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'आजादी के अमृत महोत्सव' के बीच जानिए 102 वर्षीय गुमनाम लोक गायक जंग बहादुर सिंह की दास्तान

    • अरुण तिवारी
    • Updated: 10 अगस्त, 2022 06:49 PM
  • 10 अगस्त, 2022 06:49 PM
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दो दशकों तक अपने भोजपुरी गायन से बंगाल, बिहार, झारखंड, उत्तर-प्रदेश आदि राज्यों में बिहार का नाम रौशन करने-वाले व्यास शैली के बेजोड़ लोक-गायक जंगबहादुर सिंह आज 102 वर्ष की आयु में गुमनामी के अंधेरे में जीने को विवश हैं. उन्होंने उस दौर में अपने जोश भर देने वाले गीतों को गाकर ना जाने कितने युवाओं को देश के लिए सर्वस्व न्योछावर करने को प्रेरित किया.

इस साल भारत अपनी स्वतंत्रता का 75वां स्वर्णिम वर्ष मना रहा है, और इसे नाम दिया है आज़ादी का अमृत महोत्सव. इस महोत्सव में हम उन सभी वीरों को याद कर रहे हैं जिसने किसी ना किसी तरह देश की आजादी में अपना कीमती योगदान दिया. इसी क्रम में ऐसे कई माटी के लाल भी हैं जिन्हें हम या तो भूल गए या समय ने याद नहीं रखा. कारण कई हो सकते हैं, जैसे उनके कृति का कोई रिकॉर्ड ना होना, उन पर कुछ लिखा पढ़ा ना जाना. लेकिन अब जब मौका है अमृत महोत्सव का तो, एक ऐसे ही माटी के लाल की कहानी हमें जरूर पढ़नी चाहिए. बिहार में सिवान जिले के रघुनाथपुर प्रखण्ड के कौसड़ गांव के रहने-वाले तथा रामायण, महाभारत व देशभक्ति गीतों के उस्ताद भोजपुरी लोक-गायक जंग बहादुर सिंह साठ के दशक का ख्याति प्राप्त नाम रहा है.

लगभग दो दशकों तक अपने भोजपुरी गायन से बंगाल, बिहार, झारखंड, उत्तर-प्रदेश आदि राज्यों में बिहार का नाम रौशन करने-वाले व्यास शैली के बेजोड़ लोक-गायक जंगबहादुर सिंह आज 102 वर्ष की आयु में गुमनामी के अंधेरे में जीने को विवश हैं. उन्होंने उस दौर में अपने जोश भर देने वाले गीतों को गाकर ना जाने कितने युवाओं को देश के लिए सर्वस्व न्योछावर करने को प्रेरित किया. इस कारण अंग्रेजी सरकार ने उन्हें जेल खाने में भी डाला, लेकिन उनके देशभक्ति के जज्बे को कभी रोक नहीं पाए. 10 दिसंबर, 1920 ई. को सिवान, बिहार में जन्में जंगबहादुर पं.बंगाल के आसनसोल में सेनरेले साइकिल करखाने में नौकरी करते हुए भोजपुरी की व्यास शैली में गायन-कर झरिया, धनबाद, दुर्गापुर, संबलपुर, रांची आदि क्षेत्रों में अपने गायन का परचम लहराते हुए अपने जिले व राज्य का मान बढ़ा चुके हैं.

जंग बहादुर के गायन की विशेषता यह रही कि बिना माइक के ही कोसों दूर तक उनकी आवाज़ सुनी जाती थी. आधी रात के बाद उनके सामने कोई टिकता नहीं था, मानो उनकी जुबां व गले में सरस्वती आकर बैठ गई हों. खास-कर भोर में गाये जाने वाले भैरवी गायन में उनका सानी नहीं था. प्रचार-प्रसार से कोसों दूर रहने-वाले व ‘स्वांतः सुखाय’ गायन करने-वाले इस...

