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फैमिनिज़्म के असली मायने नॉर्वे से समझिए

    • प्रवीण झा
    • Updated: 07 जुलाई, 2017 02:00 PM
  • 07 जुलाई, 2017 02:00 PM
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आमतौर पर भारतीय फेसबुक पर फेमिनिज्म का मतलब नजर आता है जब महिलाएं बोल्ड होकर 'सेक्स' की, 'पीरियड' की, अंतर्वस्त्रों की, शराब की, बात करें, शोभा डे टाइप लिखें.

फेमिनिज्म क्या है, मुझे खास नहीं पता. नॉर्वे और आस-पास के तीन देश मिलाकर दशकों से 'जेंडर इक्वलाटी' में टॉप पर हैं. मैं अक्सर महिला मित्रों से, रेस्तरां में, पार्टी स्थलों में पूछता रहता हूं कि कैसे हुआ? वो भी भारत की तफ्तीश करती रहती हैं.

आमतौर पर भारतीय फेसबुक पर फेमिनिज्म का मतलब नजर आता है जब महिलाएं बोल्ड होकर 'सेक्स' की, 'पीरियड' की, अंतर्वस्त्रों की, शराब की, बात करें, शोभा डे टाइप लिखें. मैनें नॉर्वे के सभी महिला मित्रों के फेसबुक छान मारे, ऐसा कुछ नहीं मिला. उनका फेमिनिज्म यह नहीं है. आप कहेंगें वह पहले से खुली हुई हैं. तीन दशक पहले यहां भी फुल-टाइम गृहणियां होती थीं, उससे कई दशक पहले उनके वोटिंग राइट भी नहीं थे. यहां भी महिला दबी ही हुई थी. फिर क्या हुआ? कैसे हुआ? क्या सब खुलकर 'सेक्स' की बात करने लगी और सब समान हो गया? नहीं.

यहां महिलाओं ने 'समान वेतन' के लिए आंदोलन किया. उन्होनें सामूहिक महिला आरक्षण की मांग नहीं की पर यह कहा कि कंपनी के टॉप बोर्ड में 33 प्रतिशत महिलाएं रहें. जैसे 7 लोगों में 2-4 महिलाएं. यह हक उन्हें मिला. महिलाएं राजनीति में आईं. और 'ऐटीच्यूड' परिवर्तन यानी युगल में पहाड़ों पर पुरूषों से आगे चलना, उनकी दया न स्वीकारना, उनसे तोहफे न लेना बल्कि उन्हें देना, बिल उन्हें न भरने देना इत्यादि. यह आज भी चल रहा है.

फेमिनिस्ट वो है जो 'समान वेतन' की बात करे, प्रतिनिधित्व की बात करे

रही बात 'सेक्स' इत्यादि की बोल्डनेस की, तो वह महिलाओं की समस्या है ही नहीं. एक पॉलिश महिला, एक अफ्रीकन महिला और एक भारतीय महिला जब मिले तो सिर्फ पॉलिश ने कहा कि वो इसके बिना नहीं रह सकती. बाकी दो संस्कृतियों में यह 'करो या मरो' वाला मामला है ही नहीं. उसमें स्त्री-पुरूष दोनों का एक ही नजरिया है. इसका झंडा ऊंचा करना...

फेमिनिज्म क्या है, मुझे खास नहीं पता. नॉर्वे और आस-पास के तीन देश मिलाकर दशकों से 'जेंडर इक्वलाटी' में टॉप पर हैं. मैं अक्सर महिला मित्रों से, रेस्तरां में, पार्टी स्थलों में पूछता रहता हूं कि कैसे हुआ? वो भी भारत की तफ्तीश करती रहती हैं.

