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निर्भया के दोषियों को मिली फांसी आग़ाज़ है एक नए संघर्ष का!

    • अनु रॉय
    • Updated: 21 मार्च, 2020 07:58 PM
  • 21 मार्च, 2020 07:56 PM
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आख़िरकार सात साल और तीन महीने और चार दिन के बाद निर्भया के दोषियों को फांसी (Capital Punishment to Nirbhaya Convicts) मिली. निर्भया (Nirbhaya) की आत्मा को आज शांति मिली होगी लेकिन अब भी समाज में सैकड़ों निर्भया हैं जिन्हें न्याय नहीं मिला है.

निर्भया के दोषियों को फांसी. ये अंत नहीं बल्कि आग़ाज़ है उस लड़ाई का जो एक समाज के तौर पर अभी लड़ना बाक़ी है हमें. महज़ चार दरिंदों को आज फांसी (Nirbhaya Convicts Hanged) हुई है. मगर वैसे सैकड़ों दरिंदें मौजूद हैं अब भी हमारे इर्द-गिर्द. जैसे कि आज से सात पहले कहां पता था निर्भया (Nirbhaya) को कि दिल्ली (Delhi Gangrape) की सड़कों में बलात्कारी ऐसे ही बस लेकर घूम रहें हैं. वो तो निकली थी ज़िंदगी जीने के लिए, आज़ाद हवा में सांस लेने के लिए एक शाम को. कहां पता था कि वो शाम उसकी ज़िंदगी की सबसे काली रात हो जाएगी. वो इंसान थी और बस में बैठे उन सभी बलात्कारीयों (Nirbhaya Rape Case) को अपने जैसा इंसान ही तो समझा था. लेकिन वो इंसान नहीं थे, वो बीमार मानसिकता वाले रोगी थे. जिसे हमारे समाज और उनके परिवार ने पोसा था. उस रात, उस बस में उनके लिए निर्भया एक इंसान नहीं बल्कि सिर्फ़ एक जिस्म भर थी. जिसका वजूद सम्मान देने का नहीं बल्कि हवस मिटाने के लिए होता है.

12 दिसंबर को उन 6 हैवानों ने तो यही साबित किया. पहले चलती बस में बलात्कार फिर योनि में लोहे की रॉड घुसा कर मरने के लिए सड़क पर छोड़ देना. निर्भया पर उस पल में क्या गुज़र रही होगी ये सोच कर ही रूह क कांप उठती है.

फिर अस्पताल में मरने से पहले मां को ये कहना कि, 'चाहे मैं रहूं या न रहूं इन सबको फांसी दिलवाना. नहीं फांसी नहीं ज़िंदा जला देना.'

ये लोगों के लिए महज़ दो वाक्य भर थे मगर निर्भया की मां आशा देवी के लिए जीने का सहारा. एक लम्बी लड़ाई का एकमात्र अवलंब. सात साल तीन महीने कम समय कहां होता है. शायद कोई दूसरी महिला होती तो थक कर, हार कर बैठ जाती. लेकिन संघर्ष और हार न मानने की मिसाल बन कर उभरी निर्भया की मां. हर कोर्ट की तारीख़ पर मन में दुःख समेटे, आंखों में ग़ुस्सा और होंठों पर ख़ामोशी ओढ़े हाज़िर होती रही.

निर्भया के दोषियों को फांसी. ये अंत नहीं बल्कि आग़ाज़ है उस लड़ाई का जो एक समाज के तौर पर अभी लड़ना बाक़ी है हमें. महज़ चार दरिंदों को आज फांसी (Nirbhaya Convicts Hanged) हुई है. मगर वैसे सैकड़ों दरिंदें मौजूद हैं अब भी हमारे इर्द-गिर्द. जैसे कि आज से सात पहले कहां पता था निर्भया (Nirbhaya) को कि दिल्ली (Delhi Gangrape) की सड़कों में बलात्कारी ऐसे ही बस लेकर घूम रहें हैं. वो तो निकली थी ज़िंदगी जीने के लिए, आज़ाद हवा में सांस लेने के लिए एक शाम को. कहां पता था कि वो शाम उसकी ज़िंदगी की सबसे काली रात हो जाएगी. वो इंसान थी और बस में बैठे उन सभी बलात्कारीयों (Nirbhaya Rape Case) को अपने जैसा इंसान ही तो समझा था. लेकिन वो इंसान नहीं थे, वो बीमार मानसिकता वाले रोगी थे. जिसे हमारे समाज और उनके परिवार ने पोसा था. उस रात, उस बस में उनके लिए निर्भया एक इंसान नहीं बल्कि सिर्फ़ एक जिस्म भर थी. जिसका वजूद सम्मान देने का नहीं बल्कि हवस मिटाने के लिए होता है.