इस साल भारत अपनी स्वतंत्रता का 75वां स्वर्णिम वर्ष मना रहा है, और इसे नाम दिया है आज़ादी का अमृत महोत्सव. इस महोत्सव में हम उन सभी वीरों को याद कर रहे हैं जिसने किसी ना किसी तरह देश की आजादी में अपना कीमती योगदान दिया. इसी क्रम में ऐसे कई माटी के लाल भी हैं जिन्हें हम या तो भूल गए या समय ने याद नहीं रखा. कारण कई हो सकते हैं, जैसे उनके कृति का कोई रिकॉर्ड ना होना, उन पर कुछ लिखा पढ़ा ना जाना. लेकिन अब जब मौका है अमृत महोत्सव का तो, एक ऐसे ही माटी के लाल की कहानी हमें जरूर पढ़नी चाहिए. बिहार में सिवान जिले के रघुनाथपुर प्रखण्ड के कौसड़ गांव के रहने-वाले तथा रामायण, महाभारत व देशभक्ति गीतों के उस्ताद भोजपुरी लोक-गायक जंग बहादुर सिंह साठ के दशक का ख्याति प्राप्त नाम रहा है.

लगभग दो दशकों तक अपने भोजपुरी गायन से बंगाल, बिहार, झारखंड, उत्तर-प्रदेश आदि राज्यों में बिहार का नाम रौशन करने-वाले व्यास शैली के बेजोड़ लोक-गायक जंगबहादुर सिंह आज 102 वर्ष की आयु में गुमनामी के अंधेरे में जीने को विवश हैं. उन्होंने उस दौर में अपने जोश भर देने वाले गीतों को गाकर ना जाने कितने युवाओं को देश के लिए सर्वस्व न्योछावर करने को प्रेरित किया. इस कारण अंग्रेजी सरकार ने उन्हें जेल खाने में भी डाला, लेकिन उनके देशभक्ति के जज्बे को कभी रोक नहीं पाए. 10 दिसंबर, 1920 ई. को सिवान, बिहार में जन्में जंगबहादुर पं.बंगाल के आसनसोल में सेनरेले साइकिल करखाने में नौकरी करते हुए भोजपुरी की व्यास शैली में गायन-कर झरिया, धनबाद, दुर्गापुर, संबलपुर, रांची आदि क्षेत्रों में अपने गायन का परचम लहराते हुए अपने जिले व राज्य का मान बढ़ा चुके हैं.

जंग बहादुर के गायन की विशेषता यह रही कि बिना माइक के ही कोसों दूर तक उनकी आवाज़ सुनी जाती थी. आधी रात के बाद उनके सामने कोई टिकता नहीं था, मानो उनकी जुबां व गले में सरस्वती आकर बैठ गई हों. खास-कर भोर में गाये जाने वाले भैरवी गायन में उनका सानी नहीं था. प्रचार-प्रसार से कोसों दूर रहने-वाले व ‘स्वांतः सुखाय’ गायन करने-वाले इस अनोखे लोक-गायक को अपना ही भोजपुरिया समाज भूल रहा है. पहले कुश्ती के दंगल के पहलवान हुआ करते थे जंग बहादुर जंग बहादुर सिंह शुरू-शुरू में पहलवान थे. बड़े-बड़े नामी पहलवानों से उनकी कुश्तियां होती थीं. छोटे कद के इस चीते-सी फुर्ती-वाले व कुश्ती के दांव-पेंच में माहिर जंग बहादुर की नौकरी ही लगी पहलवानी के दम पर. 22-23 वर्ष की उम्र में अपने छोटे भाई मजदूर नेता रामदेव सिंह के पास कोलफ़ील्ड, शिवपुर कोइलरी, झरिया, धनबाद में आये थे जंग बहादुर.

जंग बहादुर एक साथ एक एजुकेटर, एक एंटरटेनर और एक मोटिवेशल स्पीकर की भूमिका निभाते रहे हैं.

