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मुट्ठी भर गांधी विरोधी बहुसंख्य समर्थकों को चिढ़ा रहे हैं

    • वेंकटेश
    • Updated: 02 अक्टूबर, 2017 04:46 PM
  • 02 अक्टूबर, 2017 04:46 PM
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इस बात से कोई इंकार नहीं कर सकता कि गांधी को चाहने वाले उन्हें नकारने वालों के मुकाबले संख्या में कई गुना ज्यादा हैं. फिर भी कुछ लोग राष्ट्रपिता के बारे में अनाप-शनाप लिख-बोल रहे हैं और गांधी को मानने वाले चुप हैं.

महात्मा गांधी भारत के सबसे बड़े ब्रांड हैं. राष्ट्रपिता की जयंती राष्ट्रीय उत्सव है. 15 अगस्त और 26 जनवरी के बाद 2 अक्टूबर को ही सबसे ज्यादा सरकारी कार्यक्रमों की शुरुआत होती है. साल 2017 भी अलग नहीं है. प्रधानमंत्री मोदी के महत्वाकांक्षी ‘स्वच्छता ही सेवा’ कार्यक्रम को 2 अक्टूबर से जोड़ा गया है. शहर-शहर रैलियां हो रही हैं. सफाई और स्वच्छता कार्यक्रम हो रहे हैं. दो साल बाद गांधीजी के जन्म के 150 साल पूरे हो रहे हैं और उसे बड़े पैमाने पर सेलिब्रेट करने की सरकारी योजना का एलान हो चुका है. लेकिन क्या गांधीजी को सब लोग उतना ही सम्मान दे रहे हैं, जितना ऊपर-ऊपर दिख रहा है? या गांधी के देश में उनका हत्यारा नाथूराम गोडसे भी पूजा जाने लगा है?

यदि आप सोशल मीडिया के किसी माध्यम से जुड़े हैं तो गांधी और गोडसे से जुड़े संदेशों से आपका वास्ता जरूर पड़ा होगा. खास तौर पर वॉट्सऐप और फेसबुक जैसे माध्यमों पर ऐसे मैसेज कॉमन होने लगे हैं. पसंद हो तो शेयर अवश्य करो; असली हिंदू हो तो सबको भेजो; कायर नहीं हो तो फॉरवर्ड करो; हिंदू मां की कोख से पैदा हुए तो फॉरवर्ड जरूर करो; इन जैसे भड़काऊ संदेशों के साथ आने वाली कविताओं और अधकचरे इतिहास मिले संदेशों में एक बात कॉमन होती है. वह यह कि भारत में अब तक बहुसंख्यक हिंदुओं के साथ अत्याचार हुआ है. कांग्रेस और दूसरे तमाम राजनीतिक दल इस देश में मुसलमानों के लिए काम करते हैं. यहां तक कि गांधीजी का दिल भी मुसलमानों के लिए धड़कता था और अगर एक 'सच्चे हिंदू' नाथूराम गोडसे ने गांधी की हत्या ना कर दी होती तो हिंदुस्तान के लोग काशी पूजने की जगह काबा में नमाज पढ़ रहे होते.

गांधी की वजह से पाकिस्तान बना!

गोडसे को हीरो बनाने वाले कौन हैं?

पढ़ने वाला विश्वास करे या न करे, इन संदेशों में...

महात्मा गांधी भारत के सबसे बड़े ब्रांड हैं. राष्ट्रपिता की जयंती राष्ट्रीय उत्सव है. 15 अगस्त और 26 जनवरी के बाद 2 अक्टूबर को ही सबसे ज्यादा सरकारी कार्यक्रमों की शुरुआत होती है. साल 2017 भी अलग नहीं है. प्रधानमंत्री मोदी के महत्वाकांक्षी ‘स्वच्छता ही सेवा’ कार्यक्रम को 2 अक्टूबर से जोड़ा गया है. शहर-शहर रैलियां हो रही हैं. सफाई और स्वच्छता कार्यक्रम हो रहे हैं. दो साल बाद गांधीजी के जन्म के 150 साल पूरे हो रहे हैं और उसे बड़े पैमाने पर सेलिब्रेट करने की सरकारी योजना का एलान हो चुका है. लेकिन क्या गांधीजी को सब लोग उतना ही सम्मान दे रहे हैं, जितना ऊपर-ऊपर दिख रहा है? या गांधी के देश में उनका हत्यारा नाथूराम गोडसे भी पूजा जाने लगा है?

