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एक तो लड़की, उसपर से मुस्लिम! तौबा-तौबा...

    • आईचौक
    • Updated: 17 मई, 2017 08:48 PM
  • 17 मई, 2017 08:48 PM
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अधिकतर लोगों को ये बात पता नहीं कि 'खुला' मुस्लिम महिलाओं को अपने पति से अलग होने का अधिकार देता है. लेकिन इसके लिए पहले उसे अपने पति से आदेश लेना होगा और औरत को अपने गुजारा-भत्ते से भी हाथ धोना पड़ेगा.

पहले तो इस धरती पर लड़की होना ही अपनेआप में एक चैलेंजिंग टास्क है. लेकिन अगर कोई लड़की है और वो भी मुसलमान घर में पैदा हुई तब तो सोने पर सुहागा. इसके बाद तो जीवन में संघर्ष है या फिर संघर्ष ही जीवन है इसका फर्क ही समझ में आना बंद हो जाता है. इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि आप कहां पैदा होती हैं या आप समाज के किस वर्ग से संबंधित हैं. मुस्लिम महिलाओं पर लगाए जाने वाले नियम-कायदे दुनिया भर में हर जगह एक ही होते हैं.

वैसे इस बात में कोई दो राय नहीं कि भारत में मुस्लिम महिलाओं के लिए स्थिति तब भी बहुत बेहतर है. लेकिन फिर भी हमारे केस में संवैधानिक अधिकारों से ज्यादा धार्मिक आदेश हमारे जीवन को प्रभावित करते हैं. उदाहरण के लिए ट्रिपल तलाक की ही बात करते हैं. सदियों से चली आ रही इस पितृसत्तात्मक प्रथा में तीन बार तलाक शब्द कहकर कोई भी पुरूष अपनी पत्नी को तलाक दे सकता है. एक ओर जहां हमारी सरकार और न्यायपालिका इस अमानवीक प्रथा को खत्म करने के लिए एड़ी-चोटी का जोर लगा रही है तो दूसरी तरफ धार्मिक मौलवी इसके मूड में नहीं हैं.

या खुदा खैर कर

आखिर क्यूं? क्यूंकि शरिया लॉ की आड़ में महिलाओं को अपने पैरों तले दबाकर रखने का मौका चूक जाएंगे. दुनिया कहां से कहां पहुंच गई लेकिन मुस्लिम महिलाओं को अभी भी सम्मान के साथ जीने के अपने अधिकारों के लिए रोजाना लड़ाई लड़नी पड़ रही है. इसकी तस्दीक खुद रोजाना सामने आने वाले तलाक के मामले हैं.

दुर्भाग्य इस बात का है कि मुस्लिम महिलाओं के पास इस तरह के अपमानजनक रिवाजों से खुद को बचाने के लिए कोई विकल्प भी नहीं है. जैसे एक आदमी ट्रिपल तलाक का उपयोग कर अपनी पत्नी को कभी भी तलाक दे सकता है लेकिन किसी भी मुस्लिम महिला के पास इस तरह का कोई अधिकार नहीं है. लेकिन अधिकतर लोगों को ये बात पता नहीं कि 'खुला'...

पहले तो इस धरती पर लड़की होना ही अपनेआप में एक चैलेंजिंग टास्क है. लेकिन अगर कोई लड़की है और वो भी मुसलमान घर में पैदा हुई तब तो सोने पर सुहागा. इसके बाद तो जीवन में संघर्ष है या फिर संघर्ष ही जीवन है इसका फर्क ही समझ में आना बंद हो जाता है. इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि आप कहां पैदा होती हैं या आप समाज के किस वर्ग से संबंधित हैं. मुस्लिम महिलाओं पर लगाए जाने वाले नियम-कायदे दुनिया भर में हर जगह एक ही होते हैं.

वैसे इस बात में कोई दो राय नहीं कि भारत में मुस्लिम महिलाओं के लिए स्थिति तब भी बहुत बेहतर है. लेकिन फिर भी हमारे केस में संवैधानिक अधिकारों से ज्यादा धार्मिक आदेश हमारे जीवन को प्रभावित करते हैं. उदाहरण के लिए ट्रिपल तलाक की ही बात करते हैं. सदियों से चली आ रही इस पितृसत्तात्मक प्रथा में तीन बार तलाक शब्द कहकर कोई भी पुरूष अपनी पत्नी को तलाक दे सकता है. एक ओर जहां हमारी सरकार और न्यायपालिका इस अमानवीक प्रथा को खत्म करने के लिए एड़ी-चोटी का जोर लगा रही है तो दूसरी तरफ धार्मिक मौलवी इसके मूड में नहीं हैं.

या खुदा खैर कर

आखिर क्यूं? क्यूंकि शरिया लॉ की आड़ में महिलाओं को अपने पैरों तले दबाकर रखने का मौका चूक जाएंगे. दुनिया कहां से कहां पहुंच गई लेकिन मुस्लिम महिलाओं को अभी भी सम्मान के साथ जीने के अपने अधिकारों के लिए रोजाना लड़ाई लड़नी पड़ रही है. इसकी तस्दीक खुद रोजाना सामने आने वाले तलाक के मामले हैं.