वहां कुश्ती के दंगल में बिहार का प्रतिनिधित्व करते हुए लगभग तीन कुंतल के एक बंगाल की ओर से लड़ने-वाले पहलवान को पटक दिया. फिर तो शेर-ए-बिहार हो गए जंग बहादुर. तमाम दंगलों में कुश्ती लड़े, लेकिन उन्हीं दिनों एक ऐसी घटना घटी कि वह संगीत के दंगल के उस्ताद बन गए. संगीत के दंगल के योद्धा बने जंग बहादुर दुगोला के एक कार्यक्रम में तब के तीन बड़े गायक मिलकर एक गायक को हरा रहे थे. दर्शक के रूप में बैठे पहलवान जंग बहादुर सिंह ने इसका विरोध किया और कालांतर में इन तीनों लोगों को गायिकी में हराया भी. उसी कार्यक्रम के बाद जंग बहादुर ने गायक बनने की जिद्द पकड़ ली.

धुन के पक्के और बजरंग बली के भक्त जंग बहादुर का मां सरस्वती ने भी साथ दिया. रामायण-महाभारत के पात्रों भीष्म, कर्ण, कुंती, द्रौपदी, सीता, भरत, राम व देश-भक्तों में चंद्र शेखर आज़ाद, भगत सिंह, सुभाष चंद्र बोस, वीर अब्दुल हमीद, महात्मा गांधी आदि कि चरित्र-गाथा गाकर भोजपुरिया जन-मानस में लोकप्रिय हो गए जंग बहादुर सिंह. तब ऐसा दौर था कि जिस कार्यक्रम में नहीं भी जाते थे जंग बहादुर, वहां के आयोजक भीड़ जुटाने के लिए पोस्टर-बैनर पर इनकी तस्वीर लगाते थे. पहलवानी का जोर पूरी तरह से संगीत में उतर गया था और कुश्ती का चैंपियन भोजपुरी लोक-संगीत का चैंपियन बन गया था. अस्सी के दशक के सुप्रसिद्ध लोक-गायक मुन्ना सिंह व्यास व उसके बाद के लोकप्रिय लोक-गायक भरत शर्मा व्यास तब जवान थे, उसी इलाके में रहते थे और इन लोगों ने जंग बहादुर सिंह व्यास का जलवा देखा था.

उनके तुरंत बाद की गायकी पीढ़ी के नामी गायक रहे हैं, मुन्ना सिंह व्यास. वह तब के स्वर्णिम दिनों की याद करके कहते हैं, “एक समय था, जब बाबू जंग बहादुर सिंह की तूती बोलती थी. उनके सामने कोई गायक नहीं था. वह एक साथ तीन-तीन गायकों से दुगोला की प्रतियोगिता रखते थे. झारखंड-बंगाल-बिहार में उनका नाम था और पंद्रह-बीस वर्षों तक एक क्षत्र राज्य था उनका. उनके साथ के करीब-करीब सभी गायक दुनिया छोड़कर जा चुके हैं. खुशी की बात है कि वह 102 वर्ष की उम्र में भी टाइट हैं. भोजपुरी की संस्थाएं तो खुद चमकने-चमकाने में लगी हैं. सरकार का भी ध्यान नहीं है. मैं तो यही कहूंगा कि ऐसी प्रतिभा को पद्मश्री देकर सम्मानित किया जाना चाहिए.” 90 के दशक में खूब चर्चित हुए भोजपुरी लोक गायक भरत शर्मा व्यास अपने युवावस्था में जंगबहादुर सिंह के कार्यक्रमों में श्रोता रहे.

बकौल भरत शर्मा, “जंग बहादुर सिंह का उस ज़माने में नाम लिया जाता था, गायको में. मुझसे बहुत सीनियर हैं. मैं कलकता से उनकी गायिकी सुनने आसनसोल, झरिया, धनबाद आया करता था. कई बार उनके साथ बैठकी भी हुई है. भैरवी गायन में तो उनका जबाब नहीं है. इतनी ऊंची तान, अलाप और स्वर की मृदुलता के साथ बुलंद आवाज़-वाला दूसरा गायक भोजपुरी में नहीं हुआ है. भोजपुरी भाषा की सेवा करने वाले व्यास शैली के इस महान गायक को सरकारी स्तर पर सम्मानित किया जाना चाहिए. देश और देशभक्तों के लिए गाते थे जंग बहादुर सिंह चारों तरफ आज़ादी के लिए संघर्ष चल रहा था. युवा जंग बहादुर देश-भक्तों में जोश जगाने के लिए घूम-घूमकर देश-भक्ति के गीत गाने लगे. 1942-47 तक आज़ादी के तराने गाने के लिए ब्रिटिश प्रताड़ना के शिकार हुए और जेल भी गए. पर जंग बहादुर रुकने-वाले कहां थे.

