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नदीसूत्रः क्या हम जरूरत से ज्यादा हो गए हैं?

    • मंजीत ठाकुर
    • Updated: 31 जुलाई, 2019 06:54 PM
  • 31 जुलाई, 2019 06:54 PM
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जब भी मैं भारतवर्ष, गंगा नदी, इसके बेसिन की बात करता हूं, मुझे असंख्य नरमुंड नजर आते हैं. गंगा के किनारे-किनारे आप चलते चले जाइए, गंगासागर तक. गंगा ही क्यों, इसकी हर सहायक नदी के तट पर भी आपको अपार जनसंख्या मिलेगी.

कुछेक साल पहले मैं गंगोत्री गया था. मेरी इच्छा गोमुख तक जाने की थी, सो थोड़ती फूलती सांस के साथ जब मैं वहां पहुंचा और मैंने चारों तरफ पलटकर देखा तो बस कालिदास याद आएः

आसीनानाम् सुरभितशिलम् नाभिगन्धैर्मृगाणाम्

तस्या एव प्रभवमचलम् प्राप्ते गौरम् तुषारैः.

वक्ष्यस्य ध्वश्रमदिनयने तस्य श्रृंगे निषण्णः शोभाम्

शुभ्रत्रिनयन वृशोत्खात्पंकोपमेयाम्..

—कालिदास, मेघदूत

(वहां से चलकर जब तुम हिमालय की उस हिम से ढंकी चोटी पर बैठकर थकावट मिटाओगे, जहां से गंगा निकलती है और जिसकी शिलाएं कस्तूरी मृगों के सदा बैठने से महकती रहती हैं. तब उस चोटी पर बैठे ही दिखाई देगा जैसे महादेव के उजले सांड़ के सींगों पर मिट्टी के टीलों पर टक्कर मारने से पंक जम गया हो.)

कालिदास के मेघदूत की इन पंक्तियों को मन में दोहराने के साथ गंगोत्री के आगे गोमुख के पास जब मैंने अपनी नजरें चारों तरफ फिराईं तो मन में एक ही विचार आया था- ये हिमशिखर इस पृथ्वी के नहीं हो सकते! मुझे लगा कि मैं किसी और लोक में हूं. जहां तक नज़र जाती, हर तरफ सूरज की किरणें हिमकणों को जादुई तरीके से बदल रही थीं. मेरे चारों ओर बिखरे थे असंख्र्य हीरे, मोती, माणिक...चांदी-सी चमकती एक अनंत चादर पर.

गोमुख तपोवन

आप गोमुख आएंगे तो आपको चारों ओर बिखरा मिलेगा, युगों का इतिहास, भविष्य की झलक, सच जैसा मिथक और जादुई यथार्थ, वेदों की ऋचाएं, ऋषियों का तप, और कवियों की कल्पना. इन हिमकणों ने एक कैलिडोस्कोप का रूप ले लिया है और इसमें दिख रहा है सूदूर इलाकों में बुझती प्यास, अपने खेतों को सींचता किसान, साईबेरिया से आकर बसेरा ढूंढते पक्षी, बुद्ध और...

कुछेक साल पहले मैं गंगोत्री गया था. मेरी इच्छा गोमुख तक जाने की थी, सो थोड़ती फूलती सांस के साथ जब मैं वहां पहुंचा और मैंने चारों तरफ पलटकर देखा तो बस कालिदास याद आएः

आसीनानाम् सुरभितशिलम् नाभिगन्धैर्मृगाणाम्

तस्या एव प्रभवमचलम् प्राप्ते गौरम् तुषारैः.

वक्ष्यस्य ध्वश्रमदिनयने तस्य श्रृंगे निषण्णः शोभाम्

शुभ्रत्रिनयन वृशोत्खात्पंकोपमेयाम्..

—कालिदास, मेघदूत

(वहां से चलकर जब तुम हिमालय की उस हिम से ढंकी चोटी पर बैठकर थकावट मिटाओगे, जहां से गंगा निकलती है और जिसकी शिलाएं कस्तूरी मृगों के सदा बैठने से महकती रहती हैं. तब उस चोटी पर बैठे ही दिखाई देगा जैसे महादेव के उजले सांड़ के सींगों पर मिट्टी के टीलों पर टक्कर मारने से पंक जम गया हो.)

कालिदास के मेघदूत की इन पंक्तियों को मन में दोहराने के साथ गंगोत्री के आगे गोमुख के पास जब मैंने अपनी नजरें चारों तरफ फिराईं तो मन में एक ही विचार आया था- ये हिमशिखर इस पृथ्वी के नहीं हो सकते! मुझे लगा कि मैं किसी और लोक में हूं. जहां तक नज़र जाती, हर तरफ सूरज की किरणें हिमकणों को जादुई तरीके से बदल रही थीं. मेरे चारों ओर बिखरे थे असंख्र्य हीरे, मोती, माणिक...चांदी-सी चमकती एक अनंत चादर पर.

