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वो जो बच्चियों से भी डर गए..

    • मोहम्मद शहजाद
    • Updated: 27 जनवरी, 2017 05:51 PM
  • 27 जनवरी, 2017 05:51 PM
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जब भी कोई मुस्लिम बेटी और बहन आगे बढ़ती नजर आती है तो उन्हें अपने कट्टरपंथ की दुकानें बंद होती दिखाई देती हैं और ये उनके खिलाफ फतवे और बयान जारी करने लगते हैं.

पाकिस्तान की मशहूर शायरा किश्वर नाहीद ने मलाला यूसुफजई पर एक कविता लिखी थी. उस कविता का शीर्षक है ‘वो जो बच्चियों से भी डर गए’. इसमें उन्होंने नोबेल इनाम-याफ्ता मलाला यूसुफजई पर दहशतगर्दाना हमले की पुरजोर अल्फाज में निंदा करने के साथ-साथ पाकिस्तानी बच्चियों की जमकर हौसलाअफ्जाई की थी. पाकिस्तानी समाज में जड़ जमा चुके महिला अधिकारों के हनन को जन्मसिद्ध अधिकार समझने वाले नजरिए के कारण उन्हें इस मुद्दे पर अपने कलम की स्याही को उंडेलने पर मजबूर होना पड़ा था. हमारे यहां भी एक तब्के से इस तरह की विचारधारा जब-तब सामने आती रहती है. हालिया मामला दंगल फिल्म में गीता फोगाट के बचपन का रोल करने वाली कश्मीरी लड़की जायरा वसीम का है.

सरहद के उस पार तो इस तरह के मामलों की एक लंबी तारीख है जो कभी मलाला यूसुफजई को आतंकियों के जरिए गोलियों से छलनी किए जाने तो कभी पश्तो गायिका गजाला जावेद की हत्या उसके अपने पति के द्वारा तो कभी मॉडल कंदील बलोच की हत्या अपने भाई के जरिए ही किए जाने के रूप में सामने आती रही हैं. अजीब बात ये है कि पाकिस्तान में ऐसी महिलाओं के हुनर को इस्लाम विरोधी ठहराने वाले स्वयंभू ठेकेदारों की एक बड़ी जमात है, जो उनकी हत्या करने तक के संगीन जुर्म को भी जायज ठहराते रहे हैं.

ये भी पढ़ें- गैंगरेप की शिकार ये महिला क्यों न हो रोल मॉडल !

गनीमत ये है कि हमारे यहां इस मानसिकता के लोग मुठ्ठीभर हैं. इनकी ये कुंठित विचारधारा कभी सानिया मिर्जा तो कभी क्रिकेटर मोहम्मद शामी की पत्नी के कपड़ों को देखकर जोर मारने लगती है....

पाकिस्तान की मशहूर शायरा किश्वर नाहीद ने मलाला यूसुफजई पर एक कविता लिखी थी. उस कविता का शीर्षक है ‘वो जो बच्चियों से भी डर गए’. इसमें उन्होंने नोबेल इनाम-याफ्ता मलाला यूसुफजई पर दहशतगर्दाना हमले की पुरजोर अल्फाज में निंदा करने के साथ-साथ पाकिस्तानी बच्चियों की जमकर हौसलाअफ्जाई की थी. पाकिस्तानी समाज में जड़ जमा चुके महिला अधिकारों के हनन को जन्मसिद्ध अधिकार समझने वाले नजरिए के कारण उन्हें इस मुद्दे पर अपने कलम की स्याही को उंडेलने पर मजबूर होना पड़ा था. हमारे यहां भी एक तब्के से इस तरह की विचारधारा जब-तब सामने आती रहती है. हालिया मामला दंगल फिल्म में गीता फोगाट के बचपन का रोल करने वाली कश्मीरी लड़की जायरा वसीम का है.

सरहद के उस पार तो इस तरह के मामलों की एक लंबी तारीख है जो कभी मलाला यूसुफजई को आतंकियों के जरिए गोलियों से छलनी किए जाने तो कभी पश्तो गायिका गजाला जावेद की हत्या उसके अपने पति के द्वारा तो कभी मॉडल कंदील बलोच की हत्या अपने भाई के जरिए ही किए जाने के रूप में सामने आती रही हैं. अजीब बात ये है कि पाकिस्तान में ऐसी महिलाओं के हुनर को इस्लाम विरोधी ठहराने वाले स्वयंभू ठेकेदारों की एक बड़ी जमात है, जो उनकी हत्या करने तक के संगीन जुर्म को भी जायज ठहराते रहे हैं.

