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उठो, लड़ो, रुखसाना! अभी तो सफर की इब्तेदा है...

    • मौसमी सिंह
    • Updated: 24 अगस्त, 2017 08:41 PM
  • 24 अगस्त, 2017 08:41 PM
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गलतफहमी में कोई न रहे ! ये मैच मुस्लिम महिलाओं ने स्टैंड में रह कर नहीं देखा, बल्कि फील्ड में जबरदस्त प्रदर्शन करके जीता है, फिर चाहे वो टीम की कप्तान शायरा बानो हों या फिर सोफिया.

सुबह प्लेन लखनऊ में लैंड ही किया था कि मेरे मन मे रुखसाना का ख्याल चला आया. सच तो ये है कि रुखसाना का ख्याल अक्सर चला आता था. रुखसाना थी ही ऐसी, कभी मुस्कराती, कभी बिलख-बिलख के रोती. हलाला के नर्क से गुजर के आई रुखसाना मुस्लिम समाज की वो तस्वीर थी जो 1400 साल से दफन थी. जिस तस्वीर को अपनाना तो दूर कोई देखना नहीं चाहता था. ये और बात है कि इस तस्वीर के पीछे हर गांव, शहर में न जाने कितनी रुखसाना यूं ही मजहब और प्रथा की आड़ में बेआबरू हो रही थीं.

कुछ देर के बाद मैं गोमती के तट पर बैठी रुख़साना का इंतजार कर रही थी. इंतजार तो देश को सुप्रीम कोर्ट के फैसले का भी था, थोड़ी देर में रिशा, रुबीना, ज़रीन, अस्मा, उस्मा, हाशमी, शबनम और हाजरा सब चले आए... पर रुखसाना नहीं आई.

( रुखसाना की पूरी कहानी पढ़ें: मानना ही पड़ेगा कि रुखसाना ही आज की द्रौपदी है )

कोर्ट के फैसले को लेकर रिशा घबराई हुई थी. रिशा के पति ने उसे गुस्से में तीन तलाक दे दिया था और दोबारा निकाह करके अपनी खुशहाल ज़िंदगी जी रहा था. रिशा बार-बार माथे से पसीने की बूंदें पोंछती, फिर नजरें चुराते हुए नदी के मैले पानी को देखने लगती. मैंने पूछा क्यों नर्वस हो रिशा? तो बोली 'मेरे साथ तो जो हुआ सो हुआ पर अब आगे कोई किसी के साथ ऐसा करने से पहले सौ बार सोचे...इसलिए इंसाफ जरूरी है, ना हुआ तो...' ये कह कर चुप हो गई, फिर नजरें गोमती के पानी पर टिक गईं. जो दूर से शीतल लगता है पर हकीकत में है जहर से भी ज़्यादा जहरीला.

उस उमस भरी गर्मी में हम सब एक साथ छोटे बच्चों की तरह फोन पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले की रनिंग कमेंट्री सुनते रहे. मानो कोई...

सुबह प्लेन लखनऊ में लैंड ही किया था कि मेरे मन मे रुखसाना का ख्याल चला आया. सच तो ये है कि रुखसाना का ख्याल अक्सर चला आता था. रुखसाना थी ही ऐसी, कभी मुस्कराती, कभी बिलख-बिलख के रोती. हलाला के नर्क से गुजर के आई रुखसाना मुस्लिम समाज की वो तस्वीर थी जो 1400 साल से दफन थी. जिस तस्वीर को अपनाना तो दूर कोई देखना नहीं चाहता था. ये और बात है कि इस तस्वीर के पीछे हर गांव, शहर में न जाने कितनी रुखसाना यूं ही मजहब और प्रथा की आड़ में बेआबरू हो रही थीं.

कुछ देर के बाद मैं गोमती के तट पर बैठी रुख़साना का इंतजार कर रही थी. इंतजार तो देश को सुप्रीम कोर्ट के फैसले का भी था, थोड़ी देर में रिशा, रुबीना, ज़रीन, अस्मा, उस्मा, हाशमी, शबनम और हाजरा सब चले आए... पर रुखसाना नहीं आई.

( रुखसाना की पूरी कहानी पढ़ें: मानना ही पड़ेगा कि रुखसाना ही आज की द्रौपदी है )

कोर्ट के फैसले को लेकर रिशा घबराई हुई थी. रिशा के पति ने उसे गुस्से में तीन तलाक दे दिया था और दोबारा निकाह करके अपनी खुशहाल ज़िंदगी जी रहा था. रिशा बार-बार माथे से पसीने की बूंदें पोंछती, फिर नजरें चुराते हुए नदी के मैले पानी को देखने लगती. मैंने पूछा क्यों नर्वस हो रिशा? तो बोली 'मेरे साथ तो जो हुआ सो हुआ पर अब आगे कोई किसी के साथ ऐसा करने से पहले सौ बार सोचे...इसलिए इंसाफ जरूरी है, ना हुआ तो...' ये कह कर चुप हो गई, फिर नजरें गोमती के पानी पर टिक गईं. जो दूर से शीतल लगता है पर हकीकत में है जहर से भी ज़्यादा जहरीला.

