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समाज

खून-ए-दिल में डूबो ली हैं उंगलियां मैंने

    • अल्‍पयू सिंह
    • Updated: 02 सितम्बर, 2015 06:10 PM
  • 02 सितम्बर, 2015 06:10 PM
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कट्टरपंथ की आक्रामकता तले डॉ. कलबर्गी जैसी बेबाक आवाज़ें हमेशा के लिए दम तोड़ रही हैं. सोचने, बोलने और अभिव्यक्त करने की आज़ादी पर धीरे-धीरे लेकिन बेहद निर्मम प्रहार हो रहे हैं.

पिछले साल जून में डॉ कलबर्गी के धारावाड़ वाले घर पर पत्थर फेंकने और जान से मारने की धमकी देने की घटना के बाद उन्हें पुलिस सुरक्षा दी गई. जिसे डॉ कलबर्गी ने ये कुछ ही महीनों में हटवा लिया जब उनसे इसकी वजह पूछी गई तो उन्होंने कहा ''रोज़ाना दर्जनों छात्र अपने कई सारे सवाल लेकर मिलने आते हैं इस उम्मीद में कि इस घर में उन्हें सवालों के जवाब तलाशने में मदद मिलेगी... ऐसे में पुलिस सुरक्षा का तामझाम उनके लिए दिक्कतें पैदा करता है जो मुझे मंजूर नहीं''.  लिहाज़ा सुरक्षा हटा ली गई.
 
मौत जिस दिन हमलावरों की शक्ल में उनके दरवाज़े पर दस्तक दे रही थी उस वक्त भी शायद डॉ कलबर्गी ने ये ही सोचकर दरवाज़ा खोला हो कि शायद कोई युवा मन अपने सवालों के साथ दरवाज़ा खटखटा रहा है, आखिरकार वो ज़िंदगी भर यही काम तो करते रहे, खुली सोच और तर्क भरी मानसिकता की खिड़कियां खोलते रहे. लेकिन उन्हें न मालूम था कि कोई बेहद शिद्दत से उस दरवाज़े को बंद करना चाहता है जिसके पार तर्क और प्रगतिशील विचारों की रोशनी थी. कट्टरपंथ ने वो दरवाज़ा हमेशा के लिए बंद कर दिया.

कट्टरपंथ की आक्रामकता तले डॉ कलबर्गी जैसी बेबाक आवाज़ें हमेशा के दम तोड़ रही हैं. सोचने, बोलने और अभिव्यक्त करने की आज़ादी पर धीरे-धीरे लेकिन बेहद निर्मम प्रहार हो रहे हैं. इस सिलसिले की पहली आहट जुलाई 2012 में पत्रकार लिंगन्ना सत्यमपत्ते की हत्या के बाद ही सुनी जा सकती थी. लिंगायत मठों के आलोचक रहे लिंगन्ना का शव गुलबर्गा में अर्धनग्न अवस्था में मिला था. तब इसी तरह की सगुबुगहाटें हुई थी जैसी आज हो रही हैं.

आज़ाद आवाजों की खामोश कड़ी में नरेंद्र दभोलकर और गोविंद पानसरे का भी नाम है, ये सारे लोग समाज में जड़ता और कट्टरपंथ के खिलाफ़ आवाज़ उठा रहे थे. हत्याएं इसलिए ज्यादा डरावनी हैं क्योंकि ये विचारों की गली के दिन-ब-दिन और संकरी होने की ओर इशारा कर रही हैं. इस गली में सहमति और असहमति दोनों साथ-साथ आ जा नहीं सकते... समाज में हर तरह के विचारों और मुख्तलिफ आवाज़ों के लिए सम्मान भरी असहमति वाला...

पिछले साल जून में डॉ कलबर्गी के धारावाड़ वाले घर पर पत्थर फेंकने और जान से मारने की धमकी देने की घटना के बाद उन्हें पुलिस सुरक्षा दी गई. जिसे डॉ कलबर्गी ने ये कुछ ही महीनों में हटवा लिया जब उनसे इसकी वजह पूछी गई तो उन्होंने कहा ''रोज़ाना दर्जनों छात्र अपने कई सारे सवाल लेकर मिलने आते हैं इस उम्मीद में कि इस घर में उन्हें सवालों के जवाब तलाशने में मदद मिलेगी... ऐसे में पुलिस सुरक्षा का तामझाम उनके लिए दिक्कतें पैदा करता है जो मुझे मंजूर नहीं''.  लिहाज़ा सुरक्षा हटा ली गई.
 
मौत जिस दिन हमलावरों की शक्ल में उनके दरवाज़े पर दस्तक दे रही थी उस वक्त भी शायद डॉ कलबर्गी ने ये ही सोचकर दरवाज़ा खोला हो कि शायद कोई युवा मन अपने सवालों के साथ दरवाज़ा खटखटा रहा है, आखिरकार वो ज़िंदगी भर यही काम तो करते रहे, खुली सोच और तर्क भरी मानसिकता की खिड़कियां खोलते रहे. लेकिन उन्हें न मालूम था कि कोई बेहद शिद्दत से उस दरवाज़े को बंद करना चाहता है जिसके पार तर्क और प्रगतिशील विचारों की रोशनी थी. कट्टरपंथ ने वो दरवाज़ा हमेशा के लिए बंद कर दिया.