गोमुख तपोवन

आप गोमुख आएंगे तो आपको चारों ओर बिखरा मिलेगा, युगों का इतिहास, भविष्य की झलक, सच जैसा मिथक और जादुई यथार्थ, वेदों की ऋचाएं, ऋषियों का तप, और कवियों की कल्पना. इन हिमकणों ने एक कैलिडोस्कोप का रूप ले लिया है और इसमें दिख रहा है सूदूर इलाकों में बुझती प्यास, अपने खेतों को सींचता किसान, साईबेरिया से आकर बसेरा ढूंढते पक्षी, बुद्ध और शिव, ब्रह्मा का कमंडल, भागीरथ की तपस्या, वर्षा और बाढ़, आशा, निराशा, हताशा...और भारतवर्ष की असली परिभाषा.

और जब भी मैं भारतवर्ष, गंगा नदी, इसके बेसिन की बात करता हूं, मुझे असंख्य नरमुंड नजर आते हैं. गंगा के किनारे-किनारे आप चलते चले जाइए, गंगासागर तक. गंगा ही क्यों, इसकी हर सहायक नदी के तट पर भी आपको अपार जनसंख्या मिलेगी.

दुनिया की आबादी 7 अरब कब का पार कर गई. क्या हम ज़रूरत से ज्यादा हो गए हैं? अब बढ़ती आबादी पर कोई बात नहीं करता. राजनीति में बढ़ती आबादी पर रोक लगाना कोई मुद्दा नहीं है. इसमें धर्म का कोण भी आ जाता है.

लेकिन, हम चाहें लाख इस मुद्दे पर बात करने से कतराते रहें और अपनी जनसंख्या को अपने संसाधन बताते रहें, लेकिन कुछ अध्ययनों पर गौर करें तो नदियों और जल के संदर्भ में आने वाले संकट के संकेत दिखेंगे. हाल ही में, नीति आयोग ने संयुक्त जल प्रबंधन सूचकांक (कंपॉजिट वॉटर मैनेजमेंट इंडेक्स, सीडब्ल्यूएमआइ) विकसित किया है ताकि देश में जल प्रबंधन को प्रभावी बनाया जा सके. चेतावनी स्पष्ट है, साल 2030 तक देश में पानी की मांग उपलब्ध आपूर्ति की तुलना में दोगुनी होने वाली है.

क्या हम ज़रूरत से ज्यादा हो गए हैं?

इस परिदृश्य में, हर राज्य की जनसंख्या वृद्धि को देखा जाए, जिसका पूर्वानुमान भारतीय राष्ट्रीय जनसंख्या आयोग 2001-2026 ने 2006 में किया था. अब इसका पूर्वानुमान अब 2080 तक के लिए किया गया है. इसके मुताबिक, गंगा बेसिन में आबादी साल 2040 तक करीबन डेढ़ गुनी हो जाएगी. 2011 की जनगणना के मुताबिक, इस बेसिन की आबादी 45.5 करोड़ थी जो 2040 में बढ़कर 70.6 करोड़ हो जाएगी. बढ़ती आबादी के साथ शहरीकरण भी बढ़ेगा. शहरी आबादी में करीब 70 फीसदी वृद्धि होगी. शहरी आबादी मौजूदा 14.4 करोड़ से बढ़कर 24.3 करोड़ तक हो जाएगी. ग्रामीण आबादी में 35 फीसदी की बढोतरी होगी. यह मौजूदा (2011) के 34.1 करोड़ से पढ़कर 46.3 करोड़ हो जाएगी.

जाहिर है इस बढ़ी आबादी को खाने के लिए अनाज चाहिए होगा, नहाने और धोने के लिए पानी चाहिए होगा. अनाज उगाने के लिए पानी भी मौजूदा संसाधनों से ही खींचा जाएगा. असल में, पानी की मांग आबादी में बढोतरी के साथ उपभोक्ता मांग और विश्व बाजार के विकास से भी होता है.

वॉटर रिसोर्स ग्रुप का पूर्वानुमान कहता है कि साल 2030 तक सिंचाई के लिए पानी की जरूरत सालाना 2.4 फीसदी की दर से बढ़ेगी. यानी 2040 तक की गणना की जाए, तो पानी की मांग आज की तुलना में 80 फीसदी बढ़ जाएगी. इसी शोध पत्र में कहा गया है कि औद्योगिक क्षेत्र में उत्पादनों की जरूरतों के लिए पानी की मांग चौगुनी हो जाएगी.

विषय ऐसा है कि हमें और आपको चिंता करने की जरूरत है. दुनिया भर की मीठे पानी का महज 4 फीसदी हिस्सा हमारे पास है. आबादी को बोझ उससे कई गुना ज्यादा. जैसा कि गांधी जी कहते थे, प्रकृति के पास हमारी आवश्यकता पूरी करने लायक बहुत है, पर हमारी लालच पूरी करने लायक नहीं.

हमें दो मोर्चों पर काम करने की जरूरत है. एक तरफ नदियों को बचाना होगा, दूसरी तरफ आबादी पर प्रभावी ढंग से लगाम लगानी होगी. वरना, तीसरा विश्वयुद्ध पानी के लिए हो न हो, गृहयुद्ध जरूर हो जाएगा.

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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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