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अच्छी भली जिंदगी चल रही है लेकिन फिर भी ये कपल मरना चाहता है

    • शिवांगी ठाकुर
    • Updated: 15 फरवरी, 2018 08:21 PM
  • 15 फरवरी, 2018 08:21 PM
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मुंबई में एक बुजुर्ग दंपति मरना चाहते हैं. जी हां, सही सुना आपने, वो मरना चाहते हैं. उनके पास मरने की ख़ास वजह है, लेकिन जीने की कोई वजह नहीं.

क्या हो जब आप दो ऐसे लोगो से मिलें जो हंसते खेलते अपनी ज़िन्दगी बसर कर रहे हों. जिनकी ज़िन्दगी इतनी सरल, जिनका दिल इतना साफ़ और जिनकी बातों में इतनी सच्चाई हो कि आप उनकी इस सादगी पर मर मिटें. ऐसे लोगों से मिलकर आप खुश ही होंगे ना. लेकिन मुझे इनसे मिल कर ख़ुशी नहीं हुई.

87 साल के नारायण लवाटे और 78 साल की इरावती लवाटे मुंबई में रहते हैं और मरना चाहते हैं. जी हां, सही सुना आपने, वो मरना चाहते हैं. उनके पास मरने की ख़ास वजह है, लेकिन जीने की कोई वजह नहीं. मुंबई जैसे शहर में ठीक-ठाक ज़िन्दगी गुजारने वाले लवाटे दम्पति की कोई संतान नहीं और रिश्तेदार भी गिने चुने हैं. इस जोड़े ने राष्ट्रपति से इच्छा मृत्यु मांगी है.

अब भला सोचिये, अगर इंसान अच्छी खासी ज़िन्दगी जी रहा हो और सब कुछ सही से चल रहा हो तो वो मरना क्यों चाहेगा. इसी बात का पता लगाने मैं इनके घर पहुंची. ठाकुरद्वार इलाके में एक छोटे से घर में पिछले 50 सालों से ये दोनों साथ रह रहे हैं. मेरे पहुंचते ही मुझसे ख़ुशी से मिले और कॉफ़ी ऑफर किया. मैंने सोचा इरावती जी बुजुर्ग हैं कहां इन्हे परेशान किया जाए तो वो खुद ख़ुशी से बोली, 'पी लो बेटा, वैसे भी इस घर में तीसरी कप कॉफी सालों बाद बनती है.' उनके ये शब्द मानो मेरे दिल पर चोट कर गए.

कॉफ़ी के साथ उन्होंने जब अपनी कहानी सुनाई तो मैं बस इतना समझ पाई कि ये दोनों सुकून के साथ मरना चाहते हैं. पहले ही अपने शरीर के सारे अंगों को दान कर चुके लवाटे दम्पति कायदे और कानून के तहत मरना चाहते हैं और अपना घर सरकार को दान देना चाहते हैं. नारायण लवाटे का कहना है कि वो ज़हर खाकर भी मर सकते हैं, लेकिन वो ऐसा करेंगे नहीं, वरना उनके शरीर के अंग खराब हो जाएंगे और वो उसे डोनेट नहीं कर पाएंगे. वृद्धाश्रम ये लोग जाना नहीं चाहते. किसी और पर ये निर्भर होना नहीं चाहते और कहते हैं अब आगे जिएं भी तो किसके लिए. बस सुकून से मर पाएं.

लवाटे दम्पति से मिलने के बाद कई सवाल मेरे जहन में आए. आखिर क्यों? आस-पास इतने लोग हैं पर उन्हें क्यों किसी पर यकीन नहीं? क्यों...

क्या हो जब आप दो ऐसे लोगो से मिलें जो हंसते खेलते अपनी ज़िन्दगी बसर कर रहे हों. जिनकी ज़िन्दगी इतनी सरल, जिनका दिल इतना साफ़ और जिनकी बातों में इतनी सच्चाई हो कि आप उनकी इस सादगी पर मर मिटें. ऐसे लोगों से मिलकर आप खुश ही होंगे ना. लेकिन मुझे इनसे मिल कर ख़ुशी नहीं हुई.

