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समाज

'अल्पसंख्यकवाद' से मुक्ति पर विचार किया जाना चाहिए!

    • डॉ. सौरभ मालवीय
    • Updated: 14 नवम्बर, 2022 01:34 PM
  • 14 नवम्बर, 2022 01:34 PM
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देश के संविधान में 'अल्पसंख्यक' शब्द की परिकल्पना धार्मिक, भाषाई एवं सांस्कृतिक रूप से भिन्न वर्गों के लिए की गई है. यह दुखद है कि कांग्रेस द्वारा इसका उपयोग अपने स्वार्थ के लिए किया गया, ताकि उसका वोट बैंक बना रहे. कांग्रेस द्वारा राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग अधिनियम- 1992 बनाया गया.

भारत एक विशाल देश है. यहां विभिन्न समुदाय के लोग निवास करते हैं. उनकी भिन्न-भिन्न संस्कृतियां हैं, परन्तु सबकी नागरिकता एक ही है. सब भारतीय हैं. कोई भी देश तभी उन्नति के शिखर पर पहुंचता है जब उसके निवासी उन्नति करते हैं. यदि कोई समुदाय मुख्यधारा के अन्य समुदायों से पिछड़ जाए, तो वह देश संपूर्ण रूप से उन्नति नहीं कर सकता. इसलिए आवश्यक है कि देश के सभी समुदाय उन्नति करें. आज देश में एक बार फिर से अल्पसंख्यक बनाम बहुसंख्यक का विषय चर्चा में है.

उल्लेखनीय है कि 'अल्पसंख्यक' का तात्पर्य केवल मुस्लिम समुदाय से नहीं है. देश के संविधान में 'अल्पसंख्यक' शब्द की परिकल्पना धार्मिक, भाषाई एवं सांस्कृतिक रूप से भिन्न वर्गों के लिए की गई है. यह दुखद है कि कांग्रेस द्वारा इसका उपयोग अपने स्वार्थ के लिए किया गया, ताकि उसका वोट बैंक बना रहे. कांग्रेस द्वारा राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग अधिनियम- 1992 बनाया गया. इसमें देश की मुख्यधारा से पृथक वंचित धार्मिक समुदायों की स्थिति के कारणों के मूल्यांकन की आवश्यकता पर बल दिया गया. इस अधिनियम के आधार पर मई 1993 में राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग का गठन किया गया.

किन्तु राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग अधिनियम-1992 में 'धार्मिक अल्पसंख्यक' की परिभाषा नहीं दी गई है. कौन सा समुदाय अल्पसंख्यक है, इसका निर्णय करने का सारा दायित्व केंद्र सरकार को सौंप दिया गया. इसके पश्चात कांग्रेस सरकार ने अक्टूबर 1993 में पांच धार्मिक समुदायों को अल्पसंख्यकों के रूप में अधिसूचित किया, जिसमें मुसलमान, ईसाई, सिख, बौद्ध एवं पारसी सम्मिलित हैं. इसके पश्चात जैन समुदाय द्वारा उसे भी अल्पसंख्यक का दर्जा दिए जाने की मांग की जाने लगी. तब सरकार ने राष्ट्रीय धार्मिक अधिनियम- 2014 में एक संशोधन करके जैन समुदाय को भी अल्पसंख्यकों की सूची में सम्मिलित कर दिया.

भारतीय...

भारत एक विशाल देश है. यहां विभिन्न समुदाय के लोग निवास करते हैं. उनकी भिन्न-भिन्न संस्कृतियां हैं, परन्तु सबकी नागरिकता एक ही है. सब भारतीय हैं. कोई भी देश तभी उन्नति के शिखर पर पहुंचता है जब उसके निवासी उन्नति करते हैं. यदि कोई समुदाय मुख्यधारा के अन्य समुदायों से पिछड़ जाए, तो वह देश संपूर्ण रूप से उन्नति नहीं कर सकता. इसलिए आवश्यक है कि देश के सभी समुदाय उन्नति करें. आज देश में एक बार फिर से अल्पसंख्यक बनाम बहुसंख्यक का विषय चर्चा में है.