आमतौर पर भारतीय फेसबुक पर फेमिनिज्म का मतलब नजर आता है जब महिलाएं बोल्ड होकर 'सेक्स' की, 'पीरियड' की, अंतर्वस्त्रों की, शराब की, बात करें, शोभा डे टाइप लिखें. मैनें नॉर्वे के सभी महिला मित्रों के फेसबुक छान मारे, ऐसा कुछ नहीं मिला. उनका फेमिनिज्म यह नहीं है. आप कहेंगें वह पहले से खुली हुई हैं. तीन दशक पहले यहां भी फुल-टाइम गृहणियां होती थीं, उससे कई दशक पहले उनके वोटिंग राइट भी नहीं थे. यहां भी महिला दबी ही हुई थी. फिर क्या हुआ? कैसे हुआ? क्या सब खुलकर 'सेक्स' की बात करने लगी और सब समान हो गया? नहीं.

यहां महिलाओं ने 'समान वेतन' के लिए आंदोलन किया. उन्होनें सामूहिक महिला आरक्षण की मांग नहीं की पर यह कहा कि कंपनी के टॉप बोर्ड में 33 प्रतिशत महिलाएं रहें. जैसे 7 लोगों में 2-4 महिलाएं. यह हक उन्हें मिला. महिलाएं राजनीति में आईं. और 'ऐटीच्यूड' परिवर्तन यानी युगल में पहाड़ों पर पुरूषों से आगे चलना, उनकी दया न स्वीकारना, उनसे तोहफे न लेना बल्कि उन्हें देना, बिल उन्हें न भरने देना इत्यादि. यह आज भी चल रहा है.

फेमिनिस्ट वो है जो 'समान वेतन' की बात करे, प्रतिनिधित्व की बात करे

रही बात 'सेक्स' इत्यादि की बोल्डनेस की, तो वह महिलाओं की समस्या है ही नहीं. एक पॉलिश महिला, एक अफ्रीकन महिला और एक भारतीय महिला जब मिले तो सिर्फ पॉलिश ने कहा कि वो इसके बिना नहीं रह सकती. बाकी दो संस्कृतियों में यह 'करो या मरो' वाला मामला है ही नहीं. उसमें स्त्री-पुरूष दोनों का एक ही नजरिया है. इसका झंडा ऊंचा करना फेमिनिज्म नहीं, यूरोपिज्म जरूर कहला सकता है. वह अलग चीज है.

मेरी नजर में फेमिनिस्ट वो है जो 'समान वेतन' की बात करे, प्रतिनिधित्व की बात करे. 'ऐटीच्यूड' की बात करे. रोज दौड़ लगाए, फिट रहे. पुरूषों से आगे चले कॉन्फिडेंस से. उनसे तोहफे की जिद न करे, बल्कि दे डाले. लीड करे. यही है बोल्डनेस. इसी पद्धति से यह देश 'जेंडर-इक्वल' हुए.

नॉर्वे छोड़िए, भारत आइए. मेरे बैच में 110 महिला, 90 पुरूष थे. दो दशक पहले. हो गया जेंडर इक्वल? रात को साथ ड्यूटी होती, या तो लात मार उठा देती या वहीं कुर्सी पर सो जाती. वो शैक्षिक और मानसिक समानता से बराबर थी. सेक्स का झंडा उठाकर नहीं.

बाकी करिए 'सेक्स', पीरियड इत्यादि की बात. वो अलग मुद्दा है. डॉक्टरी सलाह ली जा सकती है. पर वो 'फेमिनिज्म' या नारीवाद नहीं है. वो तो चिकित्सकीय शास्त्र का हिस्सा है. आपने बात की, बहुत अच्छा किया. बीबीसी की बढ़िया सीरीज आई है. अवेयरनेस के लिए जरूरी है, पर उसका निदान फेसबुक पर कैसे संभव है? और इतना तय है, उसका फेमिनिज्म से दूर-दूर तक कोई रिश्ता नहीं. आप गर इसी को फेमिनिज्म मानते हैं, तो संभवत: गलत दिशा में जा रहे हैं.

(यह लेख सबसे पहले लेखक के फेसबुक वॉल पर प्रकाशित हुआ है)

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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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