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पुस्तक समीक्षा: कभी गांव कभी कॉलेज

    • तुकाराम मंडगिलवार
    • Updated: 15 फरवरी, 2023 01:43 PM
  • 15 फरवरी, 2023 01:43 PM
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ये कहानी है ऊंची दुकान के फ़ीके पकवानों की, बड़े-बड़े नाम वालों की, पर छोटे दर्शन वालों की. कहानी में जब-जब कॉलेज का ज्वार चढ़ता है, गांव में आते ही भाटा सिर पर फूट जाता है. कहानी के हर छात्र का सपना आईएएस/आईपीएस बनने का नहीं है, कोई सरपंच भी बनना चाहता है तो कोई कॉलेज ख़त्म होने के पहले ही ब्याह का प्लेसमेंट चाहता है.

अगम जैन की लिखी ये किताब कभी गांव कभी कॉलेज भरपूर व्यंगो एवं सच्चाई से लदालद हैं. गांव और कॉलेज का दृश्य पढ़ते वक़्त आप 100% महसूस कर पायेंगे. मुख्य किरदार इसमे विवेक, विनय, सुरभि साथ ही मुख्य आकर्षण महिमा चैन सिंह, सुनील. अलग अलग कोनो से आये हुए रंगिलो को लेखक ने विद्यालय की फ्रेम एकदम फक्कड़ तरीके से बिठाया हैं.

आदमी से काम करते वक़्त गलतिया होती हैं, ये सुना होगा आपने लेकिन काम किया ही नहीं तो गलतिया भी कहा से होगी ये यथार्थ बात आपको ज्ञात होगी. हर बार कॉलेज के छात्रों की होड़ रहती हैं की डॉक्टर, इंजीनियर बनना हैं, इसमे इस सिद्धांत को सिरे से खारिज कर दिया हैं.

 

 

उपन्यास में हर एक का अपना अलग सपना हैं, किसीको अपने बाप की प्रधानगी संभालनी हैं, तो किसीको को प्रेम की ग्रंथियों के भीतर वायब्रेशन पैदा करके कवि बनना हैं. गांव की कीचड़ वाली ग्रेवी से लेकर दिल्ली के राजिंदर नगर के टपरी की चाय तक आपको उपन्यास अलग अलग अनुभव देती हैं.

विवेक, विनय, चैनसिंह सुलोचन इनकी चांडाल चौकड़ी आपको किताव एक ही बार मे खत्म करने पर मजबूर करेगी. चिलौटैन्जि से शुरू ही ये कहानी, चिलोंताजी जैसे मंझे हुए ऑलराउंडर (डिस्टेंपर की दुकान में किराना फिर फोटोकॉपी फिर पूरे कॉलेज की व्यवस्था कोई आसान काम है) और हेड साहब जैसे हेडलेस लोग आपको घूमते फिरते गली मोहल्ले में टकरा ही जायेंगे.

मुझे सबसे ज्यादा भाने वाली चीज ये लगी की, लेखक ने शहर की विलासिता पर गांव की बारिश से जमे कीचड़ से सने हुए हाथों से जोर से चांटा जडा हैं. ग्रामीण भाषा, अर्थव्यवस्था, इन पर सिर्फ लिखकर, फोटो छापने और हैशटैग विलेज लिखने वालों को आईना दिखाया हैं.

और अंत मे सुरभि और विवेक की अप्रत्याशित प्रेम कहानी को इतनी पवित्रता,...

अगम जैन की लिखी ये किताब कभी गांव कभी कॉलेज भरपूर व्यंगो एवं सच्चाई से लदालद हैं. गांव और कॉलेज का दृश्य पढ़ते वक़्त आप 100% महसूस कर पायेंगे. मुख्य किरदार इसमे विवेक, विनय, सुरभि साथ ही मुख्य आकर्षण महिमा चैन सिंह, सुनील. अलग अलग कोनो से आये हुए रंगिलो को लेखक ने विद्यालय की फ्रेम एकदम फक्कड़ तरीके से बिठाया हैं.

आदमी से काम करते वक़्त गलतिया होती हैं, ये सुना होगा आपने लेकिन काम किया ही नहीं तो गलतिया भी कहा से होगी ये यथार्थ बात आपको ज्ञात होगी. हर बार कॉलेज के छात्रों की होड़ रहती हैं की डॉक्टर, इंजीनियर बनना हैं, इसमे इस सिद्धांत को सिरे से खारिज कर दिया हैं.

 

 

उपन्यास में हर एक का अपना अलग सपना हैं, किसीको अपने बाप की प्रधानगी संभालनी हैं, तो किसीको को प्रेम की ग्रंथियों के भीतर वायब्रेशन पैदा करके कवि बनना हैं. गांव की कीचड़ वाली ग्रेवी से लेकर दिल्ली के राजिंदर नगर के टपरी की चाय तक आपको उपन्यास अलग अलग अनुभव देती हैं.

विवेक, विनय, चैनसिंह सुलोचन इनकी चांडाल चौकड़ी आपको किताव एक ही बार मे खत्म करने पर मजबूर करेगी. चिलौटैन्जि से शुरू ही ये कहानी, चिलोंताजी जैसे मंझे हुए ऑलराउंडर (डिस्टेंपर की दुकान में किराना फिर फोटोकॉपी फिर पूरे कॉलेज की व्यवस्था कोई आसान काम है) और हेड साहब जैसे हेडलेस लोग आपको घूमते फिरते गली मोहल्ले में टकरा ही जायेंगे.

मुझे सबसे ज्यादा भाने वाली चीज ये लगी की, लेखक ने शहर की विलासिता पर गांव की बारिश से जमे कीचड़ से सने हुए हाथों से जोर से चांटा जडा हैं. ग्रामीण भाषा, अर्थव्यवस्था, इन पर सिर्फ लिखकर, फोटो छापने और हैशटैग विलेज लिखने वालों को आईना दिखाया हैं.

और अंत मे सुरभि और विवेक की अप्रत्याशित प्रेम कहानी को इतनी पवित्रता, विश्वास और लक्ष्य की तरफ बढ़ती दृढ़ता से रखा हैं, की लेखक की तरह आपको भी कहना पड़ेगा ही कि... दिल न देके बिना भी, दिल दिया जा सकता हैं...

किताब का नाम:- कभी गांव कभी कॉलेज

लेखक:- अगम जैन

प्रकाशक:- हिन्द युग्म

पन्ने:- 158 / 41 अध्याय

भाषा:- हिन्दी (भरपूर व्यंग और मुहावरों से भरी हुई)

इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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