उल्लेखनीय है कि 'अल्पसंख्यक' का तात्पर्य केवल मुस्लिम समुदाय से नहीं है. देश के संविधान में 'अल्पसंख्यक' शब्द की परिकल्पना धार्मिक, भाषाई एवं सांस्कृतिक रूप से भिन्न वर्गों के लिए की गई है. यह दुखद है कि कांग्रेस द्वारा इसका उपयोग अपने स्वार्थ के लिए किया गया, ताकि उसका वोट बैंक बना रहे. कांग्रेस द्वारा राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग अधिनियम- 1992 बनाया गया. इसमें देश की मुख्यधारा से पृथक वंचित धार्मिक समुदायों की स्थिति के कारणों के मूल्यांकन की आवश्यकता पर बल दिया गया. इस अधिनियम के आधार पर मई 1993 में राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग का गठन किया गया.

किन्तु राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग अधिनियम-1992 में 'धार्मिक अल्पसंख्यक' की परिभाषा नहीं दी गई है. कौन सा समुदाय अल्पसंख्यक है, इसका निर्णय करने का सारा दायित्व केंद्र सरकार को सौंप दिया गया. इसके पश्चात कांग्रेस सरकार ने अक्टूबर 1993 में पांच धार्मिक समुदायों को अल्पसंख्यकों के रूप में अधिसूचित किया, जिसमें मुसलमान, ईसाई, सिख, बौद्ध एवं पारसी सम्मिलित हैं. इसके पश्चात जैन समुदाय द्वारा उसे भी अल्पसंख्यक का दर्जा दिए जाने की मांग की जाने लगी. तब सरकार ने राष्ट्रीय धार्मिक अधिनियम- 2014 में एक संशोधन करके जैन समुदाय को भी अल्पसंख्यकों की सूची में सम्मिलित कर दिया.

भारतीय जनता पार्टी का सदैव से यह कहना रहा है कि कांग्रेस अल्पसंख्यकों के नाम पर 'मुस्लिम तुष्टिकरण' की राजनीति करती आई है. भाजपा ने अपने घोषणा पत्रों में भी यह प्रश्न उठाते हुए संकल्प लिया था कि वह ‘अल्पसंख्यक आयोग को समाप्त करके इसका दायित्व राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग को सौंपेगी. अब चूंकि केंद्र में भाजपा की सरकार है, तो यह विषय चर्चा में आ गया. उल्लेखनीय है कि वर्ष 1998 में भाजपा सत्ता में आई, उस समय इस संबंध में कुछ नहीं हुआ. कांग्रेस द्वारा गठित द्वितीय राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग को भी समाप्त करने की दिशा में कोई कार्य नहीं किया गया. वास्तव में वर्ष 2004 के पश्चात से भाजपा ने इस विषय पर ध्यान नहीं दिया, अपितु भाजपा ने 2014 के अपने घोषणा पत्र में कहा कि ‘स्वतंत्रता के इतने दशकों के पश्चात भी अल्पसंख्यकों का एक बड़ा वर्ग, विशेषकर मुस्लिम समुदाय निर्धनता में जकड़ा हुआ है.

भाजपा की इस बात के कई अर्थ निकाले जा सकते हैं. प्रथम यह कि भाजपा स्वीकार करती है कि देश की स्वतंत्रता के इतने वर्षों पश्चात भी मुसलमानों की स्थिति दयनीय है, जैसा कि सच्चर कमेटी की रिपोर्ट कहती है. द्वितीय यह है कि स्वतंत्रता के पश्चात देश में कांग्रेस का ही शासन रहा है तथा उसने मुसलमानों की दशा सुधारने के लिए कुछ नहीं किया तथा मुसलमान इस दयनीय स्थिति में पहुंच गए. इसका एक अर्थ यह भी है कि मुसलमानों की इस दयनीय स्थिति के लिए कांग्रेस उत्तरदायी है.

देश और राज्यों में अल्पसंख्यकों को लेकर बड़ी विडंबना की स्थिति है. कोई समुदाय राष्ट्रीय स्तर पर बहुसंख्यक है, तो किसी राज्य में अल्पसंख्यक है. इसी प्रकार कोई समुदाय राष्ट्रीय स्तर पर अल्पसंख्यक है, तो किसी राज्य में बहुसंख्यक है. इसी प्रकार कोई समुदाय एक राज्य में अल्पसंख्यक है तो किसी दूसरे राज्य में बहुसंख्यक है. उल्लेखनीय बात यह भी है कि सुप्रीम कोर्ट में राज्य स्तर पर हिंदुओं को अल्पसंख्यक घोषित करने की मांग वाली याचिकाएं भी दायर की गई हैं. इस संदर्भ में केंद्र सरकार ने अपनी राय देने के लिए समय मांगा है. इस संबंध में 14 राज्यों ने अपनी राय दे दी है, जबकि 19 राज्यों और केंद्र सरकार ने अभी तक अपनी राय नहीं दी है.