जंग में भारत की जीत हुई और भारत आज़ाद हुआ. आज़ादी के बाद भी जंग बहादुर महाराणा प्रताप, वीर कुंवर सिंह, महात्मा गांधी, सुभाष चंद्र बोस, चंद्र शेखर आजाद आदि की वीर-गाथा ही ज्यादा गाते थे और धीरे-धीरे वह लोक-धुन पर देशभक्ति गीत गाने के लिए जाने जाने लगे. साठ के दशक में जंग बहादुर का सितारा बुलंदी पर था. भोजपुरी देश-भक्ति गीत माने, जंग बहादुर. भैरवी माने, जंग बहादुर. रामायण और महाभारत के पात्रों की गाथा माने, जंग बहादुर. पर अब उस शोहरत पर समय की धूल की परत चढ़ गई. आज हम आज़ादी का अमृत महोत्सव मना रहे हैं, पर जंग बहादुर किसी को याद नहीं हैं.

देशभक्ति के तराने गाने-वाले इस क्रांतिकारी गायक को नौकरशाही ने आज तक स्वतंत्रता-सेनानी का दर्जा नहीं दिया. हांलाकि इस बात का उल्लेख उनके समकालीन गायक समय-समय पर करते रहे कि जंग बहादुर को उनके क्रांतिकारी गायन की वजह से अंग्रेज़ी शासन ने गिरफ्तार कर जेल भेजा था, फिर भी उन्हें जेल में भेजे जाने का रिकॉर्ड आज़ाद हिंदुस्तान की नौकरशाही को नहीं मिल पाया. मस्तमौला जंग बहादुर कभी इस चक्कर में पड़े भी नहीं. भारतीय हॉकी टीम के पूर्व कोच रहे महान हॉकी खिलाड़ी हरेन्द्र सिंह बिहार के छपरा में पैदा हुए और उन्होंने जंग बहादुर सिंह को गाते हुए अक्सर सुना. वह अपनी स्मृति साझा करते हुए कहते हैं, “जंग बहादुर सिंह भोजपुरी के महान गायकों में शामिल हैं. बचपन में मैंने इनको अपने गांव बंगरा, छपरा में चैता गाते हुए सुना है.

भोजपुरी और खासकर तब छपरा-सिवान-गोपालगंज जिले के संयुक्त सारण जिले का नाम देश-दुनिया में रौशन किया है व्यास जंग बहादुर सिंह ने. मैं उन खुशनसीब लोगों में से हूं, जिन्होंने जंग बहादुर सिंह को लाइव सुना है. गायिकी के साथ उनके झाल बजाने की कला का मुरीद हूं मैं. ये हम सब का सौभाग्य है कि जंग बहादुर जी उम्र के इस पड़ाव में हम लोगों के बीच हैं. इनकी कृति और रचनाओं को कला संस्कृति विभाग बिहार सरकार को सहेजना चाहिए.” जंग बहादुर का पारिवारिक जीवन सन 1970 ई. में टूट गये थे जंग बहादुर, जब उनके बेटे और बेटी की आकस्मिक मृत्यु हुई. धीरे-धीरे उनका मंचों पर जाना और गाना कम होने लगा. दुर्भाग्य ने अभी पीछा नहीं छोड़ा था, पत्नी महेशा देवी एक दिन खाना बनाते समय बुरी तरह जल गईं. जंग बहादुर को उन्हें भी संभालना था. वह समझ नहीं पा रहे थे कि राग-सुर को संभाले या परिवार को. उनके सुर बिखरने लगे.