12 दिसंबर को उन 6 हैवानों ने तो यही साबित किया. पहले चलती बस में बलात्कार फिर योनि में लोहे की रॉड घुसा कर मरने के लिए सड़क पर छोड़ देना. निर्भया पर उस पल में क्या गुज़र रही होगी ये सोच कर ही रूह क कांप उठती है.

फिर अस्पताल में मरने से पहले मां को ये कहना कि, 'चाहे मैं रहूं या न रहूं इन सबको फांसी दिलवाना. नहीं फांसी नहीं ज़िंदा जला देना.'

ये लोगों के लिए महज़ दो वाक्य भर थे मगर निर्भया की मां आशा देवी के लिए जीने का सहारा. एक लम्बी लड़ाई का एकमात्र अवलंब. सात साल तीन महीने कम समय कहां होता है. शायद कोई दूसरी महिला होती तो थक कर, हार कर बैठ जाती. लेकिन संघर्ष और हार न मानने की मिसाल बन कर उभरी निर्भया की मां. हर कोर्ट की तारीख़ पर मन में दुःख समेटे, आंखों में ग़ुस्सा और होंठों पर ख़ामोशी ओढ़े हाज़िर होती रही.

निर्भया के बाद ये उसकी मां ही थी जिसने तमाम तरह की यातनाएं झेली हैं

एक ऐसी लड़ाई जिसमें हर तारीख़ को निराशा हाथ लगती लेकिन अपने नाम के अनुरूप आशा देवी ने कभी उम्मीद नहीं छोड़ी. पिछले कुछ महीनों से जिस तरह फांसी की तारीख़ आती और टल जाती देश भर में इस बात को ले कर ग़ुस्सा भर रहा था. ऐसी स्तिथि में भी आशा देवी ने देश की न्यायपालिका में भरोसा दिखाती दिखीं. और फ़ाइनली आज फांसी हो गयी उन चार दरिंदों को. आज सच में इंसाफ़ मिला निर्भया को और उसकी मां को. लेकिन इस फांसी से पहले जो नाटक उन दरिंदों के परिवार ने किया वो अब भी एक बड़ा सवाल बन कर हमारे देश के सामने खड़ा है.

सोचिए ज़रा, एक बलात्कारी की बहन अपने हाथ में ये तख़्ती ले कर खड़ी हो कि, 'मेरे भाई को फांसी हो जाएगी तो कौन मुझ से शादी करेगा? एक बलात्कारी की मां और पत्नी अपने बेटे और पति को बचाने के लिए अपनी जान देने की धमकी दे, वो समाज कैसा होगा. कैसे सुरक्षित होंगी उस समाज की बेटियां. जब तक मां, पत्नी, बहन से ऊपर उठ कर एक औरत के तौर पर नहीं स्टैंड लेंगी स्त्रियां तब तक हम में से कोई भी सुरक्षित नहीं है.

आख़िर बलात्कारी आसमान से थोड़े ही आते या एक बलात्कारी के तौर पर ही पैदा थोड़े होते. वो हमारे और आपके बीच में रह रहे होते. उन्हें उनकी माएं पाल रही होतीं. उनके घर की स्त्रियों को पता होता है कि इसके अंदर अपराधी प्रवृत्ति बढ़ रही. ये औरतों को सम्मान नहीं करता मगर फिर भी माएं और बहनें चुप रहती हैं. उसकी ग़लतियों को नज़रअन्दाज़ करके जीती रहती हैं. इधर इन लड़कों का मनोबल बढ़ता रहता है.