यदि आप सोशल मीडिया के किसी माध्यम से जुड़े हैं तो गांधी और गोडसे से जुड़े संदेशों से आपका वास्ता जरूर पड़ा होगा. खास तौर पर वॉट्सऐप और फेसबुक जैसे माध्यमों पर ऐसे मैसेज कॉमन होने लगे हैं. पसंद हो तो शेयर अवश्य करो; असली हिंदू हो तो सबको भेजो; कायर नहीं हो तो फॉरवर्ड करो; हिंदू मां की कोख से पैदा हुए तो फॉरवर्ड जरूर करो; इन जैसे भड़काऊ संदेशों के साथ आने वाली कविताओं और अधकचरे इतिहास मिले संदेशों में एक बात कॉमन होती है. वह यह कि भारत में अब तक बहुसंख्यक हिंदुओं के साथ अत्याचार हुआ है. कांग्रेस और दूसरे तमाम राजनीतिक दल इस देश में मुसलमानों के लिए काम करते हैं. यहां तक कि गांधीजी का दिल भी मुसलमानों के लिए धड़कता था और अगर एक 'सच्चे हिंदू' नाथूराम गोडसे ने गांधी की हत्या ना कर दी होती तो हिंदुस्तान के लोग काशी पूजने की जगह काबा में नमाज पढ़ रहे होते.

गांधी की वजह से पाकिस्तान बना!

गोडसे को हीरो बनाने वाले कौन हैं?

पढ़ने वाला विश्वास करे या न करे, इन संदेशों में कहानी बनाकर यह बताने की पुरजोर कोशिश की जाती है कि नाथूराम गोडसे ने गांधी को मारकर हिंदुओं पर बड़ा उपकार किया. दावा किया जाता है कि देश बंटवारे के बाद गांधीजी पाकिस्तान को ज्यादा जमीन देना चाहते थे. पाकिस्तान को देश का पूरा खजाना दे देना चाहते थे और हिंदुस्तान की सेना के तोप-गोले भी पाकिस्तान को दे देना चाहते थे. यह भी दावा किया जाता है कि गांधीजी कौरवों की तरफ से लड़ने वाले भीष्म पितामह जैसे हो गए थे और पाकिस्तान की ओर से हिदुस्तान से लड़ रहे थे.

सोशल मीडिया पर इसी तरह के कुछ दूसरे मैसेज भी आते हैं, जिनमें यह बताया पूछा जाता है कि अगर गांधीजी ने ही आजादी दिलाई तो भगत सिंह और चंद्रशेखर आजाद ने क्या किया? नेताजी सुभाष चंद्र बोस किसके लिए लड़े?

ये पोस्ट कौन भेजते हैं? वे कोई अनजान लोग नहीं हैं. संभव है कि आप उनमें से बहुतों को व्यक्तिगत रूप से जानते हों. कोई आपके मुहल्ले में रहता होगा. कोई आपके स्कूल, कॉलेज का सहपाठी हो सकता है. कोई आपके शहर का हो सकता है. कोई आपके दफ्तर का हो सकता है. लेकिन वे इन संदेशों के क्रिएटर नहीं हैं. वो सिर्फ फॉरवर्ड करने वाले हैं. वे उस प्रचार तंत्र के संदेशवाहक हैं जिनके बारे में वे खुद नहीं जानते कि वे किसका संदेश फैला रहे हैं और उसका मकसद क्या है.

सोशल मीडिया पर ऐसे पोस्ट करने वालों के प्रोफाइल और उनकी टाइमलाइन में झांकें तो कुछ बातें साफ हो जाती हैं. एक तो ये कि वे अलग-अलग व्यवसायों से जुड़े लोग हैं. कोई अपनी दुकान चलाता है, कोई नौकरी करता है, कोई छात्र है, कोई रिटायर है और किसी का पार्टटाइम जॉब है. लेकिन उनकी कुछ बातें कॉमन हैं. सभी हिंदू धर्म के स्वयंभू संरक्षक हैं और अपनी टाइमलाइन पर ऐसे पोस्ट जरूर शेयर करते हैं जिनमें भारत को हिंदू राष्ट्र बनाने, मुसलमानों-ईसाइयों को देश से बाहर करने और एक सच्चे हिंदू प्रधानमंत्री के हाथों में ही देश के सुरक्षित होने की बात होती है. आई एम फॉर मोदी, मोदी फॉर इंडिया, वी सपोर्ट नरेंद्र मोदी, नेशनलिस्ट इंडियन, राष्ट्रवादी हिंदू... ये सब कुछ ऐसे पेज हैं, जहां के पोस्ट शेयर करना ये नहीं भूलते.