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गनीमत ये है कि हमारे यहां इस मानसिकता के लोग मुठ्ठीभर हैं. इनकी ये कुंठित विचारधारा कभी सानिया मिर्जा तो कभी क्रिकेटर मोहम्मद शामी की पत्नी के कपड़ों को देखकर जोर मारने लगती है. अच्छी बात ये है कि जितनी आवाजें इनके विरोध में सामने आती हैं, उससे कहीं अधिक लोग इनके समर्थन में उठ खड़े होते हैं. इसमें अच्छी खासी तादाद स्वयं उलेमाएक्राम के साथ-साथ इस्लामिक जानकारों और मुस्लिम बुद्धिजीवियों की होती है. यही वजह है कि इस तरह की विचारधारा और उसके मानने वालों को बहुत ज्यादा बल नहीं मिलता है.

ऐसे लोग आज भी मशहूर शायर और जावेद अख्तर के मामू असरारुल हक मजाज़ की उन पंक्तियों का समर्थन करते नजर आते हैं, जिसमें वह औरत के माथे पर आंचल को बहुत खूब तो बता रहे हैं लेकिन वो इसे परचम बना देने की सलाह देते नजर आते हैं. वहीं ऐसे मुस्लिम परिवारों की भी कमी नहीं है जो इस दकियानूसी विचारधारा की परवाह किए बिना अपनी बच्चियों को वैसा ही सबक और हिम्मत देकर खुद आगे बढ़ाते नजर आते हैं जैसे कभी कैफी आजमी ने ‘औरत’ नाम की नज्म लिखकर अपनी पत्नी शौकत कैफी और बेटी शबाना आजमी को प्रेरणा दी थी. इस कविता में वह ‘उठ मेरी जान! मेरे साथ ही चलना है तुझे’ जैसी पंक्तियों के जरिए औरतों को मर्दों के साथ-साथ कंधे से कंधा मिलाकर चलने की सलाह देते नजर आते हैं.

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दरअसल हमारे अपने मुल्क में ये कुत्सित मानसिकता भी सऊदी अरब के नज्द प्रांत से उठी उसी कट्टर वहाबी विचारधारा और पाकिस्तान के सिरफिरे जेहादियों से आयातित है, जो महिलाओं को घरों की चार-दीवारी तक सीमित कर देने में यकीन रखती है. जब भी कोई मुस्लिम बेटी और बहन इस तरह के मैदान सर करती नजर आती है तो उन्हें अपने कट्टरपंथ की दुकानें बंद होती दिखाई देती हैं और ये उनके खिलाफ फतवे और बयान जारी करने लगते हैं. असल में ऐसे लोगों को लड़कियों के कपड़ों से नहीं बल्कि उनके घरों से बाहर निकलने, पढ़ने-लिखने और किसी भी क्षेत्र में करियर बनाने तक से ऐतराज होता है. उनके बढ़ते कदमों को हर बार इस्लाम विरोधी बताकर रोकने की कोशिश की जाती है.

ऐसे लोग ये भूल जाते हैं कि स्वयं पैगम्बर मोहम्मद ने अपने से उम्र में कई वर्ष बड़ीं जिन हजरत खदीजा नामी महिला से शादी की वो अपने जमाने की बड़ी और मशहूर व्यवसायी थीं. अगर उन्हें महिलाओं के आगे बढ़ने से ऐतराज होता तो स्वयं हजरत खदीजा को तिजारत के लिए मना कर देते. यही नहीं सूफी-संतों में एक बड़ा नाम हजरत राबिया बसरी का है जिनके महिला होने पर किसी आलिम-फाजिल ने उनकी सूफियाना सलाहियतों और फल्सफे को मानने से इंकार नहीं किया.

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ऐसी भ्रमित विचारधारा का पालन करने वाले हमारे देश में कुछ लोग हैं. फिर कश्मीर तो वैसे ही आतंक प्रभावित क्षेत्र है जहां सरहद उस पार बैठे अलगाववादियों के आका चरमपंथ और कट्टरपंथ को हवा देकर अपना उल्लू सीधा करने की फिराक में रहते हैं. ऐसे में जब भी कोई जायरा वसीम अपने हुनर के जरिए या फिर शाह फैसल और अतहर आमिरुल शफी जैसे लोग अपनी मेहनत से सिविल सर्विसेज के टॉपरों में चयनित होते हैं, तो ये कश्मीरी नौजवानों के जज्बे में एक नई रूह फूंकते हैं और उनके दिल में अपना भविष्य संवारने की मौजों में और लहर पैदा कर देते हैं. इससे कट्टरपंथियों को अपनी जमीन दरकती हुई नजर आती है. चूंकि ये जंग सोशल मीडिया पर छिड़ी है, इसलिए मुस्लिम बुद्धिजीवियों को भी आगे आकर इसी माध्यम से ऐसी विचारधारा को कुचलना होगा और फिर से मजाज़ एवं कैफी के खुले विचारों को आम करना होगा.

इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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