कट्टरपंथ की आक्रामकता तले डॉ कलबर्गी जैसी बेबाक आवाज़ें हमेशा के दम तोड़ रही हैं. सोचने, बोलने और अभिव्यक्त करने की आज़ादी पर धीरे-धीरे लेकिन बेहद निर्मम प्रहार हो रहे हैं. इस सिलसिले की पहली आहट जुलाई 2012 में पत्रकार लिंगन्ना सत्यमपत्ते की हत्या के बाद ही सुनी जा सकती थी. लिंगायत मठों के आलोचक रहे लिंगन्ना का शव गुलबर्गा में अर्धनग्न अवस्था में मिला था. तब इसी तरह की सगुबुगहाटें हुई थी जैसी आज हो रही हैं.

आज़ाद आवाजों की खामोश कड़ी में नरेंद्र दभोलकर और गोविंद पानसरे का भी नाम है, ये सारे लोग समाज में जड़ता और कट्टरपंथ के खिलाफ़ आवाज़ उठा रहे थे. हत्याएं इसलिए ज्यादा डरावनी हैं क्योंकि ये विचारों की गली के दिन-ब-दिन और संकरी होने की ओर इशारा कर रही हैं. इस गली में सहमति और असहमति दोनों साथ-साथ आ जा नहीं सकते... समाज में हर तरह के विचारों और मुख्तलिफ आवाज़ों के लिए सम्मान भरी असहमति वाला सहजीवन अब खतरे में है. तमिल साहित्यकार पेरुमल मुरुगन ने इसी संकरेपन को देख लिया था तभी सोशल मीडिया पर बतौर लेखक खुद की मौत का ऐलान कर दिया था.

ये मौतें बांग्लादेश के उन 4 ब्लॉगरों की हत्याओं की भी याद दिलाती हैं जिन्हें धर्मनिरपेक्षता से जुड़े लेख लिखने के लिए मौत के घाट उतार दिया गया. संदेश साफ़ जो पढ़ना चाहे पढ़ ले... वो ये कि या तो हमारे जैसे दिखो, बोलो, जियो या फिर जियो ही मत. जीने का, बोलने का, अभिव्यक्त करने का जो अधिकार संविधान ने इस देश के हर नागरिक को बतौर मौलिक अधिकार दिया है वो तब तक ही महफूज़ है जब तक कलम और ज़बान दोनों एक ही सुर में,  एक ही विचार का गान करें.

इस बात में कोई संशय नहीं कि कलबर्गी बेहद ही बेखौफ़ और बेबाक व्यक्तित्व के मालिक थे. ये भी सच है कि उनके समकालीन कई चिंतक और लेखक भी उनकी बातों से इत्तेफाक नहीं रखते थे. कट्टरपंथी ताकतों को उनकी इस थ्योरी पर बड़ी आपत्ति थी जिसके मुताबिक लिंगायत समुदाय हिंदू समुदाय से अलग है. क्योंकि भगवान बसेश्वरा ने वीरशैव की शुरुआत करते वक्त खुद को हिंदू धर्म की जाति प्रथा से अलग कर लिया था. इसी थ्योरी के बाद उन्हें कई कट्टरपंथी समूहों से धमकियां तक मिलीं थी. लेकिन इन कट्टरपंथी ताकतों को ये शायद ही मालूम हो कि कलबर्गी अपने विचारों पर जितने अडिग थे उतने ही दूसरे विचारों के प्रति खुलापन रखते थे. क्या उन्हें जान से मारने वाले, जान से मारने की धमकियां देने वाले लोगों को मालूम था कि धारवाड साहित्य सम्मेलन  में उन्होंने हिंदूवादी लेखकों को भी आमंत्रित किया था. कारण पूछने पर लोगों को उन्होने जवाब भी दिया - क्योंकि वो भी लेखक हैं और उनकी राय भी सुनना ज़रुरी है.

इस हत्याकांड के बाद बौद्धिक जगत में एक डर भरा सन्नाटा पसर गया है. प्रोफेसर केएस भगवान जैसे दूसरे ऐसे कई चिंतकों, लेखकों को पुलिस सुरक्षा दी जा रही हैं, जिन्हें अपने विचारों की वजह से धमकियां मिल चुकी हैं. हालांकि केएस भगवान ने कहा कि उन्हें डर नहीं लगता बस अफसोस है अपने नज़दीकी दोस्त कलबर्गी को खोने का. बावजूद इसके बेखौफ़ आवाज़ें सामाजिक विसंगतियों के खिलाफ़ फिज़ा में गूंजती रहेंगी. डॉ कलबर्गी के अंतिम संस्कार के वक्त भीड़ की मौजूदगी का खामोश गुस्सा इस बात की गवाही देते दिखा. ये सभी लोग दिखे उसी गली के दूसरे छोर पर जो असहमति के लिए दिन-ब-दिन संकरी होती जा रही है. फिज़ा जैसे फैज़ की इन पंक्तियों से रंगी थी...

मता-ए-लौह-ओ कलम छिन गई तो क्या गम है
कि खून ए दिल में डूबो ली हैं उंगलियां मैंने
ज़बा पे मोहर लगी है तो क्या कि रख दी है
हर एक हल्का -ए- जंजीर में ज़बां मैंने

इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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