गोडसे को सच्चा हिंदू बनाने वाले हमारे बीच के ही लोग हैं

प्रधानमंत्री मोदी के गांधी

यह पक्के तौर पर नहीं कहा जा सकता कि महात्मा गांधी के हत्यारे नाथूराम गोडसे की तारीफ करने वाला हर व्यक्ति सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी का मेंबर है या राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का स्वयंसेवक है. वजह स्वयं प्रधानमंत्री मोदी हैं, जो राष्ट्रपिता के प्रति अगाध श्रद्धा दिखाने में कभी परहेज नहीं करते. मोहनदास करमचंद गांधी दुनिया भर में भारत की यूएसपी हैं. प्रधानमंत्री मोदी भी जानते हैं कि गांधी के नाम पर उन्हें जितना समर्थन मिल सकता है, उतना किसी और के नाम पर नहीं. इसलिए अपने प्रधानमंत्रित्व के पहले वर्ष से ही वे गांधी के करीब दिखने लगे थे. 15 अगस्त 2014 को लालकिले की प्राचीर से अपने पहले भाषण में मोदी ने स्वच्छता मिशन शुरू करने का एलान किया और 2 अक्टूबर 2014 को उसकी शुरुआत भी कर दी. उसी साल न्यूयॉर्क के मैडिसन स्क्वायर गार्डन के अपने ऐतिहासिक कार्यक्रम में भी मोदी ने सबसे ज्यादा वक्त गांधी को ही दिया. प्रधानमंत्री मोदी अहमदाबाद में बापू के साबरमती आश्रम में विश्व नेताओं की अगवानी करते हैं. चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग और जापान के प्रधानमंत्री शिंजो अबे को वे गांधी की स्मृतियों से वाकिफ करा चुके हैं.

आखिर माजरा क्या है?

1974 में जर्मनी के पॉलिटिकल साइंस के दो प्रोफेसरों- एलिजाबेथ नोएल और न्यूमैन ने एक थ्योरी दी थी. पॉलिटिकल साइंस और मास कम्युनिकेशन में इस थ्योरी को ‘स्पाइरल ऑफ साइलेंस थ्योरी’ के नाम से जाना जाता है. यह थ्योरी कहती है कि राजनीतिक संदेशों में कई बार मैसेज भेजने वाले और मैसेज प्राप्त करने वालों के विचार अलग होते हैं. आक्रामक प्रचार करने वाले संख्या में कम होते हैं, लेकिन उनके मैसेज की कारपेट बॉम्बिंग ऐसी होती है कि बहुसंख्यक लोग उनकी राय से सहमत न होते हुए भी चुप रह जाते हैं. उन्हें इस बात का डर लगने लगता है कि वो कम संख्या में हैं और अगर उन्होंने अपनी राय जाहिर की तो बहुसंख्यक लोग उन्हें नकार देंगे. धीरे-धीरे लोग चुप रहने लगते हैं और पब्लिक स्पेस में वह विचार हावी होने लगता है, जिसे मुट्ठी भर लोग प्रसारित कर रहे होते हैं.

तो क्या गांधी और गोडसे के बारे में भी ऐसा ही हो रहा है? ऐसा संभव हो सकता है. इस बात से कोई इंकार नहीं कर सकता कि गांधी को चाहने वाले उन्हें नकारने वालों के मुकाबले संख्या में कई गुना ज्यादा हैं. फिर भी कुछ लोग राष्ट्रपिता के बारे में अनाप-शनाप लिख-बोल रहे हैं और गांधी को मानने वाले चुप हैं. यह स्थिति ‘स्पाइरल ऑफ साइलेंस थ्योरी’ के सच होने की पुष्टि करता है.

इसका परिणाम यही होगा कि गांधी विरोधियों के विचार पब्लिक स्पेस में हावी हो जाएंगे और गांधी को चाहने वाले कुछ बोलने से भी डरने लगेंगे. वह ऐसी स्थिति होगी, जिसके बारे में अभी सोचने से भी डर लगता है. लेकिन सच यही है कि अभी डरेंगे तो आगे बोल नहीं पाएंगे.

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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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