जिंदगी बेसुरी होने लगी. सन 1980 के आस-पास एक और बेटे की कैंसर से मौत हो गई. फिर तो अंदर से बिल्कुल टूट गये जंग बहादुर. अभी दो बेटे हैं, बड़ा बेटा मानसिक और शारीरिक रूप से अक्षम है. बूढ़े बाप के सामने दिन-भर बिस्तर पर पड़ा रहता है. छोटे बेटे राजू ने परिवार संभाल रखा है. वह विदेश रहता है. वयोवृद्ध जंग बहादुर के अंदर और बाहर जंग चलता रहता है. पता नहीं किस मिट्टी के बने हैं जंग बहादुर. इतने दुख के बाद भी मुस्कुराते रहते हैं और मूंछों पर ताव देते रहते हैं. पिछले तीस वर्षों से प्रेमचंद की कहानियों के नायक की तरह अपने गांव-जवार में किसी के भी दुख-सुख व जग-परोजन में लाठी लेकर खड़े रहते हैं जंग बहादुर.

मंचीय गायन छोड़ने के बाद भी गांव के मंदिर-शिवालों व मठिया में शिव-चर्चा व भजन गाते रहते हैं जंग बहादुर. समय हो तो जाइए 102 वर्ष के इस वयोवृद्ध गायक के पास बैठिए. हार्ट पैसेंट हैं. डॉक्टर से गाने की मनाही है, फिर भी आपको लगातार चार घंटे तक सिर्फ देश-भक्ति गीत सुना सकते हैं. आज भी भोर में ‘’ घास की रोटी खाई वतन के लिए’’, ‘’ शान से मूंछ टेढ़ी घुमाते रहे ‘’ ..‘’ हम झुका देम दिल्ली के सुल्तान के ‘’/ .. ‘’ गांधी खद्दर के बान्ह के पगरिया, ससुरिया चलले ना ‘’..सरीखे गीत गुनगुनाते हुए अपने दुआर पर टहलते हुए मिल जायेगें जंग बहादुर सिंह. इनकी बुदबुदाहट या बड़बड़ाहट में भी देश-भक्त और देश-भक्ति के गीत होते हैं. अपनी गाय को निहारते हुए अक्सर गुनगुनाते हैं जंग बहादुर सिंह – हमनी का हईं भोजपुरिया ए भाई जी गइया चराइले, दही-दूध खाइले कान्हवा प धई के लउरिया ए भाई जी .. आखड़ा में जाइले, मेहनत बनाइले कान्हवा प मली-मली धुरिया ए भाई जी .. लुप्त होती स्मृति में तन्हा जंग बहादुर सिंह लुप्त होती स्मृति में तन्हा जंग बहादुर सिंह अब भटभटाने लगे हैं.

अपने छोटे भाई हिंडाल्को के मजदूर नेता रामदेव सिंह की मृत्यु ( 14 अप्रैल, 2022) के बाद और अकेले पड़ गये हैं जंग बहादुर. वह अकेले में कुछ खोजते रहते हैं. कुछ सोचते रहते हैं. फिर अचानक संगीतमय हो जाते हैं. देशभक्ति गीत गाते-गाते निर्गुण गाने लगते हैं. वीर अब्दुल हमीद व सुभाष चंद्र बोस की गाथा गाते-गाते गाने लगते हैं कि ‘’ जाये के अकेल बा, झमेल कवना काम के.‘’ विलक्षण प्रतिभा के धनी जंग बहादुर ने गायन सीखा नहीं, प्रयोग और अनुभव से खुद को तराशा है. अपने एक मात्र उपलब्ध साक्षात्कार में जंग बहादुर ने बताया कि उन्हें गाने-बजाने से इस कदर प्रेम हुआ कि बड़े-बड़े कवित्त, बड़ी-बड़ी गाथाएं और रामायण-महाभारत तक कंठस्थ हो गये. वह कहते हैं, प्रेम पनप जाये तो लक्ष्य असंभव नहीं. लक्ष्य तक वह पहुंचे, खूब नाम कमाया.

