉपी मीडिया और न्यायपालिका को भी भेजी गयी.

इस बात की भनक डेरा वालों और राम रहीम को तब लगी डब वो गुमनाम खत एक स्थानीय सांध्य दैनिक 'पूरा सच' में प्रकाशित हुआ. उसे छापना के लिए भी बहुत बड़ा कलेजा चाहिये था. पत्रकार रामचंद्र छत्रपति ने पत्र छाप कर अपनी जिंदगी का सबसे बड़ा जोखिम ले लिया था. रामचंद्र छत्रपति को उनके घर के पास गोली मारी गयी.

स्वाराज अभियान के नेता योगेंद्र यादव ने अपनी फेसबुक पोस्ट में एक वाकये का जिक्र किया है जिससे पता चलता है कि रामचंद्र छत्रपति ने कैसे अपनी जिंदगी ही दांव पर लगा दी थी.

पत्रकार रामचंद्र छत्रपति ने कहा था - एक दिन तो मरना ही है

बाद में एनडीटीवी पर योगेंद्र यादव ने बताया कि अस्पताल में मौत से जूझते रामचंद्र चाहते थे कि उनका बयान दर्ज हो जाये, लेकिन तमाम कोशिशों के बाद भी ऐसा नहीं हो सका. आखिरकार रामचंद्र छत्रपति की मौत हो गयी.

रामचंद्र छत्रपति की मौत के बाद इस लड़ाई को आगे बढ़ाने का बीड़ा उठाया उनके बेटे अंशुल छत्रपति ने. एनडीटीवी पर ही उस बातचीत में ये भी सामने आया कि किस तरह वकीलों ने बगैर फीस लिये इस मामले को हाई कोर्ट पहुंचाया और फिर कोर्ट ने सीबीआई जांच के आदेश दिये.

सीबीआई के लिए भी केस को आगे बढ़ाना बहुत ही मुश्किल था. बताते हैं कि गुरमीत राम रहीम की ऊंची पहुंच के चलते जांच अधिकारी पर भी दबाव बनाने की कोशिश की गयी, लेकिन वो जांबाज अफसर टस से मस नहीं हुआ. सीबीआई के डिप्टी एसपी सतीश डागर के लिए गवाहों को अदालत तक पहुंचाना भी पहाड़ तोड़ने से कम न था. पहले तो उन दो लड़कियों को अदालत तक ले जाकर बयान दिलवाने की चुनौती थी. बड़ी मशक्कत के बाद डिप्टी एसपी डागर ने लड़कियों का कोर्ट में बयान दर्ज कराया. उन लड़कियों के लिए तो जीना भी पल पल का संघर्ष था. एक के भाई की हत्या तो तभी कर दी गयी जब डेरे वालों को शक हुआ कि उसी के कारण गुमनाम खत अखबार तक पहुंचा. एक लड़की के ससुराल वालों को जब उसके कोर्ट जाकर राम रहीम के खिलाफ बयान देने का पता चला तो उन्होंने उसे घर से बेदखल कर दिया.

तमाम झंझावातों से जूझते हुए डिप्टी एसपी सतीश डागर चार्जशीट दाखिल कराने में कामयाब रहे - और बरसों चली अदालती कार्यवाही के बाद वो दिन भी आया जो फैसले का दिन था. मुजरिम दोषी करार दिया जाये किसी पुलिस अफसर के लिए कामयाबी का सबसे बड़ा दिन होता है. उसकी कलम से इंसाफ लिखा जाये ये हर जज के लिए बड़ा दिन होता है.

सियासत चाहे जो करवट ले, जब भी इंसाफ की किसी जंग का जिक्र होगा इस संघर्ष के सारे किरदारों के नाम जरूर लिये जाएंगे - और उम्मीद करनी चाहिये इनके नाम सुन कर जब भी कोई राम रहीम बनने की कोशिश करेगा उसकी हालत वैसी ही होगी जैसी जज के सामने गुरमीत राम रहीम की हुई.

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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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