उस उमस भरी गर्मी में हम सब एक साथ छोटे बच्चों की तरह फोन पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले की रनिंग कमेंट्री सुनते रहे. मानो कोई रोमांचक क्रिकेट मैच चल रहा हो और हम सब यार मिल कर भारतीय टीम को जिताने में जुटे हों. ये वो वक़्त था जब इसी तरह घर-घर में, किचन में, कॉलेज के खाली क्लासरूम या हॉस्टल में, घर की छत पर, पीपल की छांव तले या खेतों के बीच छुपकर अम्मी, आपा, खाला, फूफी रेडियो और टीवी पर टकटकी लगाए बैठी थीं. ये लम्हा देश के इतिहास में वो लम्हा था जब क्षण भर के लिय समय का फ्रेम फ्रीज़ हो गया हो, वक्त ठहर सा गया हो. ठीक उसी तरह जिस तरह मैच बदलने वाले कैच के पहले खिलाड़ी का फ्रेम फ्रीज़ हो जाए. फिर क्या था सुप्रीम कोर्ट ने कैच पकड़ा और तालियां गोमती के तट से लेकर उस दूर दराज़ गांव तक गूंजी.

पर गलतफैहमी में कोई न रहे ! ये मैच मुस्लिम महिलाओं ने स्टैंड में रह कर नहीं देखा, बल्कि फील्ड में जबरदस्त प्रदर्शन करके जीता है, फिर चाहे वो टीम की कप्तान सायरा बानो हों या फिर सोफिया. सुबह दबी जुबान से बोल रही हाजरा की आवाज़ कोर्ट के फैसला आते आते साफ और मुखर हो गई. 'तलाक, तलाक, तलाक, खत्म, खत्म, खत्म और उन सब मर्दों के मुंह बंद, बंद, बंद...जो तलाक की धमकी देते हैं वो ये समझ लें हम बहुत चुप रहे...अब बस. हम किसी की पैर की जूती नहीं. अल्लाह ताला ने और कोर्ट ने रहमत की बारिश जो कर दी'. हाजरा की आंखों में जुनून सा था, देखते ही देखते वहां मौजूद हर कोई जोश से भर गया.

रुबीना आसमान की ओर देख दुआ करने लगी. 'अब हम देखते हैं कि हमारे शौहर दूसरी शादी कैसे करते हैं. हम ये होने नहीं देंगे, हमें तीन तलाक देकर वो निकाह करने चले हैं. मैं अब घर जाकर अपना हक मांगूंगी.' भले रुबीना के शौहर मौलवी की निगाहों में उसके शौहर ना हो, भले वो ससुराल से बेदखल कर दी गई हो, भले कोर्ट का फैसला उस ओर अमल ना हो पर रुबीना की आवाज बुलंद थी. मानो कह रही हो 'हज़ार बर्क़ गिरे, लाख आंधियां उट्ठें वो फूल खिल के रहेंगे जो खिलने वाले हैं'. मगर साहिर लुधियानवी का ये शेर एक दिन रुबीना जैसी लाखों महिलाओं के हौसले का बखान करेगा इसकी कल्पना धर्म के ठेकेदारों ने नहीं की थी. आज रुबीना की मुस्कान सिर्फ खुद के लिए नहीं औरों के लिए है. यही वजह है कि उसका यूं जशन मनाना फतवों के आकाओं के लिए नागवार है.

दरअसल दशकों से तीन तलाक को अल्लाह का कानून कह कर इसको चुनौती देनेवालों को इस्लाम का गुनाहगार बताया गया. लेकिन देश की सर्वोच्च अदालत ने शरीयत की दुहाई देकर इस अमानवीय प्रथा को कारोबार बनानेवालों की बोलती बंद कर दी है. पर कुछ मौलवी और मौलाना के हलख से इंसाफ का ये 'कड़वा घूट' कहां उतरने वाला? पत्थर तो मुस्लिम समाज की महिलाओं ने तबियत से उछाला है और देखिये क्या सुराख हुआ!

खैर एक सुनहरी सुबह की उम्मीद के साथ वो ऐतिहासिक दिन की शाम ढल रही थी. मौसम और मिजाज़ खुशनुमा था, जलेबी और जशन भी खत्म ही था. टीवी पर लाइव टेलिकास्ट खत्म हुआ तो मैंने रिशा से पूछा कि रुखसाना आज क्यों नहीं आई? रिशा के चेहरे पर उदासी थी. एक अजीब सा डर मेरे मन में आया. रुखसाना का पति उस पर बहुत ज़ुल्म करता था. पहले उसे तीन तलाक दिया, फिर हलाला करवाया और फिर निकाह करके रोजाना तीन तलाक देने की धमकी देता था. उसी दौरान रुखसाना जान बचाकर अपनी मां के पास चली आई थी. उसके पति ने कई बार उसे जान से मारने की कोशिश की थी.

सवाल के जवाब में रिशा झिझकते हुए बोली 'वो तो वापस अपने ससुराल चली गई, वो बहुत गरीब है, उसकी अब्बू तो हैं नहीं और मां दूसरों के घर में बर्तन मांजती है, उसके तीन बच्चे भी हैं सो वो वापस चली गई. कुछ दिन पहले उसका फोन आया था उसके शौहर ने उसे फिर मारा था और वो अस्पताल में भर्ती थी.'

रुखसाना, आपका मुझे इंतज़ार रहेगा. जब सायरा बानो उठ सकती है और अपने साथ हुई ज़्यादती के लिए लड़ सकती हैं, तो आप क्यों नहीं? तीन तलाक हो, हलाला हो या मुता निकाह जैसी कुरीतियां, इनके खिलाफ जंग सिर्फ आपकी अकेली नहीं बल्कि आपके बच्चों के भाविष्य के लिये भी बेहद जरूरी है.

मशहूर शायर एजाज़ रहमानी साहब की कलम से कहें तो रुखसाना,

'अभी से पाँव के छाले न देखो...अभी यारों सफर की इब्तिदा है'

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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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