शोहरत-सम्मान ऐसा मिला कि भोजपुरी लोक-संगीत के दो बड़े सितारे मुन्ना सिंह व्यास और भरत शर्मा व्यास उनकी तारीफ करते नहीं थकते. पर अफसोस कि तब कुछ भी रिकार्ड नहीं हुआ. रिकार्ड नहीं हो तो कहानी बिखर जाती है. अब तो जंग बहादुर सिंह की स्मृति बिखर रही है, वह खुद भी बिखर रहे हैं, 102 वर्ष की उम्र हो गई है. जीवन के अंतिम छोर पर खड़े इस अनसंग हीरो को उसके हिस्से का हक़ और सम्मान मिले. भोजपुरी के सुप्रसिद्ध कवि और फिल्म समीक्षक मनोज भावुक उनके लिए पद्म श्री सम्मान की मांग करते हुए कहते हैं, “बाबू जंग बहादुर सिंह के समकालीन रहे भोजपुरी गायक व्यास नथुनी सिंह, वीरेन्द्र सिंह, वीरेन्द्र सिंह धुरान और गायत्री ठाकुर आज हम लोगों के बीच नहीं हैं, पर संगीत-प्रेमी व संगीत-मर्मज्ञ बताते हैं कि इन सभी गायक कलाकारों ने भी जंग बहादुर सिंह का लोहा माना था और इज्ज़त दी थी. राम इकबाल, तिलेसर व रामजी सिंह व्यास जैसे गायकों से एक साथ दुगोला करते थे जंग बहादुर बाबू. परिवार के लोग जानते हैं कि जंगबहादुर सिंह ने अपनी गायन-कला को व्यवसाय नहीं बनाया.

जंग बहादुर एक साथ एक एजुकेटर, एक एंटरटेनर और एक मोटिवेशल स्पीकर की भूमिका निभाते रहे. साथ ही जहां आज जहां भोजपुरी गीत अश्लीलता का पर्याय बनी हुई है, वहीं उस समय इस ढंग का कंटेन्ट परोसकर जंग बहादुर एक समाज सुधारक की भूमिका भी निभाते रहे. व्यास शैली में गायन तो बहुत सारे गायकों ने किया लेकिन इस तरह से देशभक्तों को और रामायण-महाभारत के नायकों को किसी ने नहीं गाया. जंग बहादुर इन नायकों और देशभक्तों की वीर-गाथा भोजपुरी में व्यास शैली में गाते थे तो यह भोजपुरी के प्रचार-प्रसार का सशक्त माध्यम भी बना लेकिन अफसोस इस धरोहर का कोई डॉक्यूमेंटेशन नहीं हो सका, कोई रिकॉर्डिंग नहीं हो सकी. 70-72 के आस-पास जंग बहादुर ने अपने दो बच्चों को खो दिया, 74-75 में उनकी पत्नी बुरी तरह जल गईं, 80 के आस-पास उनका एक बेटा ब्लड कैंसर से दिवंगत हो गया, तब भी जंग बहादुर का गायन जारी रहा लेकिन मंच छूट गया और उसकी जगह मंदिर आ गये. अपने घर में और मंदिर में वह निर्गुण, भजन, भैरवी और कबीर-तुलसी की रचनाएं गाने लगे.

जीवन की नश्वरता और जीवन के परे की दुनिया को लोगों को समझाने लगे. अध्यात्म से लोगों की उदासी मिटाने लगे. यह भी एक बहुत बड़ा काम है जंग बहादुर सिंह के संगीत का. जीवन के प्रति, समाज के प्रति और खुद के प्रति उनका सकारात्मक दृष्टिकोण ही है कि इतनी विपदाओं के बाद भी, उम्र के इस पड़ाव पर भी वह फिट हैं और हंसते-मुस्कुराते रहते हैं. गलत बात अब भी बर्दाश्त नहीं करते, अपनी मूंछों पर ताव देकर ललकार देते हैं और मुंह में नकली दांत है, हवा निकल जाती है फिर भी अपने बापू, सुभाष, राम, कृष्ण और महादेव को मस्ती में गाते ही रहते हैं. मतलब दमा और हृदय के मरीज होने पर भी, 102 वर्ष की आयु में भी उनका पहलवान जिंदा है, उनका गायक जिंदा है. ऐसे महान नायक को जिसने देश, समाज और कला के लिए अनेक योगदान दिए, उसकी खातिर केंद्र सरकार की तरफ से पद्म सम्मान अवश्य दिया जाना चाहिए, जो उन वयोवृद्ध के निःस्वार्थ काम का उपयुक्त मोल होगा और हम जनता की ओर से सच्चा आदर!

इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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