इस संबंध में सुप्रीम कोर्ट का क्या निर्णय आता है, यह तो समय के गर्भ में छिपा है, किन्तु इतना निश्चित है कि यह एक ज्वलंत विषय है. इससे देश का सामाजिक वातावरण प्रभावित होगा. इससे निपटने का एक सरल उपाय यह है कि देश को अल्पसंख्यक एवं बहुसंख्यक की राजनीति से मुक्ति दिलाई जाए. संविधान की दृष्टि में देश के सब नागरिक एक समान हैं. संविधान ने सबको समान रूप से अधिकार दिए हैं. संविधान ने किसी के साथ कोई भेदभाव नहीं किया है. इसलिए देश में समान नागरिक संहिता लगाई जाए. इससे बहुत से झगड़े स्वयं समाप्त हो जाएंगे. यदि देश के सभी वर्गों की एक समान उन्नति करनी है, तो उनके धर्म, पंथ या जाति के आधार पर नहीं, अपितु उनकी आर्थिक स्थिति के आधार पर नीतियां बनाने की आवश्यकता है. आर्थिक आधार पर बने नीतियों से उनका समग्र विकास हो पाएगा. ऐसा न होने पर देश अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक की राजनीति में उलझ कर रह जाएगा. ऐसी परिस्थियों में मूल समस्याओं से ध्यान भटक जाएगा, जिससे विकास कार्य प्रभावित होंगे.

प्रश्न है कि जब संविधान ने सबको समान अधिकार दिए हैं, तो धार्मिक आधार पर अल्पसंख्यक निर्धारित करने का क्या औचित्य है? वास्तव में निर्धनता का संबंध किसी धर्म, पंथ अथवा जाति से नहीं होता. इसका संबंध व्यक्ति की आर्थिक स्थिति से होता है. प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में देश निरंतर उन्नति के पथ पर अग्रसर है. मोदी सरकार द्वारा ‘सबका साथ, सबका विकास, सबका विश्वास‘ अभियान चलाया जा रहा है. सरकार ने कमजोर आय वर्ग के लोगों की आर्थिक स्थिति को सुधारने के लिए अनेक योजनाएं बनाई हैं, जिनका लाभ देश के निर्धन परिवारों को मिल रहा है. इन योजनाओं का यही उद्देश्य है कि देश के सभी निर्धन परिवारों की आर्थिक स्थिति सुदृढ़ हो. इस संबंध में किसी के साथ कोई भेदभाव नहीं किया जा रहा है.

यह कहना अनुचित नहीं है कि अल्पसंख्यकवाद से देश में सांप्रदायिकता को बढ़ावा मिलता है. अल्पसंख्यकों को प्राथमिकता देने से बहुसंख्यकों को लगता है कि उनके साथ भेदभाव किया जा रहा है. इसी भांति अल्पसंख्यक भी स्वयं को विशेष मानकर मुख्यधारा से पृथक हो जाते हैं. वे स्वयं को पृथक रखना चाहते हैं तथा वही पृथकता उनकी पहचान बन जाती है. इस मनोवृत्ति से उन्हें हानि होती है. वे देश की मुख्यधारा से पृथक होकर पिछड़ जाते हैं तथा उनका समान रूप से विकास नहीं हो पाता. अल्पसंख्यकवाद से भाईचारा भी प्रभावित होता है. सांप्रदायिकता देश के समग्र विकास के लिए बहुत बड़ी बाधा है. इसलिए देश को अल्पसंख्यकवाद बनाम बहुसंख्यकवाद की राजनीति से निकलना होगा. एक देश में एक ही विधान होना चाहिए. जब संविधान की दृष्टि में सब नागरिक समान हैं, तो उनके लिए सुविधाएं भी एक समान होनी चाहिए.

इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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