पहले अपने आस-पास की लड़कियों को छेड़ते हैं. वो लड़कियां किसी वजह से ख़ामोश रह जाती हैं. इनका उत्साह और बढ़ता है फिर ऐसे ही करते-करते ये एक दिन मौक़ा पा कर अकेली लड़की का बलात्कार कर देते हैं तो कभी जान से मार डालते हैं, बलात्कार के बाद.सुनने में कड़वा लगेगा मगर सच है कि घर की स्त्रियां ही समाज के लिए एक बलात्कारी को तैयार कर रही होतीं. जब तक हम अपने बेटों को सिखाएंगे नहीं कि बेटियों का सम्मान करना तब तक ये रुकने वाला नहीं है.

हम हर बलात्कार की घटना के बाद लड़कियों को ताकीद देते हैं ये करो, ये न करो. घर जल्दी लौट आओ, कपड़े वैसे नहीं पहनों. फिर भी जब कभी बलात्कार जैसी कोई घटना घटती है तो हम लड़कियों को ही कठघरे में उतारते नज़र आते हैं. याद तो होगी ही डॉक्टर प्रीति, जब उसकी गुमशुदगी की ख़बर लिखवाने के लिए पुलिसकर्मी के पास उसकी बहन ने शिकायत की थी, तो पुलिस ने ये कह कर शुरू में पल्ला झाड़ लिया था कि कहीं ख़ुद से चली गयी होगी, ख़ुद से वापिस आ जाएगी.

अगर वक़्त पर पुलिस ऐक्टिव हुई रहती तो शायद उसकी जान बच भी सकती थी. ये तो एक उदाहरण भर था. ऐसी सैकड़ों वारदातें होतीं हैं जिसमें बलात्कार के बाद लड़कियों को ही दोषी समाज ठहराता नज़र आता है. निर्भया के बलात्कार के बाद भी तो कई लोग कहते नज़र आए थे कि अगर देर रात वो घर से नहीं निकलती तो ये नहीं होता. अकेले बाहर घूमने जाने की ज़रूरत ही क्या है लड़कियों को. ऊपर से कपड़ों को भी कठघरे में लोग ले आते हैं.

पिछले साल एक विडियो वायरल हुई थी न, जिसमें एक आंटी एक लड़की की छोटी ड्रेस की तरफ़ इशारा कर बोलती नज़र आयीं थी कि इतने छोटे कपड़ों की वजह से बलात्कार होता है. अब जब लोगों सोच लड़कियों के कपड़ों से भी छोटी होंगी तो कैसे सुरक्षित होंगी देश की बेटियां. ऊपर से हम बेटों को खुली आज़ादी दे कर रखते हैं. उनकी हर मनमानी को मान लेते हैं. हर गलती को आंख मूंद कर भुल जाते हैं. यही लड़के बड़े हो कर लड़कियों को बराबरी का इंसान न मान कर सेक्स की वस्तु समझ लेते हैं.

घर में भी उन्होंने यही तो देखा होता है कि बाप-दादा और बाक़ी के मर्द औरतों से किस तरह पेश आ रहें. उनको कितना इज़्ज़त दिया जा रहा. लेकिन वक़्त आ गया है कि बेटों को समझाया जाए कि लड़कियों का सम्मान करो. अगर नहीं दे सकते इज़्ज़त और बलात्कार करोगे तो आज उन चार दरिंदों को फांसी हुई है. कल को तुम्हारा भी वही हश्र होगा. अब नहीं चुप बैठेंगी इस देश की बेटियां . तुम अब बच नहीं सकते.

ले सकती हैं इस देश की स्त्रियां शायद खुली हवा में आज़ाद सांस . किसी दूसरी दुनिया में बैठी निर्भया भी झांक कर देख रही होगी किसी खिड़की से कि देश आज उसे इंसाफ़ मिलने की ख़ुशी में किस क़दर शामिल है. वैसे निर्भया तुम्हें तो ज़िंदा रहना चाहिए था. एक पूरी उम्र जीनी चाहिए थी लेकिन ये हो न सका मगर इस फांसी के बाद जो भी लड़कियां अपनी आज़ादी को जीएंगी, उन सबकी ज़िंदगी में तुम शामिल रहोगी. तुम्हारी ज़िंदगी और तुम्हारी मां का हौसला उम्मीद है इस देश की करोड़ों लड़कियों की. तुम रहोगी सदा हमारे दिलों में. आज का दिन याद रखा जाएगा इतिहास में.

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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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