87 साल के नारायण लवाटे और 78 साल की इरावती लवाटे मुंबई में रहते हैं और मरना चाहते हैं. जी हां, सही सुना आपने, वो मरना चाहते हैं. उनके पास मरने की ख़ास वजह है, लेकिन जीने की कोई वजह नहीं. मुंबई जैसे शहर में ठीक-ठाक ज़िन्दगी गुजारने वाले लवाटे दम्पति की कोई संतान नहीं और रिश्तेदार भी गिने चुने हैं. इस जोड़े ने राष्ट्रपति से इच्छा मृत्यु मांगी है.

अब भला सोचिये, अगर इंसान अच्छी खासी ज़िन्दगी जी रहा हो और सब कुछ सही से चल रहा हो तो वो मरना क्यों चाहेगा. इसी बात का पता लगाने मैं इनके घर पहुंची. ठाकुरद्वार इलाके में एक छोटे से घर में पिछले 50 सालों से ये दोनों साथ रह रहे हैं. मेरे पहुंचते ही मुझसे ख़ुशी से मिले और कॉफ़ी ऑफर किया. मैंने सोचा इरावती जी बुजुर्ग हैं कहां इन्हे परेशान किया जाए तो वो खुद ख़ुशी से बोली, 'पी लो बेटा, वैसे भी इस घर में तीसरी कप कॉफी सालों बाद बनती है.' उनके ये शब्द मानो मेरे दिल पर चोट कर गए.

कॉफ़ी के साथ उन्होंने जब अपनी कहानी सुनाई तो मैं बस इतना समझ पाई कि ये दोनों सुकून के साथ मरना चाहते हैं. पहले ही अपने शरीर के सारे अंगों को दान कर चुके लवाटे दम्पति कायदे और कानून के तहत मरना चाहते हैं और अपना घर सरकार को दान देना चाहते हैं. नारायण लवाटे का कहना है कि वो ज़हर खाकर भी मर सकते हैं, लेकिन वो ऐसा करेंगे नहीं, वरना उनके शरीर के अंग खराब हो जाएंगे और वो उसे डोनेट नहीं कर पाएंगे. वृद्धाश्रम ये लोग जाना नहीं चाहते. किसी और पर ये निर्भर होना नहीं चाहते और कहते हैं अब आगे जिएं भी तो किसके लिए. बस सुकून से मर पाएं.

लवाटे दम्पति से मिलने के बाद कई सवाल मेरे जहन में आए. आखिर क्यों? आस-पास इतने लोग हैं पर उन्हें क्यों किसी पर यकीन नहीं? क्यों ये अपने रिश्तेदार, अपने पडोसी और वृद्धाश्रम पर भरोसा नहीं करते. हमारे समाज ने ही तो ये उदाहरण दिया है कि अगर रिश्तेदार आपके साथ है तो बस अपने मकसद से. पडोसी अपने साथ है तो कल को आपको मार कर आपका सब कुछ ले जाएगा. वृद्धाश्रम में आपका निरादर होगा. इसीलिए इस सेल्फ इंडिपेंडेंट कपल ने दुनिया की नफरत से बेहतर मौत को चुना है. रोजाना घुट-घुट के मरने से बेहतर एक साथ सुकून की आखिरी सांस लेने का फैसला किया है. ज़िन्दगी पर नहीं, बल्कि मौत पर ज्यादा भरोसा किया है और कहीं न कहीं इन सबके जिम्मेदार हम हैं.

हमने इन्हें ऐसी दुनिया दिखाई, जिस पर ये भरोसा नहीं कर सकते. हमने इन्हें ये भरोसा दिलाया कि आप कहीं भी जाओ अपनी जान खतरे में है. हमने इन्हें ज़िन्दगी को उजाड़ने का फैसला लेने पर मजबूर किया है और अगर 31 मार्च को राष्ट्रपति की ओर से इन्हे इच्छामृत्यु मिलती है तो समझ जाइए इनकी मौत का जिम्मेदार कौन है.

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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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