दुर्भाग्य इस बात का है कि मुस्लिम महिलाओं के पास इस तरह के अपमानजनक रिवाजों से खुद को बचाने के लिए कोई विकल्प भी नहीं है. जैसे एक आदमी ट्रिपल तलाक का उपयोग कर अपनी पत्नी को कभी भी तलाक दे सकता है लेकिन किसी भी मुस्लिम महिला के पास इस तरह का कोई अधिकार नहीं है. लेकिन अधिकतर लोगों को ये बात पता नहीं कि 'खुला' मुस्लिम महिलाओं को अपने पति से अलग होने का अधिकार देता है. लेकिन इसके लिए पहले उसे अपने पति से आदेश लेना होगा और औरत को अपने गुजारा-भत्ते से भी हाथ धोना पड़ेगा.

मुस्लिम महिलाओं के दमन और उनके अपमान की पराकाष्ठा 'निकाह हलाला' की बात न करें ऐसा तो हो नहीं सकता. ये एक ऐसी घिनौनी प्रथा है जिसमें मुस्लिम महिला को किसी और से शादी और यौन संबंध बनाने के लिए मजबूर किया जाता है. और फिर उस महिला को अपने उस पति से तलाक होना होगा जिसके बाद वो अपने पहले पति के साथ वापस रह सकती है. अब आखिर 21वीं सदी में रहकर हम अभी भी ऐसी बेतुकी प्रथा का पालन कैसे कर सकते हैं?

अगर ट्रिपल तलाक जैसे घिनौनी प्रथा किसी शादीशुदा महिला को असहाय महसूस कराने के लिए काफी नहीं है तो रही-सही कसर मुस्लिम पुरुषों द्वारा चार शादी की इजाजत पूरी कर देते हैं. शरीयत में एक मुस्लिम व्यक्ति को चार शादियों की अनुमति है. सोने पर सुहागा ये कि इन चार शादियों के लिए ना तो उस व्यक्ति को तलाक लेने की जरुरत है ना ही अपनी पत्नियों से शादी की अनुमति लेने की. ये और बात है कि कुरान में ये बात साफ-साफ लिखी है कि व्यक्ति को अपनी हर पत्नी के साथ बराबरी का व्यवहार करना होगा लेकिन वास्तविकता में ऐसा शायद ही कभी होता है. अगर किसी महिला का पति एक से ज्यादा शादी करता हो तो महिला एक मूक दर्शक होने के अलावा कुछ नहीं कर सकती.

रास्ता कोई नहीं

दुनिया के बाकी मुस्लिम देशों में महिलाओं के लिए कोई बेहतर स्थिति नहीं है. ये बात किसी से छुपी नहीं है कि वे अपने यहां महिलाओं को दूसरे दर्जे का नागरिक मानते हैं. और ये सारा शोषण धर्म के नाम पर होता है.

सऊदी अरब में महिलाएं गाड़ी नहीं चला सकतीं, उनका सिर हर समय ढंका हुआ होना चाहिए और अपने घर के पुरुषों की इजाजत के बगैर वो देश के बाहर नहीं जा सकतीं. हां इस कानून को लागू करने में कोई भेदभाव नहीं किया जाता. महिला की उम्र चाहे कितनी भी हो उसे इन कानूनों का पालन करना ही होगा और ये कानून हर महिला पर लागू होता है.

चाहे ईरान हो, इराक, सीरिया या फिर अफगानिस्तान हर जगह महिलाओं की स्थिति कमोबेश एक सी ही है. महिलाओं को कोई स्वतंत्रता नहीं है, ना ही वो कोई भी काम स्वतंत्र रूप से कर सकती हैं. और जिसने भी कोशिश की उनको संस्कृति के ठेकेदारों की तरफ से सजा पाने का डर बना रहता है.

मुस्लिम दुनिया के अधिकांश हिस्सों में एक पुरुष और एक महिला के बीच सामान्य सी बातचीत भी पाप मानी जाती है. और इसके लिए कोड़े मारना और पत्थर मारने जैसी अमानवीय सजाएं भी मुकर्रर की गई हैं. मुस्लिम धर्मों के आला इस बात को पूरी तरीके से सुनिश्चित करते हैं कि महिलाएं और पुरूषों के बीच की दूरी को हर हाल में बनाए रखा जाए. यहां तक की मैराथन दौड़ते समय भी महिलाओं के लिए पुरुषों की नजरों से दूर इनडोर स्टेडियम की व्यवस्था की जाती है.

अगर आपको मजाक लग रहा है तो जान लीजिए कि इरान में सच में ऐसा किया गया है. पुरुष एथलीटों को हाफ पैंट में सामान्य तरीके से दौड़ने की इजाजत तो थी. लेकिन महिला एथलीटों को पुरुषों की आंखों से दूर इनडोर स्टेडियम में सीमित कर दिया गया था. इसमें हैरानी की कोई बात नहीं है कि ज्यादातर मुस्लिम देशों के लिए इस तरह के शोषण करने वाले नियम एक जुनून बन गए हैं. ये देश महिलाओं पर लगाम लगाने के लिए किसी भी हद तक जाने के लिए तैयार रहते हैं.

किसी भी देश, जगह या समय को उठा लें, हर समय, हर जगह मुस्लिम महिलाएं अपने तरीके के 'संस्कारों, नियमों और रीति-रिवाजों' के बोझ तले दबी होती हैं. कई बार इन संस्कारों का बोझ सांस लेने में भी तकलीफ करता है.

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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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